दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में देश-विरोधी नारे लगाए जाने के बाद हुए हिंसक झड़पों से उठा विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। इस घटना के बाद से सोशल मीडिया में छिड़े दंगल में विभिन्न क्षेत्रों के सेलेब्रिटीज़ कूद पड़े हैं और इस महासंग्राम ने एक देशव्यापी रूप ले लिया है।
एक तरफ जहाँ देशविरोधी नारों के समर्थन में उदारवादी और बुद्धिजीवी वर्ग खड़ा है तो दूसरी तरफ उनके विरोध में वीरेंद्र सहवाग, रणदीप हुडा , बबिता फोगाट और योगेश्वर दत्त जैसे नामचीन हस्तियों ने मोर्चा संभाल लिया है।
इसमें ज्यादा गौर करने वाली बात ये है कि वामपंथियों , कांग्रेसियों और आप के नेताओं की प्रतिक्रियाओं से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि वो देश-विरोधी नारे लगाने वाले छात्रों के पक्ष में दलीलें दे रहे हैं। हालाँकि इसमें ज्यादा आश्चर्यचकित करने वाली बात नहीं है क्योंकि पूर्व में भी इन संगठनों का रूख ऐसे तत्वों के समर्थन में रहा है।
आज ये विश्लेषण का विषय अवश्य है कि क्यों हर बार ऐसा होता है कि भारत में कोई भी देश-विरोधी गतिविधि होती है और लोगों द्वारा उसका विरोध होता है तो ये वामपंथी,कांग्रेसी और आप समेत सारे सेक्युलर पार्टियों के नेता उन देशविरोधी तत्वों के समर्थन में खुलकर सामने आ जाते हैं।
हर देश-विरोधी गतिविधि को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकार की दलीलें देकर सत्ता पक्ष पर विरोधी मतों को दबाने का आरोप लगाया जाता है। और यह कोई पहली घटना नहीं है, 2014 में सत्ता परिवर्तन के बाद से ऐसे मामले संज्ञान में आते रहे हैं, चाहे वह पिछले वर्ष JNU की घटना हो, जाधवपुर यूनिवर्सिटी की घटना हो , या फिर रामजस कॉलेज का ताज़ा विवाद।
अगर हम पिछले 2-3 वर्षों में उठे राजनीतिक मुद्दों पर नज़र दौड़ाएं तो स्थिति बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है। मोदी सरकार के आने के बाद से भ्रष्टाचार का मुद्दा मानो विलुप्त सा हो गया है। आर्थिक विकास के मोर्चे पर विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय अर्थ व्यवस्था अपने प्रतिद्वंदी अर्थ व्यवस्थाओं के मुक़ाबले बेहतर प्रदर्शन कर रही है। आतंरिक सुरक्षा के मामले पर ‘ सर्जिकल स्ट्राइक ‘ के बाद सरकार की लोकप्रियता में इज़ाफ़ा हुआ है। अनेक लोकप्रिय कार्यक्रमों और योजनाओं के माध्यम से सरकार ने सीधे जनता से संवाद स्थापित किया है। जब विपक्षी पार्टियां किसी भी मसले पर सरकार को घेरने में नाकाम रहीं तो उन्हें अब मोदी सरकार की दिन प्रतिदिन बढ़ती लोकप्रियता का भय सताने लगा है। उनके पाँव के नीचे से ज़मीन सरकने लगी है और संभवतः उन्हें इसका आभास होने लगा है ।
पूरी तरह से निष्फल, अप्रांसगिक और आशाविहीन हो चुकी विपक्षी पार्टियों को इन देशविरोधी तत्वों में आशा की नई किरण दिखाई पड़ी है। वामपंथी खेमा तो पहले से ही देश-विरोधी कार्यों में संलिप्त रहा है, कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट मँडरा रहा है और आम आदमी पार्टी इन् मुद्दों को उछालकर दिल्ली में अपनी नाकामियों को छुपाने का विफ़ल प्रयत्न कर रही है। इन सभी पार्टियों को ऐसा लगने लगा है कि असहिष्णुता के नाम पर छाती पीटकर और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पुरजोर उपयोग करके वे ऐसा ब्रह्मास्त्र चला रहे हैं जो शायद मोदी सरकार की बढ़ती लोकप्रियता को रोकने में कारगर हथियार साबित हो सकता है।
हालाँकि वे अब भी ग़लतफहमी में जी रहे हैं क्योंकि अपने इस तरह के कृत्यों से वे स्वयं भारत की जनता के सामने अपनी मानसिक विकृति और दिवालियापन का प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं। और शायद पाँच विधानसभा के भावी नतीजे ये साबित करेंगे कि जनता उनकी इस निम्न स्तर की राजनीति को सिरे से नकार चुकी है ।