75 सालों से कश्मीर पर दावा करने वाला पाकिस्तान, अपनी सैन्य ताकत और युद्धों में कथित विजय का प्रदर्शन करता रहा है। वह अपने जनरल और सैन्य नेतृत्व के प्रचार माध्यमों में यह दिखाने का प्रयास करता है कि उसने सोवियत संघ और अमेरिका के खिलाफ सफलताएं हासिल की हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि इन युद्धों में पाकिस्तान का कोई निर्णायक योगदान नहीं था। इसके विपरीत, पाकिस्तान की असफलताओं और भ्रष्टाचार का चेहरा अब अफगान तालिबान के उच्च अधिकारियों द्वारा सार्वजनिक रूप से उजागर हो रहा है। तालिबान ने मुल्ला मुनीर को उनका असली चेहरा दिखाकर बेनकाब कर दिया है।
अफगान तालिबान के सूचना मंत्री के सलाहकार कारी सईद खोस्ती ने हाल ही में पाकिस्तान की सैन्य नीतियों पर सवाल उठाए। उन्होंने पाकिस्तान के सेना प्रमुख असीम मुनीर को भी आड़े हाथों लेते हुए जमकर सुनाया। खोस्ती ने पाकिस्तानी सैन्य नेतृत्व को केवल बड़बोले और अपने दावों में झूठा करार दिया। उनके अनुसार, पाकिस्तानी जनरलों ने सोवियत संघ के खिलाफ मुजाहिदीन युद्ध और अमेरिका के खिलाफ तालिबान युद्ध में कोई वास्तविक योगदान नहीं दिया। उन्होंने यह चुनौती भी दी कि अगर पाकिस्तान के जनरलों में वास्तव में ताकत है तो 75 सालों में कश्मीर को क्यों नहीं हासिल किया। यह सवाल केवल व्यंग्य नहीं है, बल्कि पाकिस्तान की असफलताओं और सैन्य नेतृत्व की वास्तविक स्थिति का एक सटीक प्रतिबिंब है।
पाकिस्तानी सेना की नैतिकता पर भी उठाया सवाल
पाकिस्तानी सेना ने अपने युद्ध और अभियान को हमेशा प्रचार के माध्यम से जनता के सामने विजय के रूप में प्रस्तुत किया। मीडिया और सरकारी नारे यह दिखाने का काम करते हैं कि पाकिस्तान ने अमेरिका और सोवियत संघ को हराया। लेकिन खोस्ती के अनुसार यह केवल अफगानी संघर्ष और अमेरिकी संसाधनों की वजह से संभव हुआ। वास्तविक रूप में, पाकिस्तान की फौज ने अरबों डॉलर की सहायता प्राप्त की, जिसका उपयोग जनरलों ने अपने निजी बंगले, जमीन और संपत्ति बनाने में किया। इस तथ्य ने न केवल सेना की नैतिकता पर सवाल उठाया, बल्कि पूरे राजनीतिक ढांचे की विश्वसनीयता को भी चुनौती दी।
कश्मीर की विफलता पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व की सबसे बड़ी कमजोरी के रूप में सामने आती है। 1947 से लेकर आज तक, पाकिस्तान ने कश्मीर पर अपना दावा करते हुए कई युद्ध किए, लेकिन कभी भी निर्णायक सफलता हासिल नहीं की। 75 वर्षों में न केवल सैन्य विफलताएं हुईं, बल्कि पाकिस्तान ने लगातार कश्मीर में आतंकवाद, कट्टरपंथ और अशांति को बढ़ावा दिया, जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसका खड़ा होना और भी कठिन हो गया। खोस्ती ने इस विफलता को स्पष्ट करते हुए पाकिस्तानी जनरलों की वास्तविक स्थिति को बेनकाब किया।
हाल की घटनाओं में यह और भी स्पष्ट हो गया है कि पाकिस्तान और तालिबान के बीच संबंध तनावपूर्ण हैं। अक्टूबर में सीमा पर हुए संघर्ष और उसके बाद इस्तांबुल में वार्ता के दौरान पाकिस्तानी वार्ताकारों के व्यवहार को तालिबानी अधिकारी अपमानजनक करार दे चुके हैं। यह केवल व्यक्तिगत मतभेद नहीं, बल्कि पाकिस्तान के सैन्य और राजनीतिक नेतृत्व की क्षमता और रणनीतिक दृष्टि पर गंभीर प्रश्न हैं।
दोषपूर्ण है पाकिस्तान की सैन्य रणनीति
खोस्ती के बयान ने यह भी उजागर किया कि पाकिस्तान की फौज ने युद्धों में वास्तविक योगदान के बजाय केवल अरबों डॉलर के विदेशी संसाधनों का लाभ उठाया। इस धन का उपयोग जनरलों ने अपने निजी फायदे के लिए किया। जबकि अमेरिका और सोवियत संघ के खिलाफ लड़ाई में असली सफलता अफगानी और स्थानीय लड़ाकों की थी, पाकिस्तान ने इसे अपने नामित मीडिया और प्रचार माध्यमों के जरिए अपने दावे के रूप में प्रस्तुत किया।
कश्मीर में 75 सालों की विफलता और तालिबान द्वारा की गई खुली आलोचना यह स्पष्ट करती है कि पाकिस्तान की सैन्य रणनीति और नेतृत्व लंबे समय से दोषपूर्ण है। केवल प्रचार और दावे के जरिए वास्तविक विजय हासिल नहीं की जा सकती। सेना का उद्देश्य और उसकी क्षमता जनता और क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए स्थायी और सार्थक होना चाहिए। खोस्ती ने इस असफलता को सार्वजनिक रूप से उजागर कर यह संदेश दिया कि पाकिस्तान का सैन्य नेतृत्व अब भी जनता के लिए जवाबदेह है।
पाकिस्तानी सेना की यह विफलता केवल कश्मीर तक सीमित नहीं है। सोवियत और अमेरिकी युद्धों में कथित योगदान के दावे भी खोस्ती द्वारा चुनौती दिए गए हैं। यह दर्शाता है कि पाकिस्तान की सेना ने केवल राजनीतिक और आर्थिक लाभ के लिए इन युद्धों का उपयोग किया, जबकि वास्तविक संघर्ष और उसकी कीमत अफगानी और स्थानीय जनता ने चुकाई।
तालिबान के बयान ने पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय छवि पर भी प्रश्नचिह्न लगा दिया है। यह स्पष्ट करता है कि पाकिस्तान केवल अपनी आंतरिक शक्ति और प्रचार में विश्वास करता है, जबकि वास्तविक युद्ध, रणनीति और सामाजिक जिम्मेदारी में वह लगातार असफल रहा है। कश्मीर में 75 सालों की विफलता इसके सबसे बड़े उदाहरण के रूप में सामने आती है।
सामरिक और राजनीतिक दृष्टि से देखा जाए तो पाकिस्तान की यह स्थिति न केवल अपनी जनता के लिए बल्कि क्षेत्रीय स्थिरता के लिए भी खतरनाक है। पाकिस्तान की फौज ने कभी भी कश्मीर में वास्तविक नियंत्रण नहीं किया, और उसका नेतृत्व केवल अपने निजी लाभ और प्रचार में लगा रहा। खोस्ती ने इसे सार्वजनिक रूप से उजागर कर दिया है, जिससे पाकिस्तान के सैन्य शासन और राजनीतिक निर्णयों की वास्तविक छवि दुनिया के सामने आ गई है।
अफगान तालिबान के इस दृष्टिकोण से यह भी स्पष्ट होता है कि पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व और उसकी रणनीतियों में गहरी कमजोरी है। यह न केवल कश्मीर पर उसकी विफलता को दर्शाता है, बल्कि यह बताता है कि पाकिस्तान की सेना अब भी अपने भीतर की वास्तविक क्षमता को पहचानने और उसे सुधारने में असफल रही है। भारत के खिलाफ तो कभी मुकाबले वाली स्थिति में भी पाकिस्तानी फौज नहीं रही है।
कुल मिलाकर, कारी सईद खोस्ती के बयान ने पाकिस्तान के सैन्य और राजनीतिक नेतृत्व की वास्तविक स्थिति को सार्वजनिक रूप से उजागर किया है। कश्मीर में 75 सालों की विफलता, अफगान युद्धों में वास्तविक योगदान का अभाव, और निजी लाभ के लिए सेना की प्रवृत्ति यह दिखाती है कि पाकिस्तान केवल अपने दावों और प्रचार में ही मजबूत दिखता है। असल ताकत और स्थायित्व उसके सैन्य नेतृत्व में नहीं, बल्कि उसके दावों और मीडिया प्रोपेगैंडा में है।
पूरे मामले से यह स्पष्ट होता है कि पाकिस्तान की सैन्य और राजनीतिक संरचना अब भी जनता के लिए जवाबदेह नहीं है। तालिबान के आंतरिक आलोचना और खोस्ती का बयान यह दर्शाता है कि पाकिस्तान की सेना ने 75 वर्षों में कश्मीर में अपनी विफलता के बावजूद कोई वास्तविक सबक नहीं सीखा। यह न केवल उसकी अंतरराष्ट्रीय छवि के लिए चुनौती है, बल्कि उसकी आंतरिक स्थिरता और सुरक्षा के लिए भी गंभीर खतरा है।




























