राहुल गांधी का विदेशी भाषण: भारत की आलोचना का ‘इम्पोर्टेड एजेंडा’ और आत्मघाती राजनीति की परंपरा

राहुल ने कहा कि भारत को ऐसी शिक्षा व्यवस्था चाहिए जो कुछ लोगों का विशेषाधिकार न बने। इसके निहितार्थ साफ़ हैं के भारत में अब स्वतंत्र सोच, खुला संवाद और जिज्ञासा की गुंजाइश नहीं बची।

राहुल गांधी का विदेशी भाषण: भारत की आलोचना का ‘इम्पोर्टेड एजेंडा’ और आत्मघाती राजनीति की परंपरा

राहुल गांधी को समझना चाहिए कि भारत के लोकतंत्र को किसी पेरू प्रवचन की ज़रूरत नहीं।

हुल गांधी के भाषणों का अब एक तयशुदा फ़ॉर्मूला बन चुका है, देश से बाहर जाइए, किसी विदेशी विश्वविद्यालय में युवाओं को संबोधित कीजिए और फिर भारत को एक दमनकारी, भयग्रस्त, असमानता से जूझता देश बताया। पेरू में दिया गया उनका हालिया भाषण इसी श्रृंखला की अगली कड़ी है। इस बार मंच था पोंटिफिकल कैथोलिक यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ़ चिली का और विषय था भारत में शिक्षा और आज़ादी का संकट। राहुल ने कहा कि भारत को ऐसी शिक्षा व्यवस्था चाहिए जो कुछ लोगों का विशेषाधिकार न बने। सुनने में यह वाक्य लोकतांत्रिक लगता है, पर निहितार्थ साफ़ है के भारत में अब स्वतंत्र सोच, खुला संवाद और जिज्ञासा की गुंजाइश नहीं बची।

लेकिन, सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी जिस भारत की बात कर रहे हैं, वह सच में आज का भारत है या उनके राजनीतिक पराजय का एक मानसिक प्रोजेक्शन? जिस देश में उन्हें और उनकी पार्टी को हर चुनाव में खुलकर प्रचार करने, मीडिया में बयान देने, संसद में सरकार को कठघरे में खड़ा करने की पूरी आज़ादी है, उसी देश को वे विदेशी धरती पर डर का देश बताते हैं। यह विरोधाभास नहीं, बल्कि एक सोचा-समझा राजनीतिक नैरेटिव है। देश को बदनाम करो ताकि खुद को ‘वैकल्पिक विचारक’ साबित किया जा सके।

पेरू का यह भाषण वस्तुतः वही पुराना फॉरेन पॉलिसी थिएटर था, जहां राहुल गांधी खुद को विचारक और मोदी सरकार को दमनकारी बताने में कोई अवसर नहीं छोड़ते। लेकिन लोकतंत्र पर ये उपदेश तब खोखले लगते हैं जब इन्हें उस व्यक्ति से सुना जाए जिसकी पार्टी आज भी परिवारवाद की जंजीरों से बाहर नहीं निकल पाई है। गांधी परिवार के भीतर आलोचना की जो गुंजाइश नहीं है, वह पूरे भारत में होने का दावा करना महज़ ढोंग है।

राहुल गांधी कहते हैं कि भारत में छात्रों को राजनीतिक और सामाजिक सवाल बिना डर के पूछने चाहिए। सवाल है, उन्हें कौन रोक रहा है? यही देश है जहां जेएनयू, एएमयू, जामिया और टाटा इंस्टिट्यूट जैसे कैंपसों में रोज़ सरकार के खिलाफ़ नारे लगते हैं, बहसें होती हैं, और मीडिया उन्हें लाइव कवरेज देता है। लेकिन, राहुल को इन तथ्यों से फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उनका उद्देश्य वास्तविकता दिखाना नहीं, बल्कि भ्रम फैलाना है।

यह कोई संयोग नहीं कि राहुल गांधी का यह भाषण उस समय आया है जब भारत की वैश्विक साख अपने चरम पर है। चंद्रयान-3 से लेकर जी-20 तक भारत की उपलब्धियां हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर सराही जा रही हैं। शायद इसी चमक को धूमिल करने के लिए वह समय-समय पर विदेशी मंचों से भारत की आलोचना करते हैं। यह आलोचना किसी लोकतांत्रिक असहमति का नहीं, बल्कि एक सुनियोजित “नैरेटिव वॉर” का हिस्सा है—जहाँ अपने ही देश की छवि को गिराकर खुद को अंतरराष्ट्रीय ‘लिबरल हीरो’ साबित करना होता है।

विडंबना यह भी है कि राहुल जिस शिक्षा में विविधता की बात करते हैं, वही विविधता आज भारत की नई शिक्षा नीति का आधार है, जहां स्किल डेवलपमेंट, मातृभाषा और तकनीकी शिक्षा को बढ़ावा दिया जा रहा है। लेकिन इन तथ्यों से अनजान बनकर वे वही रटा-रटाया वाक्य दोहराते हैं जो पश्चिमी दर्शकों को सुहाता है। भारत में स्वतंत्रता खतरे में है। असल में राहुल का यह भाषण भारतीय लोकतंत्र पर नहीं, बल्कि पश्चिमी उदारवाद को खुश करने का प्रदर्शन था।

सबसे बड़ा प्रश्न है कि क्या एक नेता जो देश की जनता से विश्वास नहीं जीत पा रहा, उसे विदेशी छात्रों के बीच भारत की आलोचना करने का नैतिक अधिकार है? क्या वह यह भूल गए हैं कि जब वे कहते हैं भारत में आज़ादी नहीं है, तो दुनिया यही मानती है कि 140 करोड़ भारतीय गुलाम मानसिकता में जी रहे हैं? यह सिर्फ़ सरकार की नहीं, हर भारतीय की छवि पर प्रहार है।

राहुल गांधी को समझना चाहिए कि भारत के लोकतंत्र को किसी पेरू प्रवचन की ज़रूरत नहीं। यह वही देश है जिसने ब्रिटिश साम्राज्य को विचार और असहमति से हराया था। यह वही समाज है जहां 18 भाषाओं और सैकड़ों मतों के बावजूद एक झंडे के नीचे एकता संभव है। अगर राहुल गांधी इसे डर और असमानता का राष्ट्र मानते हैं, तो समस्या भारत में नहीं, उनकी दृष्टि में है।

इधर, कांग्रेस नेता के लिए यह आत्मनिरीक्षण का समय है या तो वे एक परिपक्व राजनेता की तरह देश के भीतर रचनात्मक राजनीति करें, या फिर विदेशी मंचों से भारत विरोधी विमर्श फैलाने वाले “इम्पोर्टेड डेमोक्रेट” की भूमिका निभाते रहें। लेकिन याद रहे, भारत अब वह देश नहीं रहा जिसे कोई गांधी परिवार की विदेश यात्राओं से परिभाषित कर सके। अब भारत खुद अपनी कहानी लिख रहा है—और उसमें राहुल गांधी जैसे प्रवासीय आलोचकों के लिए कोई खास जगह नहीं बची है।

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