लद्दाख की ऊंची बर्फीली धरती पर जब हवा सुई की तरह चुभती है और आकाश का रंग नीले से काला पड़ने लगता है, तब वहां का हर पत्थर एक प्रहरी बन जाता है। उन्हीं पत्थरों के बीच चुशूल और चांगथांग की घाटियां हैं, जहां भारत ने अब एक नया इतिहास लिखना शुरू किया है। यह इतिहास केवल सड़क, पुल और इमारतों का नहीं, बल्कि एक राष्ट्र की चेतना का है जो गलवान की रात के बाद सोई नहीं, बल्कि जाग गई। गलवान के संघर्ष ने भारत को यह अहसास करा दिया कि पहाड़ों में अब केवल हिम नहीं, रणनीति भी जमनी चाहिए। चीन ने जब यह सोचकर अपनी चाल चली कि भारत ठंड में जमेगा, उस समय भारत ने उसी ठंड में अपनी इच्छाशक्ति को तपाया और आज उसी का परिणाम है कि रक्षा मंत्रालय ने जिन योजनाओं को मंजूरी दी है, वे केवल निर्माण नहीं, बल्कि संदेश हैं, कड़े, स्पष्ट और अडिग।
चुशूल की वह घाटी, जिसने 1962 में रेज़ांग ला के रणबांकुरों का बलिदान देखा था, आज फिर भारत की आत्मा का प्रतीक बन रही है। तारा बटालियन के पास बनने वाला नया प्रशिक्षण नोड दिखने में एक सैन्य सुविधा मात्र है, लेकिन उसके भीतर छिपा अर्थ गहरा है। यह उस नए भारत की घोषणा है, जो अब अपने सैनिकों को केवल लड़ाई के लिए नहीं, बल्कि पहाड़ों के साथ जीने और वहां स्थायी उपस्थिति बनाए रखने की कला सिखाना चाहता है। लगभग पंद्रह हजार फीट की ऊंचाई पर यह ट्रेनिंग नोड एक ऐसी प्रयोगशाला होगा, जहां भारतीय जवान दुनिया की सबसे कठिन परिस्थितियों में युद्ध के लिए तैयार रहेंगे। यह सिर्फ प्रशिक्षण नहीं, बल्कि जीवंत तैयारी है, एक ऐसी तैयारी जो यह सुनिश्चित करती है कि जब दुश्मन की चाल पहाड़ों के पार से भी आए, तो जवाब उसी ऊंचाई पर दिया जाए।
चुशूल में ही स्थापित होगा ब्रिगेड मुख्यालय
रक्षा मंत्रालय के निर्णय में सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि 142 इन्फैंट्री ब्रिगेड का मुख्यालय अब चुशूल में ही स्थापित किया जाएगा। इसका अर्थ यह नहीं कि केवल एक कार्यालय स्थानांतरित होगा, बल्कि यह है कि अब निर्णय वहीँ होंगे, जहां चुनौती है। पहले जब आदेश लेह या उससे भी नीचे से आते थे, तो प्रतिक्रिया में देरी होती थी। अब कमांड और कंट्रोल फ्रंटलाइन पर होगा, सैनिक निर्णय खुद अपने क्षेत्र में लेंगे और जवाब उतनी ही तेजी से देंगे जितनी तेजी से बर्फ पर हवा दौड़ती है। यह केवल रणनीतिक सुधार नहीं, बल्कि उस सोच का परिवर्तन है जो भारत को एक प्रतिक्रियाशील नहीं, बल्कि सक्रिय राष्ट्र बनाता है। गलवान के बाद यही तो सबसे बड़ा बदलाव हुआ है। भारत अब केवल सुरक्षा में नहीं, बल्कि निवारण में विश्वास करता है।
भारत का स्पष्ट संदेश, राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वोपरि
इस पूरे विस्तार का दूसरा पहलू वह है जिसे भारत ने बहुत परिपक्वता से साधा है। पर्यावरण और राष्ट्रीय सुरक्षा का संतुलन। चांगथांग और काराकोरम जैसे क्षेत्र वन्यजीवों की दृष्टि से अति संवेदनशील हैं। तिब्बती भेड़िया, हिम तेंदुआ, भारल, जंगली याक, भूरा भालू, ये सब उस बर्फीले संसार के हिस्से हैं जो सैकड़ों वर्षों से वहां का पर्यावरणीय संतुलन बनाए हुए हैं। लेकिन भारत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वोपरि है और अगर संतुलन की रेखा कहीं खिंचनी पड़े, तो वह राष्ट्र की रक्षा की दिशा में खिंचेगी। रक्षा मंत्रालय ने उप वन संरक्षक और मुख्य वन्यजीव वार्डन की सभी सिफारिशों को ध्यान में रखा है, लेकिन यह भी बताया है कि कोई विशेष वन्य जीव शमन योजना अब अलग से तैयार की जाएगी। यानी सेना अपनी सीमाओं की रक्षा करते हुए भी प्रकृति के प्रति जिम्मेदार रहेगी, पर सुरक्षा की कीमत पर मौन नहीं रहेगी। यह वह दृष्टिकोण है जो चीन जैसी शक्तियों को असहज करता है, क्योंकि वहां विकास और पर्यावरण दोनों पर राजनीतिक आदेश हावी रहते हैं, जबकि भारत संतुलन के साथ आगे बढ़ता है।
भारत के लिए यह नया निर्माण केवल एक क्षेत्र तक सीमित नहीं है। इसी क्रम में अरुणाचल प्रदेश के ईगलनेस्ट वाइल्डलाइफ सेंचुरी में पिनजोली पुल को मंजूरी दी गई है। यह 158 मीटर लंबा पुल बालीपारा–चारदुआर–तवांग मार्ग पर बनेगा, वह मार्ग जो भारत के पूर्वोत्तर के हृदय से होकर तवांग की ओर जाता है। तवांग—जिस पर चीन बार-बार दावा जताता है, जिसे वह दक्षिण तिब्बत कहने की जिद पर अड़ा है। लेकिन यह वही तवांग है जहां से भारत की आत्मा जुड़ी है, जहां भगवान अरुणाचल की छाया में राष्ट्रीय अस्मिता बसी है। यह पुल केवल दो किनारों को नहीं जोड़ेगा, बल्कि एक राष्ट्र की रक्षा नीति को मजबूती देगा। मानसून के दौरान जब यह मार्ग कट जाता था और सेना को रसद पहुंचाने में कठिनाई होती थी, अब वही रास्ता बारह महीने खुला रहेगा। यह छोटा सा पुल दिखने में साधारण है, लेकिन उसके ऊपर से गुजरने वाला हर वाहन भारत की संकल्पशक्ति का प्रतीक होगा।
भारत ने विकसित कीं ये चीजें
गलवान के बाद भारत ने जिस तेजी से अपने सीमावर्ती ढांचे को पुनर्गठित किया, वह अद्भुत है। दारबुक–श्योक–दौलत बेग ओल्डी सड़क अब लगभग पूर्णता पर है। न्योमा एयरबेस को आधुनिक बनाया जा चुका है। सियाचिन से जोड़ने वाली सड़कें अब चौबीसों घंटे चालू रहती हैं। भारत का उद्देश्य स्पष्ट है, सैनिक केवल सीमाओं पर नहीं, बल्कि हर समय तैयार रहें और अब चुशूल में यह नया प्रशिक्षण केंद्र उस तैयारी को संस्थागत रूप दे रहा है। पहले जहां प्रशिक्षण और ऑपरेशन दो अलग प्रक्रियाएं थीं, अब वे एक ही स्थान पर संभव होंगी। सैनिक वहीं सीखेंगे, वहीं तैनात होंगे, और वहीँ से जवाब देंगे। यह नई कार्यनीति भारत की पहाड़ी युद्ध नीति को विश्व में एक अलग पहचान देती है।
चीन के लिए यह सब सहज नहीं है। वह लगातार यह दिखाने की कोशिश करता रहा है कि उसकी सेना यानी PLA इन पहाड़ी इलाकों में अधिक सक्षम है, लेकिन सच तो यह है कि चीन के सैनिक लंबे समय तक उच्च ऊंचाई पर टिक नहीं पाते। उनके बीच अनुशासन और मनोबल दोनों की कमी की खबरें आती रही हैं। दूसरी ओर भारतीय सैनिक दशकों से इन परिस्थितियों में जीते हैं। सियाचिन, कारगिल, कुमाऊं और अब लद्दाख, ये वे क्षेत्र हैं जहां भारतीय जवानों ने असंभव को संभव किया है। चुशूल का नया प्रशिक्षण केंद्र उस सामर्थ्य को और गहराई देगा, ताकि आने वाले समय में भारत किसी भी पर्वतीय युद्ध में न केवल सक्षम बल्कि अग्रणी रहे।
अब नहीं बचेगा कोई ग्रे जोन
चीन की नीति हमेशा से सालामी स्लाइसिंग यानी धीरे-धीरे कब्जा करने की रही है। वह बिना औपचारिक युद्ध के कुछ किलोमीटर आगे बढ़कर नियंत्रण स्थापित करता है और फिर बातचीत के नाम पर वहीं टिक जाता है। लेकिन भारत अब उस नीति को पहचान चुका है। चुशूल और तवांग में होने वाले नए निर्माण चीन को यह संकेत देते हैं कि अब कोई ग्रे ज़ोन नहीं बचेगा। सीमा की हर इंच पर भारत की उपस्थिति होगी, हर रास्ते पर निगरानी होगी, हर ऊंचाई पर एक संरचना होगी। गलवान के बाद भारत की नीति में यह निर्णायक परिवर्तन आया है कि अब कोई ‘बफर ज़ोन’ नहीं बनेगा जहां दुश्मन आसानी से सेंध लगाए। अब सीमा ही नहीं, संकल्प की भी रेखा खिंच चुकी है।
चीन के पाखंड का एक और पहलू है-वह पर्यावरण के नाम पर भारत की परियोजनाओं पर आपत्ति जताता है, लेकिन स्वयं तिब्बत में उसने नदियों और ग्लेशियरों का विनाश कर दिया है। यारलुंग त्सांगपो (ब्रह्मपुत्र) पर उसके डैम पर्यावरणीय संतुलन के लिए खतरा हैं। तिब्बत के पठार पर उसने जिस तरह से झीलों और नदियों का मार्ग मोड़ा है, वह भविष्य में पूरे दक्षिण एशिया के जलस्रोतों को प्रभावित करेगा। भारत ने कभी ऐसा नहीं किया। भारत सीमित निर्माण करता है, पारिस्थितिक नियंत्रण बनाए रखता है और हर परियोजना के साथ वाइल्डलाइफ प्लान लागू करता है। फिर भी चीन और उसके समर्थक संगठन भारत पर उंगली उठाते हैं। पर अब भारत ने यह तय कर लिया है कि वह इन आलोचनाओं का जवाब कागज पर नहीं, बल्कि कंक्रीट और स्टील से देगा। हिमालय की चोटियों पर उसकी संरचनाएं ही उसका तर्क होंगी।
सेना के मनोबल को दी एक नई ऊंचाई
यह सब केवल सीमा की कहानी नहीं है। यह उस मानसिकता का परिवर्तन है, जिसमें भारत ने तय किया है कि उसे अपनी सुरक्षा केवल सीमाओं पर नहीं, बल्कि रणनीति के हर स्तर पर सुनिश्चित करनी है। अब RAW, NTRO और वायुसेना सीमावर्ती क्षेत्रों में एक साझा निगरानी नेटवर्क चला रहे हैं। उपग्रहों से लेकर ड्रोन तक हर गतिविधि पर नज़र रखी जाती है। भारत-ताजिकिस्तान का फर्खोर एयरबेस और ईरान के चाबहार पोर्ट से जुड़ा सहयोग इस व्यापक रणनीति का हिस्सा है। भारत जानता है कि उत्तर की रक्षा केवल लद्दाख तक सीमित नहीं रह सकती। इसे मध्य एशिया और हिंद महासागर के बीच एक सुरक्षा-श्रृंखला के रूप में देखना होगा। यही कारण है कि भारत आज अफगानिस्तान, ईरान, और मध्य एशिया के साथ अपनी सामरिक साझेदारी को और गहरा कर रहा है। चीन के बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट के मुकाबले यह भारत की “स्ट्रैटेजिक रिंग” है, जो शांत लेकिन प्रभावशाली ढंग से बन रही है।
इन सारी परियोजनाओं की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने सेना के मनोबल को नई ऊंचाई दी है। गलवान की रात में जो बीस जवान शहीद हुए थे, उनके बलिदान ने भारत की आत्मा में एक ज्वाला जलाई थी। अब हर निर्माण, हर पुल, हर बेस उसी ज्वाला का विस्तार है। चुशूल में जब कोई नया भवन बनेगा या कोई सैनिक वहां प्रशिक्षण लेगा, तो उसे यह याद रहेगा कि यह केवल एक सुविधा नहीं, बल्कि उन साथियों के लिए श्रद्धांजलि है जिन्होंने सीमा की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व दिया।
भारत और चीन के संवाद की बदल चुकी है भाषा
आज भारत और चीन के बीच संवाद जारी है, लेकिन उन संवादों की भाषा बदल चुकी है। अब वहां शांति की बात भी शक्ति के आधार पर तय होती है। भारत अब यह नहीं कहता कि वह हर विवाद का समाधान बातचीत से करेगा, बल्कि यह कहता है कि बातचीत तभी संभव है जब दोनों पक्ष बराबरी की स्थिति में हों। यही कारण है कि चीन अब भारत से डरता नहीं तो कम-से-कम सावधान जरूर रहता है। चुशूल, चांगथांग और तवांग में बढ़ती भारतीय उपस्थिति उसे यह एहसास कराती है कि भारत अब दबाव में आने वाला नहीं।
यह नया भारत है, जो न केवल अपनी सीमाओं की रक्षा कर रहा है, बल्कि अपने शत्रुओं की रणनीति को समझकर उन्हें उनके ही मोर्चे पर चुनौती दे रहा है। यह वही भारत है जो शांति चाहता है, लेकिन समर्पण नहीं। जिसने यह तय कर लिया है कि हिमालय की चोटी पर तिरंगा केवल लहराने के लिए नहीं, बल्कि चेतावनी के लिए भी रहेगा—कि जो भी इस भूमि की ओर बढ़ेगा, उसे हर ऊंचाई पर एक भारतीय सैनिक मिलेगा।
चुशूल और चांगथांग में बन रहे प्रशिक्षण केंद्र, ब्रिगेड मुख्यालय और सड़कें आने वाले वर्षों में केवल भौगोलिक नहीं, बल्कि मानसिक नक्शे को भी बदल देंगे। यह उस आत्मविश्वास का प्रतीक हैं जिसने भारत को रक्षा के मोर्चे पर आत्मनिर्भर बनाया। जब अगली बार कोई चीनी अधिकारी या विश्लेषक भारत की सीमाओं का अध्ययन करेगा, तो उसे यह समझना पड़ेगा कि यहां अब कोई ‘खाली जगह’ नहीं बची है। हर घाटी में, हर पहाड़ी पर, हर मोड़ पर भारत की उपस्थिति है। और यही भारत का सबसे बड़ा संदेश है कि हम किसी के क्षेत्र में नहीं, लेकिन अपने हर इंच की रक्षा में अडिग हैं। गलवान के बाद का भारत अब वही पुराना भारत नहीं है जो पहले सोचता था कि संवाद ही सबकुछ है। अब वह जानता है कि संवाद तभी सार्थक है जब आपके पीछे शक्ति खड़ी हो।
लद्दाख की बर्फ में जब सूर्य उगता है, तो उसकी किरणें सोने सी चमकती हैं। वही चमक अब भारत की नई सीमा नीति में दिखाई देती है, स्पष्ट, दृढ़ और अजेय। चीन चाहे इसे देखे या न देखे, भारत ने अपनी तैयारी पूरी कर ली है। सीमा अब केवल भौगोलिक रेखा नहीं रही, वह अब राष्ट्र की आत्मा की परिधि बन चुकी है। और इस आत्मा की रक्षा के लिए भारत हर ऊंचाई पर, हर मौसम में, हर परिस्थिति में तैयार है। हिमालय अब केवल पहाड़ नहीं, वह भारत के संकल्प का प्रतीक है, जिसे कोई भी तूफान नहीं झुका सकता।

























