जब भी 23 मार्च आती है, तब जहाँ भारत की जनता, परम राष्ट्रवादी शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को श्रद्धांजलि अर्पित करती और नमन करती है, वहीं वामपंथी जमात भगत सिंह को बेचने लगती है। कांग्रेस, जिसने भगत सिंह को फांसी में लटक जाने दिया था, वह भी कुछ सालो से भगत सिंह को नाम को बेचने में शामिल है।
80 के दशक से वामपंथी इतिहासकार, पुरे भारत को यह बताते हुए नही थकते है की भगत सिंह वामपंथी थे। ये वामपंथी बिना नागा किये हुए, भगत सिंह को अपने लाल झंडे में लपेटे, लाल सलाम के क्रंदन के बीच, हर वर्ष प्रदर्शनी लगाते है। आखिर इन वामपंथियों ने यह कहाँ पढ़ लिया है की भगत सिंह वामपंथी थे और कब वह कम्युनिस्ट पार्टी के कार्ड होल्डर हो गए थे? वास्तविकता यह है की वामपंथियों द्वारा यह प्रतिस्थापित मान्यता सरासर झूठ है। सत्य यही है कि भगत सिंह न कभी वामपंथी थे और न ही उन्होंने उस काल में, किसी भी वामपंथी संघठन की सदस्यता ग्रहण की थीं।
हाँ, यह एक अलग सत्य है की स्वतंत्रता की अलख जलाने वाले भारत के अन्य सपूतो के भांति, भगत सिंह ने भी, ब्रिटिश सम्राज्य को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए, उन सबको पढ़ा था जिन्होंने सम्राज्यवाद के विरुद्ध लिखा था। यह भी सत्य है कि उन्होंने ऐंगल्स, मार्क्स, लेनिन और ट्रोट्स्की को पढ़ा था, लेकिन उससे भी ज्यादा मनोभाव से उन्होंने “ऐनार्किस्म” के समर्थक, मिखाइल बकुनिन को पढ़ा था। इस पुरे विवाद का पूर्ण सत्य यही है कि भगत सिंह के वामपंथी होने कि कहानी सिर्फ उनके वामपंथी साहित्य पढ़ने की कहानी तक ही सीमित है।
भारत का 1920 के दशक का काल, सम्राज्यवादी शक्तियों से संघर्ष और उन्हें परास्त करने वाले दर्शन और साहित्य को पढ़ने वाला काल था। उस वक्त के भारत के स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारियों के लिए यह दर्शन और लेखन, सम्राज्यवादी शक्तियों से स्वतंत्र होने के लिए, एक दिशा मार्ग थे। उस दशक में हर नवजवान, जो अंग्रेजो की गुलामी से आक्रोशित था, वह योरप और रूस में हो रहे घटनाक्रमों पर नजर लगाये हुआ थे और जिन लोगो के लेखन ने यूरोप में हो रही इस नई क्रांति की आग लगायी थी , उन लेखको को, दूसरे लोगो के साथ भगत सिंह ने भी पढ़ा था।
जहाँ वामपंथी इतिहासकार, भगत सिंह को वामपंथी बताते हुए नहीं थकते है वहीं वह सुविधानुसार उन प्रभावो को छुपा जाते है जिनका वास्तविक असर भगत सिंह कि विचारधारा पर पड़ा था।
भगत सिंह पर असली प्रभाव किसका पड़ा था, यह बात इससे अच्छी तरह समझी जासकती है की 20 के दशक में जब भगत सिंह और सहदेव, “हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन”, (HSRA ) के लिए सदस्यों को भर्ती कर रहे थे तब उसकी पहली शर्त यह होती थी की हर नए सदस्यों ने निकोलई बुखारीन और एवगेनी परोबरजहसंस्की की “ऐबीसी ऑफ़ कम्युनिज्म”, डेनियल ब्रीन की “माय फाइट फॉर आयरिश फ्रीडम” और चित्रगुप्त(जो एक छद्म नाम था) की “लाइफ ऑफ़ बैरिस्टर सावरकर” पढ़ी हुयी हो।
यहां यह ध्यान रखने वाली बात है की ऊपर उल्लेखित तीनो किताबो में किसी के भी लेखक ,लेनिन और कार्ल मार्क्स नहीं है। साम्राजयवाद के विरुद्ध क्रांति की प्रेरणा जितनी उन्हें वामपंथियों के तौर तरीकों से मिली थी, उतनी ही उन्हें आयरलैंड के क्रांतिकारियों से मिली थी। यहां यह बताना आवश्यक है की HSRA , रामप्रसाद बिस्मिल और चन्द्रशेखर आज़ाद की HRA का नया रूप था जिसका नामकरण, आयरिश रिपब्लिकन आर्मी से प्रेरित हो कर ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी’ रक्खा गया था।
इससे पूरी तरह स्पष्ट है की भगत सिंह और उनके साथियों का वामपंथी विचारधारा से कोई लेना देना नहीं था। हाँ यह जरूर है की वामपंथी रूस के ज़ार सम्राज्य को उखाड़ फेंकने में सफल हुए थे, इसलिए उन्हें यह प्रेरणा मिलती थी कि वह भी साथियों के साथ ब्रिटिश सम्राज्य को भारत से उखाड़ फेकेंगे।
ऊपर की किताबो में सबसे महत्वपूर्ण किताब चित्रगुप्त की “लाइफ ऑफ़ बैरिस्टर सावरकर” थी। यह किताब ‘विनायक दामोदर सावरकर’ की जीवनी थी जो उन्होंने ने छद्म नाम चित्रगुप्त के नाम से लिखी थी। इस किताब को पढ़ना और समझना हर HSRA के क्रन्तिकारी सदस्य के लिए अनिवार्य था। सिर्फ यही ही नही, बल्कि इस प्रतिबंधित किताब को छपवाया और उसका वितरण भी करवाया जाता था। जब लाहोर काण्ड के बाद क्रांतिकारियों कि गिरफतारियां हुयी थी तब यही एक ऐसी किताब थी जो सारे क्रांतिकारियों के पास से जब्त की गयी थी।
अब आप लोग यह समझ सकते है की क्यों कांग्रेस ने, वामपंथियों के झूठ को प्रचारित होने दिया है। कांग्रेस, हमेशा से सावरकर और भगत सिंह के बीच के सत्य को जहां दबा कर रखना चाहती थी वहीँ ‘सावरकर’ के विशाल व्यक्तित्व और उनकी आज़ादी की लड़ाई में योगदान को, दुष्प्रचार के माध्यम से कलंकित करके, राष्ट्रवादी विचारधारा को दबाये रखना चाहती थी।
भगत सिंह और उस काल के सभी क्रन्तिकारी, स्वतंत्रता सेनानी सावरकर जी से न केवल प्रभावित थे बल्कि ये नवजवान एक सच्चे राष्ट्रवादी थे। उनकी भारत के भविष्य को लेकर दृष्टि बिलकुल साफ़ थी। वो भारत को, अंग्रेजो की गुलामी से ही सिर्फ आज़ाद नही कराना चाहते थे बल्कि वो भारतवासियों के राजनैतिक के साथ, समाजिक और आर्थिक आज़ादी का भी सपना देखते थे।
वामपंथी और कांग्रेस दोनों ने ही भारत के इतिहास का न केवल मान-मर्दन किया है बल्कि भगत सिंह ऐसे शहीदों का सिर्फ अपमान किया हैl