20 नवंबर को एक ऐतिहासिक जवाब देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ किया है कि राष्ट्रपति या गवर्नर को किसी भी तय न्यायिक समयसीमा के भीतर बिलों पर मंजूरी देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत उनके संवैधानिक अधिकारों से जुड़ा है।
इससे पहले राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने अनुच्छेद 143 का इस्तेमाल करते हुए इस विषय पर एक पत्र भेजकर सुप्रीम कोर्ट से जवाब मांगा था। उनके सवालों पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की पाँच जजों वाली संविधान पीठ ने साफ़ कर दिया कि कोर्ट “डीम्ड असेंट” की अवधारणा लागू नहीं कर सकती।
कोर्ट ने इसे असंवैधानिक बताया और कहा कि यह शक्तियों के विभाजन(separation of powers) का उल्लंघन होगा।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “डीम्ड असेंट” देना ऐसा होगा जैसे न्यायपालिका कार्यपालिका के अधिकारों पर “कब्ज़ा” कर ले और क़ानून के भीतर ऐसी कल्पना की कोई अनुमति नहीं है।
कोर्ट: गवर्नर बिलों पर अनिश्चित समय तक बैठकर देरी भी नहीं कर सकते
हालाँकि कोर्ट ने तय समयसीमा लागू करने से इनकार किया, लेकिन यह भी साफ किया कि गवर्नर को यह अधिकार नहीं है कि वे बिलों को अनिश्चित समय तक लंबित रखें।
CJI बी.आर. गवई और जस्टिस सूर्या कांत, विक्रम नाथ, पी.एस. नरसिम्हा और ए.एस. चंद्रचूड़कर की बेंच ने कहा:
- यदि गवर्नर किसी बिल को बिना वजह, लंबे वक्त से रोक कर बैठे हों और वो विधायी प्रक्रिया को ही बाधित करने लगें, केवल तभी कोर्ट सीमित न्यायिक समीक्षा कर सकता है और गवर्नर को “उचित समय” में फैसला करने का निर्देश दे सकता है।
हालाँकि, कोर्ट बिल की कमियों और गुणों पर टिप्पणी नहीं कर सकता।
बैकग्राउंडर: तमिलनाडु केस और राष्ट्रपति का पत्र
यह मामला सुप्रीम कोर्ट के मई महीने के दिए गए एक फैसले के बाद सामने आया था, तब तमिलनाडु सरकार की अपील पर दो जजों की एक पीठ ने राज्यपालों को एक समयसीमा के अंदर विधेयकों पर फैसला लेने का आदेश दिया था।
केंद्र सरकार समय सीमा के खिलाफ; विरोधी राज्य पक्ष में
अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि कोर्ट कोई समयसीमा तय नहीं कर सकता। ऐसा करना शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के खिलाफ होगा और राष्ट्रपति व गवर्नर के संवैधानिक विवेकाधिकार का उल्लंघन होगा।
दूसरी ओर कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी, के.के. वेणुगोपाल, गोपाल सुब्रमण्यम जैसे वरिष्ठ वकीलों ने राज्यों की ओर से तर्क दिया कि गवर्नरों द्वारा की गई लंबी देरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया को नुकसान पहुँचाती है और इसलिए कोर्ट को हस्तक्षेप करना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा ?
- डीम्ड असेंट का सिद्धांत लागू नहीं किया जा सकता।
- कोर्ट राष्ट्रपति या गवर्नर के लिए कोई समयसीमा तय नहीं कर सकता।
- गवर्नर बिलों को अनिश्चित समय तक रोक कर नहीं रख सकते।
- कोर्ट केवल “अनुचित देरी” की स्थिति में हस्तक्षेप कर सकता है—ताकि गवर्नर फैसला लें, लेकिन फैसला क्या होना चाहिए यह तय नहीं करेगा।
- शक्तियों का संतुलन हमेशा बनाए रखना होगा।
सुप्रीम कोर्ट की यह राय राज्यों, गवर्नरों और केंद्र सरकार के बीच संबंधों पर चल रही बहस में एक बड़ा स्पष्टीकरण है।
वे 14 संवैधानिक प्रश्न जिनका सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर दिया
ये वही सवाल हैं, जिन्हें राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को भेजा था:
- गवर्नर के पास अनुच्छेद 200 के तहत बिल आने पर क्या विकल्प हैं?
- क्या गवर्नर इन सभी विकल्पों के प्रयोग में मंत्री परिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य हैं?
- क्या अनुच्छेद 200 के तहत गवर्नर का विवेक न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता है?
- क्या अनुच्छेद 361 गवर्नर के कार्यों की न्यायिक समीक्षा पर रोक लगाता है?
- जहाँ संविधान कुछ नहीं कहता, क्या कोर्ट समयसीमा तय कर सकता है?
- क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति का विवेक न्यायिक समीक्षा योग्य है?
- क्या कोर्ट राष्ट्रपति के लिए भी समयसीमा तय कर सकता है?
- जब गवर्नर किसी बिल को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो क्या राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट की सलाह लेनी चाहिए?
- क्या अनुच्छेद 200 और 201 के तहत लिए गए निर्णय तब भी न्यायिक समीक्षा योग्य हैं जब बिल अभी कानून नहीं बना?
- क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 का प्रयोग करके राष्ट्रपति या गवर्नर का निर्णय बदल सकता है?
- क्या गवर्नर की स्वीकृति के बिना किसी राज्य का कानून लागू हो सकता है?
- क्या हर बेंच को पहले यह तय करना चाहिए कि किसी मामले को अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान पीठ को भेजा जाए या नहीं?
- क्या अनुच्छेद 142 की शक्ति सिर्फ प्रक्रिया–गत कानूनों तक सीमित है या यह मूल कानूनों को भी प्रभावित कर सकती है?
- क्या अनुच्छेद 131 ही केंद्र–राज्य विवादों को सुलझाने का एकमात्र तरीका है?
इन्ही सवालों पर मंथन करते हुए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने ये बड़ा स्पष्टीकरण दिया है। इससे ये साफ़ हो गया है कि राष्ट्रपति या राज्यपालों को एक निश्चित समयसीमा के अंदर विधेयकों पर दस्तख़त करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।
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