देश में लोकतंत्र को अक्सर “जन की शक्ति” कहा जाता है। लेकिन, क्या यह शक्ति इतनी उदार होनी चाहिए कि वह उन्हीं लोगों को मंच दे दें, जिन्होंने कभी राष्ट्र की अखंडता पर प्रश्न उठाए हों? 2020 के दिल्ली दंगों का नाम लेते ही जो चेहरे देश की स्मृति में उभरते हैं, उसमें शरजिल इमाम प्रमुख है। वही व्यक्ति जिस पर न केवल दंगा भड़काने, बल्कि देश को तोड़ने जैसी गंभीर बातें कहने का आरोप है। अब, पांच साल बाद, वही शरजील इमाम बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने की तैयारी में है।
दिल्ली की कड़कड़डूमा अदालत में दाखिल अपनी अंतरिम जमानत याचिका उसने अब वापस ले ली है, ताकि वह सीधे सुप्रीम कोर्ट जाकर चुनाव लड़ने की अनुमति मांग सके। उसका यह कदम महज़ कानूनी प्रक्रिया नहीं, बल्कि एक गहरी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का संकेत है। उस व्यक्ति की महत्वाकांक्षा, जो अब “राजनीतिक बंदी” का चोला ओढ़कर लोकतंत्र का लाभ उठाना चाहता है, जबकि उस पर लोकतंत्र की बुनियाद राष्ट्रीय एकता को कमजोर करने का आरोप है।
शरजील इमाम वही है, जिसने CAA का विरोध करने के दौरान कहा था कि “अगर हम चाहें तो असम और उत्तर-पूर्व को भारत से काट सकते हैं।” यह बयान, जिसने देश के भीतर विभाजन की आग भड़काई, अब अदालतों के रेकॉर्ड में देशद्रोही भाषण के रूप में दर्ज है। लेकिन विडंबना देखिए, आज वही व्यक्ति “लोकतांत्रिक अधिकार” के नाम पर चुनाव लड़ना चाहता है।
कानून की आड़ में विचारधारा की राजनीति
भारत का कानून इतना संतुलित है कि वह कैदी को भी मतदान और चुनाव लड़ने का अधिकार देता है। लेकिन, यही लचीलापन आज बार-बार दुरुपयोग का माध्यम बन रहा है। UAPA और देशद्रोह जैसी धाराओं में आरोपित व्यक्ति को अस्थायी जमानत मिलना लगभग असंभव है, क्योंकि ये अपराध केवल व्यक्ति के खिलाफ नहीं, बल्कि राष्ट्र की सुरक्षा के खिलाफ माने जाते हैं। फिर भी, इमाम की कानूनी टीम सुप्रीम कोर्ट में यह तर्क देने जा रही है कि चुनाव लड़ना उनका संवैधानिक अधिकार है।
अब यहां पर सवाल यह है कि क्या संविधान ने यह अधिकार “देश के खिलाफ बोलने वाले” व्यक्ति को भी दिया है? संविधान ने अधिकार दिए हैं, लेकिन कर्तव्य की शर्त पर। जब कोई व्यक्ति देश की एकता और अखंडता को चुनौती देता है, तो वह केवल एक आरोपी नहीं रहता वह भारत की आत्मा के विरुद्ध खड़ा होता है।
राजनीतिक चाल या लोकतंत्र की परीक्षा?
सरजिल इमाम की यह कोशिश केवल व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं लगती। यह एक सोच-समझी रणनीति भी हो सकती है। एक ऐसा प्रतीक खड़ा करना जो “राजनीतिक बंदी” की छवि के सहारे कथित वैचारिक आंदोलन को पुनर्जीवित करे। वामपंथी और छद्म-उदारवादी वर्ग पहले ही इस नैरेटिव को गढ़ने में जुट चुका है कि शरजील “राजनीतिक उत्पीड़न के शिकार” हैं। लेकिन जो व्यक्ति खुले मंच से भारत के टुकड़े करने की बात करे, जो धर्म और पहचान के नाम पर हिंसा को हवा दे, उसे “राजनीतिक कैदी” कहना उन सैकड़ों निर्दोष नागरिकों का अपमान है जिन्होंने दिल्ली दंगों में अपनी जान गंवाई।
लोकतंत्र की आज़ादी तभी सार्थक है जब वह राष्ट्र की गरिमा के भीतर रहे। आज़ादी का अर्थ यह नहीं कि हम अपने ही संविधान की आत्मा पर चोट करें और जब कोई व्यक्ति संविधान के अनुच्छेद 19 की “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता” की दुहाई देते हुए अनुच्छेद 51A के “राष्ट्रीय कर्तव्यों” को रौंदता है, तो लोकतंत्र खतरे में पड़ता है।
लोकतंत्र का असली चेहरा यही है कि देश पहले, व्यक्ति बाद में
भारत का लोकतंत्र इतना सहिष्णु है कि उसने कभी असहमति को अपराध नहीं माना। लेकिन असहमति और राष्ट्रविरोध के बीच एक महीन रेखा है, जिसे पार करने के बाद कोई भी व्यक्ति लोकतंत्र का प्रतिनिधि बनने का नैतिक अधिकार खो देता है। आज शरजील इमाम चुनाव लड़ने का सपना देख रहे हैं, कल शायद यही प्रवृत्ति अन्य आरोपितों के लिए भी राह खोलेगी और तब लोकतंत्र का यह दरवाज़ा राष्ट्रविरोधी एजेंडा फैलाने का औज़ार बन जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट निश्चित रूप से संवैधानिक मर्यादा और कानून के तहत निर्णय देगा, लेकिन राष्ट्र की दृष्टि से सवाल अब भी यही रहेगा। क्या भारत का लोकतंत्र इतना उदार होना चाहिए कि वह अपने ही विरोधियों को मंच दे दे? जब “भारत तोड़ने” का नारा लगाने वाले लोग संसद और विधानसभा में पहुुंचने का सपना देखें, तो यह केवल न्यायपालिका की परीक्षा नहीं, यह राष्ट्र की आत्मा की परीक्षा है।