तुलसीदास जी की कहानी: एक ऐसे भक्त, जिन्होनें राम कथा को घर-घर पहुँचाया

लसीदास जी की कहानी हमें बताती है कि भक्ति क्या होती है, त्याग क्या होता है, और भगवान में अटूट भरोसा कैसा होता है।

तुलसीदास जी की कहानी: एक ऐसे भक्त, जिन्होनें राम कथा को घर-घर पहुँचाया

चित्रकूट के घाट पर बहुत सारे संत इकठ्ठा थे। वहीं एक संत चुपचाप बैठकर चंदन घिस रहे थे और वो चंदन भगवान राम के माथे पर तिलक की तरह लगा रहे थे। ये कोई मामूली बात नहीं थी। वो संत और कोई नहीं, बल्कि भगवान राम के बड़े भक्त गोस्वामी तुलसीदास थे।

तुलसीदास जी ने अपने पूरे जीवन में बस राम का नाम जपा, राम की बातें लिखीं और लोगों को राम भक्ति का रास्ता दिखाया। उनकी लिखी बातें आज भी करोड़ों लोगों को सच्चाई और भक्ति का रास्ता दिखाती हैं।

बचपन से ही करते थे राम नाम का जाप

तुलसीदास जी का जन्म सन 1497 के आस-पास, उत्तर प्रदेश के राजापुर गांव में हुआ था। लोग कहते हैं कि जब वो पैदा हुए, तो रोने की जगह उनके मुँह से “राम” नाम निकला। लेकिन किस्मत ने साथ नहीं दिया और जन्म के थोड़े ही समय बाद उनके माँ-बाप चल बसे। छोटे से तुलसी अनाथ हो गए। फिर एक दाई माँ ने उन्हें पाला। दाई माँ ने उनका नाम  रामबोला रखा। मतलब, जो हमेशा राम का नाम ले। रामबोला बचपन से ही हर वक्त “राम-राम” जपा करते थे। गांव वाले भी कहते थे,  ये बच्चा कोई आम नहीं है, जरूर भगवान का कोई अंश है।

समय के साथ रामबोला बड़े हुए। उन्होंने संस्कृत और धर्मग्रंथों की शिक्षा ली। फिर उनका विवाह रत्नावली नाम की एक विदुषी महिला से हुआ। तुलसीदास अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे। वह प्रेम इतना गहरा था कि वे प्रभु राम को भी भूल गए। साधुता, साधना सब पीछे छूट गया और वे पत्नी-मोह में पूरी तरह डूब गए।

रत्नावली के एक वाक्य ने बदल दी जीवन की दिशा

कहते हैं कि एक रात बहुत तेज़ बारिश हो रही थी, आसमान में बिजली कड़क रही थी, लेकिन तुलसीदास जी को तो बस अपनी पत्नी की याद सता रही थी। वो सब कुछ छोड़-छाड़कर, बारिश और तूफान के बीच नदी पार करके अपनी पत्नी से मिलने पहुँच गए।

पत्नी रत्नावली ने जब ये देखा, तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। उन्होंने तुलसीदास जी से कहा “अगर इतना प्यार तुम भगवान राम से करते, तो तुम्हारा जीवन सुधर गया होता। मेरे जैसे नाशवान शरीर के पीछे भागकर तुमने अपना साधु जीवन बेकार कर दिया।

रत्नावली की ये बात सीधा उनके दिल में उतर गई, जैसे किसी ने तीर मार दिया हो। उसी पल तुलसीदास जी की आँखें खुल गईं। उन्होंने ठान लिया कि अब वे घर-बार छोड़कर भगवान राम की भक्ति में ही जीवन बिताएंगे।

काशी में लिखा रामचरितमानस

तुलसीदास जी ने फिर अपना पूरा जीवन भगवान राम की सेवा और भक्ति में लगा दिया। वो काशी, प्रयाग, चित्रकूट जैसे तीर्थों में घूम-घूमकर लोगों को राम की कथा सुनाने लगे। जब वो काशी में थे, तब उन्होंने ‘रामचरितमानस’ लिखना शुरू किया। ये ग्रंथ उन्होंने अवधी भाषा में लिखा, ताकि आम लोग भी राम की कहानी को अच्छे से समझ सकें।

लोग कहते हैं कि जब तुलसीदास जी रामचरितमानस लिख रहे थे, तब खुद हनुमान जी आकर उनकी मदद किया करते थे। कई बार ऐसा होता कि रात में जो पन्ने लिखे जाते, वो सुबह गायब मिलते, लेकिन फिर किसी चमत्कार की तरह वापस भी मिल जाते।

रामचरितमानस के अलावा उन्होंने ‘हनुमान चालीसा’, ‘विनय पत्रिका’, ‘कवितावली’ जैसे कई और ग्रंथ भी लिखे। इन सब में राम भक्ति की मिठास भरी हुई है।  ‘हनुमान चालीसा’ तो आज भी हर घर में पढ़ी जाती है। लोगों का मानना है कि इसका पाठ करने से डर, संकट और सारी परेशानियाँ दूर हो जाती हैं।

अकबर से भी हुई मुलाकात

एक बार की बात है, मुगल बादशाह अकबर ने तुलसीदास जी को अपने दरबार में बुलवाया। वहाँ उसने सवाल किया  “क्या तुम्हारे राम सच में भगवान हैं?” तुलसीदास जी ने बहुत ही शांत और साफ़ जवाब दिया  “राम ही तो सबके भगवान हैं।” इतना कहते ही पूरे दरबार में “राम-राम” की आवाज़ गूंजने लगी। सभी लोग हैरान रह गए।

एक और किस्सा बहुत मशहूर है जब काशी शहर में भूत-प्रेतों का बड़ा डर फैल गया था, तो तुलसीदास जी ने ‘हनुमान चालीसा’ लिखी। जैसे ही लोगों ने उसका पाठ शुरू किया, सब बुरी शक्तियाँ वहाँ से भाग गईं।

अंतिम समय भी राम नाम में लीन रहे

तुलसीदास जी ने अपने आखिरी दिन काशी के असीघाट पर बिताए। वहीं एक किनारे बैठकर वो दिन-रात बस “राम-राम” का जाप करते रहते थे। फिर एक दिन, जब उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा, तो पूरे घाट पर सिर्फ एक ही आवाज़ गूंज रही थी  “राम… राम… राम…”

तुलसीदास की कथा हमें क्या सिखाती है?

गोस्वामी तुलसीदास जी का जीवन हमें ये सिखाता है कि

तुलसीदास जी की ये कहानी हमें बताती है कि भक्ति क्या होती है, त्याग क्या होता है, और भगवान में अटूट भरोसा कैसा होता है। उन्होंने जो रामचरितमानस लिखा, वो आज भी करोड़ों लोगों को रास्ता दिखा रहा है। वो बस एक कवि नहीं थे, वो तो संतों के भी संत थे।

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