अंग्रेजी भाषा में कहा जाता है कि ‘डेमोग्राफी इज डेमोक्रेसी’। किसी भी देश में लोकतंत्र रहेगा या नहीं रहेगा ये इस बात पर निर्भर करता है कि वहाँ की जनसंख्या कैसी है। ये बात तो सत्य है कि इस्लाम के अनुयायी जहाँ जहाँ बड़े हैं उन देशों में लोकतंत्र के लिए कोई स्थान नहीं है। जनसांख्यिकी बदलते ही सत्ता और देश की वृत्ति कैसे बदलती है यह इतिहास में बहुत विस्तार से अंकित है। आंकड़े बोलते हैं बस उनका ध्यान से अवलोकन करने की आवश्यकता होती है। आंकड़ों पर आधारित ऐसी ही एक पुस्तक हाथ लगी, जिसका शीर्षक है ‘सेकुलरवाद और बदलती जनगणना के आंकड़े’। सुप्रसिद्ध चिंतक, विचारक और लेखक हरेन्द्र प्रताप द्वारा लिखित यह पुस्तक सुरुचि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित की गयी है।
भारत की जनसांख्यिकी पर लिखी गई यह पुस्तक मात्र आंकड़ों का संकलन नहीं है, बल्कि एक गहरी और असहज करने वाली चेतावनी के रूप में सामने आती है। यह उस विषय को उठाती है, जिस पर सार्वजनिक विमर्श अक्सर या तो भावनात्मक नारों में सिमट जाता है या फिर राजनीतिक असहजता के कारण टाल दिया जाता है। लेखक ने इस पुस्तक के माध्यम से जनसंख्या को केवल संख्यात्मक वृद्धि के रूप में नहीं, बल्कि सभ्यता, संस्कृति और राष्ट्र की दीर्घकालिक स्थिरता से जुड़ी एक मूलभूत शक्ति के रूप में देखने का आग्रह किया है।
पुस्तक की वैचारिक पृष्ठभूमि भारत के विभाजन से आरंभ होती है। 1947 की त्रासदी केवल राजनीतिक या भौगोलिक विभाजन नहीं थी, बल्कि उसने यह ऐतिहासिक अनुभव भी छोड़ा कि जब किसी भू-भाग में जनसंख्या संतुलन एकतरफा हो जाता है, तो उसका परिणाम केवल सांस्कृतिक नहीं, बल्कि राजनीतिक अलगाव के रूप में भी सामने आ सकता है। लेखक इसी स्मृति को आधार बनाकर वर्तमान भारत की जनसांख्यिकी का विश्लेषण करता है और यह प्रश्न उठाता है कि क्या हम फिर किसी ऐसे ही संकट की ओर अनजाने में बढ़ रहे हैं।
232 पृष्ठों की इस पुस्तक को पाँच खंडों में विभाजित किया गया है। प्रत्येक खंड एक स्वतंत्र अध्ययन की तरह है, किंतु सभी मिलकर एक समग्र चित्र प्रस्तुत करते हैं। लेखक की विशेषता यह है कि वह भावनात्मक आरोपों के स्थान पर जनगणना के आधिकारिक आंकड़ों को अपना आधार बनाते हैं। वर्ष 1961 से 2011 तक की जनगणनाओं का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए वह यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि भारत के अनेक जिलों और प्रखंडों में जनसंख्या संरचना में असामान्य परिवर्तन हुए हैं, जिन्हें सामान्य जनसंख्या वृद्धि के सिद्धांतों से पूरी तरह नहीं समझा जा सकता।
पुस्तक का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि से संबंधित है। लेखक पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, झारखंड, ओडिशा और उत्तरप्रदेश के कुछ जिलों के आंकड़ों के माध्यम से यह रेखांकित करते हैं कि इन क्षेत्रों में मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि दर औसत राष्ट्रीय प्रवृत्तियों से कहीं अधिक रही है। इस वृद्धि को लेखक केवल जन्मदर से नहीं जोड़ते, बल्कि अवैध घुसपैठ जैसे संवेदनशील मुद्दे को भी चर्चा में लाते हैं। यद्यपि यह विषय विवादास्पद है, फिर भी लेखक का तर्क यह है कि जब आंकड़े लगातार एक ही दिशा की ओर संकेत करें, तो उन्हें पूरी तरह नज़रअंदाज़ करना भी बौद्धिक ईमानदारी नहीं होगी।
झारखंड के संदर्भ में पुस्तक विशेष रूप से चौंकाने वाले निष्कर्ष प्रस्तुत करती है। लेखक के अनुसार राज्य के लगभग एक-चौथाई जिलों में हिंदू जनसंख्या अल्पमत में आ चुकी है। यह तथ्य केवल धार्मिक संख्या का प्रश्न नहीं बनता, बल्कि स्थानीय संस्कृति, भाषा और सामाजिक संरचना पर उसके प्रभावों की ओर भी संकेत करता है। लेखक का मानना है कि ऐसे परिवर्तन धीरे-धीरे राजनीतिक और प्रशासनिक निर्णयों को भी प्रभावित करते हैं।
पुस्तक का एक अन्य महत्वपूर्ण खंड ईसाई मिशनरियों और उनके प्रभाव पर केंद्रित है। सामान्यतः भारतीय जनसांख्यिकी पर होने वाली चर्चाओं में यह पक्ष अपेक्षाकृत कम स्थान पाता है, किंतु लेखक इसे गंभीरता से उठाते हैं। पूर्वोत्तर भारत और जनजातीय क्षेत्रों में ईसाई जनसंख्या की तेज़ वृद्धि को वह मात्र आस्था परिवर्तन नहीं, बल्कि एक संगठित और दीर्घकालिक रणनीति के रूप में देखते हैं। अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर और मेघालय जैसे राज्यों के उदाहरण देते हुए लेखक यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि कैसे अन्य समुदायों की जनसंख्या में गिरावट के साथ ईसाई आबादी में निरंतर वृद्धि हुई है।
इन जनसांख्यिकी परिवर्तनों का सबसे मार्मिक और पीड़ादायक परिणाम हिंदू पलायन के रूप में सामने आता है, जिसे पुस्तक का सबसे सशक्त और भावनात्मक खंड कहा जा सकता है। पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर और हैदराबाद जैसे उदाहरण यह दर्शाते हैं कि जब किसी क्षेत्र में जनसंख्या संतुलन तेजी से बदलता है, तो उसके सामाजिक परिणाम कितने गंभीर हो सकते हैं। घर, ज़मीन, व्यवसाय और पीढ़ियों से जुड़ी स्मृतियों को छोड़कर पलायन करना केवल आर्थिक नहीं, बल्कि मानसिक और सांस्कृतिक विस्थापन भी होता है। मिजोरम में ईसाई बहुलता के कारण हुआ हिंदू पलायन भी इसी व्यापक परिघटना का हिस्सा बनकर उभरता है।
पुस्तक भारत में प्रचलित ‘जनसांख्यिकी लाभ’ की अवधारणा पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है। लेखक यह स्वीकार करते हैं कि युवा और विशाल जनसंख्या किसी भी राष्ट्र के लिए शक्ति हो सकती है, किंतु वह यह भी चेतावनी देते हैं कि यदि यह जनसंख्या असंतुलित और दिशाहीन हो जाए, तो वही शक्ति भविष्य में गंभीर संकट का कारण बन सकती है। प्रस्तुत आँकड़े यह संकेत देते हैं कि हिंदू समाज प्रखण्डवार, जिलावार और राज्यवार धीरे-धीरे सिमटता जा रहा है ।
इस पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पाठक पर कोई निष्कर्ष नहीं थोपती । यह प्रश्न उठाती है, आंकड़े रखती है और पाठक को स्वयं सोचने के लिए विवश करती है। समग्र रूप से यह पुस्तक केवल जनसंख्या पर आधारित अध्ययन नहीं, बल्कि भारत की सभ्यतागत निरंतरता, सांस्कृतिक आत्मविश्वास और राष्ट्रीय भविष्य से जुड़ा एक गंभीर विमर्श है। यह पाठक को असहज करती है, प्रश्नों से भर देती है और शायद यही किसी सार्थक पुस्तक की सबसे बड़ी सफलता भी है। गहन शोध आधारित इस पुस्तक में प्रस्तुत आंकड़े चौंकाने वाले है, या यूँ कहें भारत के लिए खतरे की घंटी जैसे हैं। देश धर्म की चिंता करने वालों को इन्हें बहुत गंभीरता से लेना चाहिए। इस तरह की पुस्तक को नकारना भारत के लिए बहुत बड़ी भूल हो सकती है। पुस्तक ऑनलाइन उपलब्ध है।
नारायणायेती समर्पयामि…
पुस्तक का नाम: सेकुलरवाद और बदलती जनगणना के आंकड़े
लेखक: श्री हरेन्द्र प्रताप
प्रकाशक: सुरुचि प्रकाशन दिल्ली
































