19 फ़रवरी 2017, प्रधानमंत्री की फतेहपुर में रैली हुई,उन्होंने कहा की,”रमज़ान पर बिजली मिलती है तो दिवाली पर भी बिजली मिलनी चाहिए, होली पर बिजली मिलती है तो ईद पर भी बिजली मिलनी चाहिए। विपक्ष के हिसाब से ये एक सांप्रदायिक बयान है। किस हिसाब से सांप्रदायिक बयान है ये किसी को ज्ञात नहीं। मीडिया ने इस बयान को इस तरह से कवर किया की प्रधानमंत्री ने कहा की “रमजान में बिजली मिलती है,दिवाली में नहीं”।
बहुत से विपक्षी दल और कुछ मीडिया पोर्टलों ने इस बयान पे आपत्ति जताई। हालांकि ये और बात है की इसको ऐसे भी लिखा जा सकता था की,”प्रधानमंत्री ने कहा है की होली में बिजली मिलती है तो ईद पे भी मिले। ” लेकिन शायद ये दूसरी वाली हैडिंग विपक्षी दलो के हित को नहीं साधती थी इसीलिए उन्होंने इसे पहली वाली हैडिंग दी।
खैर दोनों हैडलाइन सही तरह से तो ऐसे लिखी जानी चाहिए थी की प्रधानमंत्री ने धर्म,जाती के हिसाब से प्रजा और प्रजा के बीच भेदभाव का विरोध किया। और कुछ मीडिया पोर्टलों ने इस तरह से लिखा भी।
देखने वालो ने इसमें भी धर्म ढूंढ लिया। हालांकि जो लोग समसामयिक विषयों की जानकारी रखते है उनको पहले से पता था की ऐसा कुछ कहने वाले है प्रधानमंत्री। कारण यह की 10 फ़रवरी को बीजेपी MP सर्वेश कुमार ने इस मुद्दे को ले के पीयूष गोयल के पास शिकायत की थी और ऊर्जा मंत्री ने इसका संज्ञान भी लिया था।
राजनीतिक दृष्टि से देखे तो इसे विपक्ष द्वारा इस मुद्दे को भड़काना खुद उनको ही नुकसान पहुँचाएगा। प्रधानमंत्री का बयान था बराबरी के मुद्दे को ले के और विपक्ष ने बना दिया है इसे सांप्रदायिक मुद्दा। और इस तरह विपक्ष ने ही ध्रुवीकरण कर दिया चुनाव का। ध्रुवीकरण कभी एकतरफा नहीं होता ये दोतरफा होता है। चुनाव में जनता के एक पक्ष को जब आप अपने तरफ आकर्षित करने की कोशिश करते है तो दूसरा पक्ष अपने आप दूसरे पक्ष की तरफ चला जाता है।
सही मुद्दे पे विरोध जनता को आपके साथ जोड़ता है और सिर्फ विरोध के लिए विरोध करना आपके विरोधी को मजबूत करता है। इसी बीच ताज़ी खबर ये है की कांग्रेस ने इस बयान के खिलाफ चुनाव आयोग में शिकायत करने का अपना फैसला बदल दिया है। अब वह इसकी शिकायत नहीं करेगी। मुहावरों की भाषा में इसे कहते है ऊंट का पहाड़ के नीचे आना। क्योंकि कही न कही ये पता तो उन्हें भी है की प्रधानमंत्री का बयान बिलकुल भी सांप्रदायिक नहीं था और यदि चुनाव आयोग में शिकायत करेंगे तो जनता के सामने वो खुद ही बेनकाब हो जाएंगे।
इस मामले को एक साधारण उदाहरण से समझ सकते है की एक व्यक्ति है जो अपने आप को आपका सच्चा दोस्त कहता है लेकिन जब उसी के सामने आप डूब रहे हो तो वो आदमी तैरना आने पे भी आपको नहीं बचाता और अपनी आँखों के सामने आपको डूबते हुए देखता रहता है और चिल्ला चिल्ला के ये कहता रहता है की मैं तुम्हारा सच्चा दोस्त हूँ।
बुनियादी सवाल ये है की यदि एक व्यक्ति बोल रहा है की होली पे बिजली आनी चाहिए और ईद पे भी,तो इस तरह तो ईद वालो और होली वालो दोनों के ही घर बिजली आ गयी तो समझ में ये नहीं आ रहा की इस बयां से आखिर आपत्ति है किसे? यहाँ तो समानता की बात हो रही है,एकता की बात हो रही है,सब सामान होंगे तभी तो सब एक होंगे।
वैसे बात यूपी चुनावों की हो रही है और चुनाव यूपी के हमेशा से ही दिलचस्प होते है। कहते है की जो यूपी के दिल में राज करता है वही देश पे भी राज करता है। और ये कहा यूँ ही नहीं जाता इसका एक कारण है और लोक सभी की 543 में से 80 सीट यूपी देता है। 2014 के चुनावों में यूपी की जनता ने ही देश की सत्ता की चाभी भाजपा को दिया। 80 सीट में से सत्तर से ज्यादा सीट भाजपा ने जीती। समाजवादी पार्टी सिमट गयी 5 सीट पे और बसपा का खाता भी नहीं खुल पाया। जाहिर है की यदि लोकसभा के साथ ही यदि यूपी में विधानसभा का चुनाव भी हो जाता तो सत्ता किसे मिलती। और साथ ही ये भाजपा की नैतिक जीत थी की भाजपा को रोकने के नाम पे मुलायम सिंह की पार्टी ने उस कांग्रेस से गठबंधन कर लिया जिसके खिलाफ संघर्ष करते करते ही मुलायम सिंह की राजनैतिक जमीन तैयार हुई थी।
वैसे मुलायम सिंह समाजवादी के पूर्व अध्यक्ष है और वर्तमान में सपा के मार्गदर्शक मंडल में है। एक किस्सा मशहूर है की अपने जवानी के दिनों में जब प्रदेश और देश में कांग्रेस की सरकार थी तो एक कवि सरकार विरोधी कविता पढ़ रहा था और कांग्रेस सरकार के आदेश पे एक पुलिसवाला उसे उसकी कविता पढ़ने नहीं दे रहा था उतने में मुलायम सिंह जो की एक पहलवान भी थे उन्होंने उस पुलिसवाले को उठा के मंच से फेंक दिया था। इतना गुस्सा था उनके अत्याचार को ले के ,इसी के चलते लोहिया जी के भी संपर्क में रहे और कांग्रेस सरकार और सरकारी तंत्र के दुरुपयोग के खिलाफ लड़ते भी रहे और फिर एक दिन खुद मुख्यमंत्री बन गए। लगा यही की अब जा के सरकारी तंत्र सही करेगा लेकिन इनके शासन में गुंडई और ज्यादा बढ़ गयी,हाँ फर्क बस इतना था की अब गुंडों के नाम बदल गए थे। और फिर उन्होंने खुद ही सरकारी तंत्र का दुरूपयोग शुरू कर दिया,इतिहास ने उनका गेस्ट हाउस कांड भी देखा जो की यूपी के लोकतंत्र पे एक काला धब्बा है आज भी। और सारी जिंदगी कांग्रेस के खिलाफ संघर्ष करने के बाद आज उनकी पार्टी कांग्रेस से गठबंधन करके चुनाव लड़ रही है।
अतः एक मूल प्रश् ये उठता है की सिस्टम के खिलाफ आवाज़ उठाने वाला व्यक्ति क्यों खुद ही सिस्टम का हिस्सा बन जाता है? क्या इससे ये साबित होता है की सिस्टम के खिलाफ उस व्यक्ति का विरोध सिर्फ इस बात को ले के था की शोषण करने वाले सिस्टम का हिस्सा वो खुद नहीं है इसी लिए विरोध कर रहा है। ऐसे दोहरे चरित्र का उदाहरण दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल भी है,सत्ता में आने से पहले उनके कथन हुआ करते थे नेताओं के वेतन के ऊपर,और आज खुद सत्ता में आने के बाद वो खुद अपने विधायकों के वेतन 45000 से बढ़ा के 1,50,000 करवाना चाहते है। इस मुद्दे पे बात यह नहीं है अन्य राज्यों के विधायकों का वेतन कितना है,बात यह है की आप बदलाव की बात करके आए थे और अब खुद अपनी बात के खिलाफ जा रहे है। आज आप बोल रहे है की इतने पैसो में एक विधायक का जीवन नहीं चल पाएगा तो यही बात उस समय भी लागू थी जब आप की जगह कोई और विधायक था,तब आपने ये बात क्यों नहीं सोची?जो बात दूसरे पे लागू है वो आप पे क्यों नहीं?
खैर चलते चलते संलग्न चित्र भी देख लीजिये:-