हरियाणा की राजनीति में एक बड़ा मोड़ उस वक्त आया, जब पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की वह याचिका खारिज कर दी, जिसमें उन्होंने पंचकुला स्थित सीबीआई की विशेष अदालत में आरोप तय करने की प्रक्रिया को चुनौती दी थी। यह वही मानेसर भूमि घोटाला है, जो बीते एक दशक से हरियाणा के राजनीतिक और प्रशासनिक चरित्र पर एक काले दाग़ की तरह मौजूद रहा है। इस मामले में अब विशेष सीबीआई अदालत में आरोप तय किए जाएंगे, और 80,000 पन्नों की चार्जशीट अपने आप में इस बात का सबूत है कि घोटाले का आकार किसी साधारण भ्रष्टाचार से कहीं आगे है। यह सत्ता के दुरुपयोग, प्रशासनिक षड्यंत्र और किसानों की ज़मीन को औने-पौने में लूटने की एक संगठित प्रक्रिया थी।
मानेसर का यह घोटाला उस दौर की कहानी कहता है, जब कांग्रेस ने हरियाणा को औद्योगिक राज्य बनाने के नाम पर विकास का झुनझुना बजाया, लेकिन असल में किसानों से उनकी पैतृक ज़मीन छीनकर उसे निजी कंपनियों के हवाले कर दिया। यह मामला 2009 से 2013 के बीच का है, जब राज्य सरकार ने किसानों को यह डर दिखाया कि उनकी ज़मीनें अधिग्रहण के नाम पर ली जाएंगी और इसी भय में किसानों ने अपनी ज़मीन दलालों और बिल्डरों को कौड़ियों के दाम पर बेच दीं। बाद में सरकार ने वही ज़मीनें उन्हीं बिल्डरों को सस्ते दामों में आवंटित कर दीं। परिणाम यह हुआ कि किसानों की पीढ़ियों की मेहनत एक हस्ताक्षर में लुट गई और ‘विकास’ का पूरा ढांचा कुछ गिने-चुने रियल एस्टेट समूहों के हाथ में केंद्रित हो गया।
जनता की उम्मीदों का पुनरुत्थान
आज जब न्यायालय ने हुड्डा की याचिका खारिज कर दी है, तो यह सिर्फ़ एक कानूनी झटका नहीं है, बल्कि यह जनता के उस धैर्य और उम्मीद का पुनर्स्थापन है जो बरसों तक भ्रष्टाचार के मलबे के नीचे दबा रहा। हरियाणा में हुड्डा शासन को जो लोग ‘प्रशासनिक कुशलता’ के नाम पर महिमामंडित करते रहे, अब वही यह देख रहे हैं कि कैसे सत्ता के गलियारों में बैठे लोग अपने पद की शपथ को निजी फ़ायदे के लिए तोड़ते रहे।
हुड्डा पक्ष के वकीलों ने अदालत में यह तर्क रखा कि कुछ सह-आरोपियों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कार्यवाही पर रोक लगी हुई है, इसलिए आरोप तय करना उचित नहीं होगा। लेकिन, हाईकोर्ट ने यह साफ़ कर दिया कि न्याय प्रक्रिया को इस तरह लटकाने की कोशिश कानून के साथ खिलवाड़ है। सुप्रीम कोर्ट की रोक केवल उन पर लागू है, जिन्होंने विशेष अनुमति याचिका दायर की थी, न कि उन पर जो अब भी मुकदमे का सामना कर रहे हैं। इस फैसले ने यह संदेश दिया कि न्यायिक प्रक्रिया को रोकने के लिए तकनीकी तर्कों का इस्तेमाल नहीं चलेगा। अगर किसी ने जनता की संपत्ति के साथ खिलवाड़ किया है, तो उसे अदालत के कटघरे में खड़ा होना ही होगा।
कई राज्यों में जमीन धोटाले कांग्रेस के नाम
याद रहे कि यह वही कांग्रेस है जिसने दशकों तक भारत में गरीबी हटाओ का नारा देकर सत्ता में आई, लेकिन हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, दिल्ली हर जगह ज़मीन घोटालों की लकीरें उसकी विरासत का हिस्सा बन गईं। मानेसर घोटाले ने यह साफ़ कर दिया कि कांग्रेस के शासन में जनता की ज़मीन सत्ता के दलालों और रियल एस्टेट लॉबी के बीच एक राजनीतिक करेंसी की तरह इस्तेमाल की गई। याद रहे कि यह केवल भूमि नहीं, बल्कि किसान की आत्मा की लूट थी, उस किसान की जो देश के अन्नदाता का प्रतीक है।
भ्रष्टाचार पर सख्त हैं पीएम मोदी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में जब ना खाऊंगा, ना खाने दूंगा का संकल्प दिया, तो देश में पहली बार भ्रष्टाचार को लेकर एक वास्तविक शून्य-सहनशीलता की नीति दिखी। मानेसर जैसे मामले अगर आज अदालत में आगे बढ़ पा रहे हैं, तो यह उसी राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिणाम है जो यह कहती है कि न्याय में देरी हो सकती है, लेकिन इंकार नहीं।
हरियाणा में भाजपा सरकार आने के बाद भ्रष्टाचार विरोधी नीतियों ने जिस तरह का संस्थागत बदलाव किया है, उसने यह सुनिश्चित किया कि सत्ता अब किसी व्यक्ति या गुट की निजी जागीर न रहे। यही कारण है कि अब केंद्रीय जांच एजेंसियां स्वतंत्र रूप से काम कर पा रही हैं, चाहे मामला कांग्रेस के किसी पूर्व मुख्यमंत्री का हो या किसी बड़े कारोबारी घराने का।
सत्ता के सुधार की कसौटी है मानेसर की जमीन
मानेसर की ज़मीन, जो कभी किसानों के सपनों की बुनियाद थी, वह आज भारत के प्रशासनिक सुधार की कसौटी बन चुकी है। यह केवल एक भूखंड विवाद नहीं, बल्कि यह सवाल है कि सत्ता किसकी है जनता की या सत्ता में बैठे उन लोगों की जिन्होंने उसे व्यापार बना दिया।
कांग्रेस की राजनीति हमेशा डर और प्रलोभन के दो सिरों पर टिकी रही है। किसानों को डराया गया कि ज़मीन अधिग्रहित हो जाएगी, और बाद में उन्हीं की ज़मीनें विकास के नाम पर चंद रईस घरानों को सौंप दी गईं। यही वह दौर था जब गरीब की ज़मीन, सरकारी आदेश और कॉरपोरेट हित, तीनों मिलकर भ्रष्टाचार के उस गठजोड़ में तब्दील हो गए जिसने हरियाणा के विकास की दिशा ही बदल दी।
अब जबकि सीबीआई की 80,000 पन्नों की चार्जशीट अदालत में मौजूद है, तो यह अपने आप में एक नैतिक दस्तावेज़ है, जो बताता है कि किस तरह एक मुख्यमंत्री और उसके सहयोगी प्रशासनिक तंत्र को अपने निजी हित में मोड़ सकते हैं। यह दस्तावेज़ आने वाले वर्षों में भारतीय राजनीति के लिए एक सबक होगा कि पद बड़ा हो सकता है, लेकिन कानून उससे भी बड़ा है।
भूपेंद्र हुड्डा जैसे नेता, जो अपने को विकास पुरुष बताकर सत्ता में आए थे, अब उन्हीं की नीतियों का नंगा सच अदालत में दस्तावेज़ों के रूप में खड़ा है। और जनता यह देख रही है कि ‘जनहित’ के नाम पर किस तरह हरियाणा के किसानों की ज़मीनों को रियल एस्टेट की ‘सौदेबाज़ी’ में बदला गया।
कांग्रेस की अंधेरी राजनीति के सामने है बीजेपी
हरियाणा आज एक नई यात्रा पर है। मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व में राज्य सरकार ने जिस पारदर्शिता और डिजिटल शासन का मॉडल अपनाया, उसने ज़मीन आवंटन, भूमि पंजीकरण और भू-राजस्व व्यवस्था में ऐतिहासिक सुधार किए हैं। अब किसी भी भूखंड का स्वामित्व और लेनदेन एक क्लिक पर जनता के सामने पारदर्शी रूप से उपलब्ध है। यह वही बदलाव है जो उस कांग्रेस-युग की अंधेरी राजनीति के विरुद्ध खड़ा है।
भूपेंद्र हुड्डा के लिए हाईकोर्ट का यह झटका केवल एक कानूनी बाधा नहीं, बल्कि एक नैतिक पराजय भी है। और यह पराजय उस राजनीतिक सोच की भी है जिसने यह मान लिया था कि सत्ता उन्हें कानून से ऊपर रखती है। मगर नया भारत, नई हरियाणा सरकार और नई न्यायपालिका अब यह संदेश दे रही है कानून की नज़र में सब बराबर हैं, चाहे वह मुख्यमंत्री हो या किसान।
मानेसर घोटाले का अगला अध्याय अब पंचकुला की सीबीआई अदालत में लिखा जाएगा, लेकिन इतिहास पहले ही तय कर चुका है कि यह मामला सिर्फ़ एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि पूरे शासन दर्शन की परीक्षा है।
भूपेंद्र हुड्डा के लिए यह वह क्षण है जब उन्हें अदालत में जवाब देना होगा कि जनता के विश्वास का उन्होंने क्या किया, क्या उसे निभाया, या उसे बेच दिया। और जनता के लिए यह वह क्षण है जब वह देख सकेगी कि न्याय धीरे चलता है, मगर जब पहुंचता है, तो बहुत दूर तक गूंजता है।


























