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बाल्यकाल से आत्मबोध तक: महर्षि रमण के दिव्य जीवन की अनुपम गाथा

महर्षि रमण का जन्म 30 दिसम्बर 1879 को तमिलनाडु के छोटे से गाँव तिरुचली में हुआ। उनका बाल्यनाम वेंकटरमण था

Kashish Mishra द्वारा Kashish Mishra
30 December 2025
in भारत
अरुणाचल पर्वत की गोद में विराजमान महर्षि रमण

अरुणाचल पर्वत की गोद में विराजमान महर्षि रमण

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प्रायः लोग जीवन के उत्तरार्द्ध में ईश्वर-स्मरण की ओर उन्मुख होते हैं, पर कुछ विरल आत्माएँ ऐसी होती हैं जिनके भीतर पूर्वजन्म के संस्कार बाल्यकाल से ही जाग्रत हो जाते हैं। महर्षि रमण ऐसी ही दिव्य विभूति थे, जिनका जीवन प्रेम, त्याग और आत्मबोध की अनुपम कथा है।

जन्म और बाल्यकाल
महर्षि रमण का जन्म 30 दिसम्बर 1879 को तमिलनाडु के छोटे से गाँव तिरुचली में हुआ। उनका बाल्यनाम वेंकटरमण था। वे स्वस्थ, सुन्दर और बलिष्ठ थे, पर औपचारिक पढ़ाई में उनकी विशेष रुचि नहीं थी। अधिक सोने के कारण लोग उन्हें स्नेहपूर्वक ‘कुम्भकर्ण’ कह देते थे।

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अरुणाचल की पुकार और आध्यात्मिक जागरण
सोलह वर्ष की आयु में उनके जीवन की दिशा अचानक बदल गई। उनके घर अरुणाचल पर्वत (तिरुवन्नमलाई) से आए एक संन्यासी के संस्मरणों ने उनके मन में तीव्र जिज्ञासा जगा दी। उसी समय शैव संतों की कथाएँ और कविताएँ पढ़कर उनके भीतर अध्यात्म का दीप प्रज्वलित हो उठा। अरुणाचल दर्शन उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य बन गया।

त्याग और साधना का मार्ग
एक दिन माँ ने उन्हें बड़े भाई की फीस जमा कराने के लिए पाँच रुपये दिए। उसी धन से उन्होंने भगवान को खोजने का निश्चय किया। माँ के नाम पत्र लिखकर उन्होंने कहा— “मैं प्रभु को खोजने जा रहा हूँ, मेरी तलाश न की जाए।” शेष दो रुपये पत्र के साथ छोड़कर वे अरुणाचल की ओर निकल पड़े।
यात्रा कठिन थी—धन नहीं, साधन नहीं। पैदल चलते हुए, मंदिरों में रुकते हुए और लोगों की करुणा से भोजन पाकर वे अंततः तिरुवन्नमलाई पहुँचे। अरुणाचल के दर्शन करते ही वे स्वयं को भूल बैठे और कठोर साधना में लीन हो गए।

महर्षि रमण का प्राकट्य
उनकी साधना और मौन तपस्या की ख्याति धीरे-धीरे फैलने लगी। लोग उन्हें ‘महर्षि रमण’ कहने लगे। भक्तों की बढ़ती संख्या से एक आश्रम की स्थापना हुई। वहाँ गोशाला, वेद पाठशाला और प्रकाशन विभाग बने। आश्रम सब धर्मों, जातियों और संप्रदायों के लिए समान रूप से खुला था। पशु-पक्षी भी वहाँ निर्भय विचरते थे। महर्षि स्वयं आश्रम के सभी कार्यों में सहभागी रहते थे—उनका प्रेम सार्वभौमिक था।

अंतिम परीक्षा और निर्वाण
1947 में कैंसर ने उन्हें घेर लिया। असह्य पीड़ा के बावजूद उनके मुख पर सदा शांत मुस्कान बनी रहती थी। शल्यक्रिया के बाद भी रोग नहीं रुका। बाँह काटने का सुझाव उन्होंने अस्वीकार कर दिया और शांति से प्रभुधाम की तैयारी करने लगे।
24 अप्रैल 1950 को यह प्रेमावतार शरीर त्याग कर अनंत में विलीन हो गया—पर उनका संदेश आज भी जीवित है।

संदेश
महर्षि रमण ने सिखाया कि ईश्वर कहीं बाहर नहीं, हमारे भीतर है—स्वयं को जानो, स्वयं में रम जाओ। यही प्रेम और आत्मबोध का शाश्वत पथ है।

Tags: arunachal darhanchildhoodmaharhi smileMaharshi RamanaTamilNaduventekeshwarतिरुचलीमहर्षि रमण
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