अमेरिका में हाल के वर्षों में अतिदक्षिणपंथी विचारधाराएँ फिर चर्चा में हैं। इन्हीं चेहरों में एक नाम है—निक फ्यूएंटेस। वे एक युवा राजनीतिक कार्यकर्ता और ऑनलाइन टिप्पणीकार हैं, जो खुले तौर पर निक फ्यूएंटेस और श्वेत राष्ट्रवादी विचार रखते हैं। सोशल मीडिया और ऑनलाइन मंचों के ज़रिये उन्होंने खासकर युवाओं के बीच अपनी पहचान बनाई, लेकिन नफ़रत फैलाने वाले बयानों के कारण उन्हें कई प्लेटफ़ॉर्म से प्रतिबंधित भी किया गया।
अमेरिका फ़र्स्ट
निक फ्यूएंटेस “अमेरिका फ़र्स्ट” जैसे नारों के साथ ऐसे विचार पेश करते हैं, जिनमें यहूदी समुदाय के ख़िलाफ़ साज़िश सिद्धांत शामिल हैं। वे लोकतांत्रिक संस्थाओं—जैसे चुनाव, मीडिया और न्यायपालिका—पर अविश्वास पैदा करने वाली बातें करते रहे हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि इस तरह की भाषा केवल शब्दों तक सीमित नहीं रहती, बल्कि समाज में डर और विभाजन को बढ़ाती है।
यहूदी-विरोध को अमेरिका के लिए ख़तरनाक इसलिए माना जाता है क्योंकि इसका सीधा संबंध हिंसा से रहा है। अतीत में कई घातक हमलों के पीछे ऐसी ही नफ़रत भरी विचारधाराएँ पाई गई हैं। जब किसी समुदाय को दुश्मन की तरह पेश किया जाता है, तो चरमपंथी तत्व उसे सही ठहराने लगते हैं।
लोकतंत्र को कमज़ोर
इसके अलावा, ऐसी राजनीति लोकतंत्र को कमज़ोर करती है। झूठी साज़िशों से लोगों का भरोसा संस्थाओं से उठता है और समाज में ध्रुवीकरण बढ़ता है। नतीजा यह होता है कि बातचीत और सहमति की जगह टकराव ले लेता है।
आज अमेरिका में नागरिक संगठन, शिक्षाविद और मीडिया इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि नफ़रत के ख़िलाफ़ तथ्यों, शिक्षा और क़ानून के ज़रिये जवाब दिया जाए। विशेषज्ञ कहते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ज़रूरी है, लेकिन नफ़रत और हिंसा को बढ़ावा देने वाली भाषा को चुनौती देना भी उतना ही अहम है।
निक फ्यूएंटेस का मामला याद दिलाता है कि लोकतंत्र की मज़बूती सिर्फ़ चुनावों से नहीं, बल्कि सम्मान, सच और आपसी समझ से बनती है।





























