जीवन स्वयं एक यात्रा है, उतार-चढ़ाव से भरी, अनुभवों से सजी और निरंतर आगे बढ़ती हुई। किंतु यात्रा केवल स्थानों के बीच की भौतिक गति नहीं होती; वह व्यक्ति के भीतर घटने वाली एक सूक्ष्म, गहन और परिवर्तनकारी प्रक्रिया भी होती है। कुछ यात्राएँ गंतव्य तक पहुँचकर समाप्त हो जाती हैं, जबकि कुछ यात्राएँ वहीं से आरंभ होती हैं, जहाँ बाह्य मार्ग समाप्त हो जाता है। ऐसी ही यात्राओं से वह साहित्य जन्म लेता है, जिसमें अनुभव, स्मृति, संघर्ष और आत्मबोध एक-दूसरे में घुलकर जीवन-दर्शन का स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं।
भारतीय सांस्कृतिक परंपरा में तीर्थ-यात्रा को सदैव आत्मशुद्धि और अंतर्मुखी साधना से जोड़ा गया है। किंतु आधुनिक समय में, जब तीर्थ भी प्रायः आयोजन और भीड़ का पर्याय बनते जा रहे हैं, तब किसी तीर्थ-यात्रा को उसके मौलिक अर्थ, अर्थात् ‘आत्म-परिवर्तन की प्रक्रिया’ के रूप में प्रस्तुत करना एक रचनात्मक और बौद्धिक चुनौती है। इसी चुनौती को स्वीकार करती हुई एक पुस्तक मुझे प्राप्त हुई।
बाबाजी शिवानन्द महाराज जी के करकमलों से यह पुस्तक प्राप्त होना मेरे लिए प्रारब्ध का सुफल रहा। अंग्रेज़ी भाषा में लिखी गई इस पुस्तक का शीर्षक है The Journey Within। मनमोहक चित्रों से समृद्ध लगभग सौ पृष्ठों की यह पुस्तक बाबाजी द्वारा हिमाचल प्रदेश में विराजमान भगवान शिव के पावन धाम ‘श्रीखंड कैलाश’ की विभिन्न कालखंडों में की गई यात्राओं का जीवंत वृत्तांत प्रस्तुत करती है।
यह कृति केवल मार्ग, पड़ाव और प्राकृतिक दृश्यों का विवरण नहीं है, बल्कि प्रत्येक यात्रा के साथ घटित अनुभवों, संघर्षों और आत्मिक अनुभूतियों का भी संवेदनशील अभिलेख है। यही विशेषता इसे साधारण यात्रा-वर्णन से कहीं आगे ले जाती है। यह पुस्तक केवल एक दुर्गम हिमालयी तीर्थ की कथा नहीं कहती, बल्कि उस यात्रा का साक्ष्य प्रस्तुत करती है, जो मनुष्य को स्वयं से और अंततः परमात्मा से साक्षात्कार कराती है।
वास्तव में यह पुस्तक एक यात्रा-वृत्तांत भर नहीं है, बल्कि जीवन और आत्मा की उस यात्रा का दस्तावेज़ है, जो ‘अनजाने’ में आरंभ होकर ‘आत्मबोध’ और फिर दैवीय अनुभव अर्थात् ‘महादेव की अनुभूति’ तक पहुँचती है। जिस मार्ग की कथा यहाँ कही गई है, वह बाह्य रूप से जितना कठिन और दुर्गम है, आंतरिक रूप से उतना ही रूपांतरणकारी सिद्ध होता है। ‘श्रीखंड महादेव’ की यात्रा, जिसे हिंदू संस्कृति की सबसे कठिन तीर्थ यात्राओं में गिना जाता है, इस पुस्तक में केवल एक भौगोलिक गंतव्य नहीं रह जाती, बल्कि आत्म-अन्वेषण की साधना बन जाती है।
दुर्गम पथ, चुनौतीपूर्ण परिस्थितियाँ और मार्ग में बिखरे अद्भुत, लगभग अलौकिक प्राकृतिक दृश्य आदि का वर्णन केवल दृश्यात्मक नहीं है, बल्कि उनके माध्यम से लेखक के भीतर घट रहे परिवर्तन को भी गहराई से उजागर करता है। कठिनाई और सौंदर्य का यह द्वंद्व पाठक को यह अनुभूति कराता है कि आध्यात्मिक मार्ग भी संघर्ष और चमत्कार के सह-अस्तित्व से निर्मित होता है। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि लेखक ने इस यात्रा को एक बार नहीं, बल्कि वर्षों तक बार-बार किया है। यही पुनरावृत्ति इस कृति को साधारण यात्रा-वृत्तांत से ऊपर उठाती है। प्रत्येक यात्रा एक नई समझ, एक नया प्रश्न और एक नया आत्म-साक्षात्कार लेकर आती है। परिणामस्वरूप, यह पुस्तक केवल लेखक की बाह्य यात्राओं का लेखा-जोखा नहीं रह जाती, बल्कि आत्म-खोज और ईश्वर-अनुभूति की क्रमिक प्रक्रिया का सजीव आलेख बन जाती है।
पुस्तक की भाषा में न तो कृत्रिम आध्यात्मिकता है और न ही अतिरंजित भावुकता। अनुभव सहज हैं, चिंतन स्वाभाविक है और आस्था शांत, परिपक्व तथा गहरी है। यह कृति पाठक को किसी उपदेशक की तरह नहीं, बल्कि एक सहयात्री की तरह अपने साथ चलने का आमंत्रण देती है, ऐसे सहयात्री के रूप में, जो अपने अनुभव साझा करता है और पाठक को अपने भीतर झाँकने की प्रेरणा देता है। पुस्तक पढ़ते समय मैं स्वयं भी एक सहयात्री बन गया था।
यद्यपि मुझे अभी तक इस यात्रा पर जाने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है, किंतु जैसे-जैसे मैं इस पुस्तक को पढ़ता गया, वैसे-वैसे मैं मानसिक रूप से इस यात्रा पर चलता गया। जहाँ-जहाँ सुंदर और सुखद वर्णन आए, वहाँ मुझे भी आनंद की अनुभूति हुई; और जहाँ-जहाँ कठिन, कष्टकारी प्रसंग आए, वहाँ मुझे भी भय और असहजता का अनुभव हुआ। मन में यह विचार भी आया कि अच्छा ही हुआ कि मैं अभी तक इस यात्रा पर नहीं गया और संभव है आगे भी न जा पाऊँ। वर्णनों की भयावहता के कारण ऐसे विचार स्वाभाविक रूप से मन में आए, जिनका उत्तर स्वयं पुस्तक के पाँचवें पृष्ठ पर मिलता है:-
“When Bholenath calls you, then age or difficulty are of no significance.”
पूर्वजन्मों के पुण्य प्रबल होंगे तो भोलेनाथ स्वयं बुलाएँगे, इस भाव से उनसे यही प्रार्थना है कि ऐसे कर्म कर सकूँ।
पुस्तक के पृष्ठ 62 के बाद ऐसे अनुभवों का साक्षात्कार होता है, जिनके विषय में अधिक लिखना उनके प्रभाव को कम करना होगा। दिव्य अनुभूतियाँ स्वयं पढ़कर और अनुभव कर ही समझी जा सकती हैं। पृष्ठ 81 से 91 तक के वर्णन संकेत मात्र हैं, किंतु विशेष रूप से पृष्ठ 91-92 पर अंकित अनुभूति अद्भुत है, वह महादेव की ओर से हम मनुष्यों के लिए एक मौन संदेश के समान है।
कुल मिलाकर, यह पुस्तक उन पाठकों के लिए विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है जो तीर्थ को केवल परंपरा नहीं, बल्कि आत्म-परिवर्तन की प्रक्रिया के रूप में देखना चाहते हैं। ‘श्रीखंड महादेव’ की कठिन यात्रा यहाँ उस मार्ग का एक प्रतीक बन जाती है, जो बाहर से जितना दुर्गम है, भीतर से उतना ही प्रकाशमय। पुस्तक ऑनलाइन उपलब्ध है।
पुस्तक का नाम: The journey within
लेखक: बाबाजी शिवानन्द महाराज
प्रकाशक: श्री साईं मंगलम सेन्ट्रल ट्रस्ट
ॐ नमः शिवाय
नारायणायेति समर्पयामि…
