एक बार जब मीडिया ने केसीआर पे उंगली उठाई, तो केसीआर ने राज्य में आपातकाल घोषित कर दिया। अरुण शौरी तब घोड़े बेच कर सो रहे थे।
एडिटरस गिल्ड अब यह पढ़कर हैरान ज़रूर होगा, और होना भी चाहिए। शायद इसी राजनैतिक परिप्रेक्ष्य को संत कबीरदास ने बहुत पहले ही अपने शब्दों में पिरोया था:-
“रंगी को नारंगी कहे, बने दूध को खोया,
चलती को गाडी कहे, यह देख कबीरा रोया’
अभी भी अरुण शौरी जैसे कथित बुद्धिजीवियों के लिए, प्रधानमंत्री मोदी बहुतया असफल राजनेता हैं, उन्हें भारत अभी भी तीसरी दुनिया का देश लगता है। तीन साल के स्वछ और निष्पक्ष शासन की तो बात ही मत कीजिये।
सारे फ़सादों की जड़ आखिर एक संकुचित कारण जो है, ‘अहम ब्रह्मास्मि’, यानि हम ही हम है, बाकी सब पानी कम है।
जब कलवकुंतला चन्द्रशेखर राव ने नए नवेले राज्य तेलंगाना की जून 2014 में कमान संभाली, तो तमाम टीवी और प्रैस प्रकाशनों ने मानों तेलंगाना और केसीआर की धज्जियां उड़ाने की कसम खा ली थी। चाहे चरित्र हनन हो, या भड़काऊ लेख और मत, ऐसा कोई पाप नहीं जो भारतीय मीडिया ने तेलंगाना और सीमान्ध्र के लोगों में वैमनस्य बढ़ाने के लिए न किया हो। यहाँ तक की विकासशील सोच के नाम पर क्षेत्रीय बोलियाँ और तेलंगाना प्रांत के लोगों का सीमान्ध्र के लोगों द्वारा माखौल उड़ाने से भी भारतीय मीडिया बाज़ नहीं आया। अपमान से परिपूर्ण यह नौटंकी भारतीय मीडिया के सानिध्य में बेहिचक, रोजाना, और बेहिसाब चल रही थी।
ज्ञात हो की अविभाजित आंध्र प्रदेश में 20 से भी ज़्यादा तेलुगू चैनल थे। कुछ गिने चुने निजी टीवी चैनलों में टीवी 9 और एबीएन अविभाजित आंध्र प्रदेश के तेलुगू भाषी लोगों में काफी लोकप्रिय ही नहीं था, अपितु उसका टीआरपी में भी सिक्का खूब जमता था।
कई लोकप्रिय तेलुगू टीवी चैनल का संचालन सीमान्ध्र में बने धनाढ्य समूह करते थे। उनका क्षेत्रीय राजनीति में प्रभुत्व भी किसी से नहीं छुपा है। हैदराबाद और सिकंदराबाद के जुड़वा शहरों में इनका बड़ी बड़ी सम्पत्तियों पर काबिज कब्जा भी मशहूर है। अलग तेलंगाना के आंदोलन की शुरुआत से ही यह समूह आंध्र प्रदेश के विभाजन के सख्त खिलाफ था, और लगभग टीआरएस [तेलंगाना राष्ट्र समिति] पार्टी, केसीआर और बाकी आंदोलनकर्ताओं के खिलाफ लगभग एक विरोध अभियान चलाने में इस समूह की प्रमुख भूमिका थी। यहाँ तो सब ठीक था, पर आगे जो हुआ, उसने केसीआर के वर्तमान तानाशाही रवैये की नींव रखी।
बतौर प्रथम मुख्यमंत्री, 2 जून 2014 को केसीआर ने तेलंगाना राज्य की कमान संभाली। पर केसीआर और उनके राज्य के खिलाफ मीडिया की आलोचनाएँ टीवी पर बदस्तूर चलते रहे, बावजूद इसके की राज्य की कमान केसीआर ने संभाल ली थी। यहाँ तक की एक वर्ष के अंदर अंदर इनहोने मर्यादा की सारी सीमाएं लांघ दी।
तेलंगाना के जिलों में रह रहे आंध्र नागरिकों की सुरक्षा के मसलों पर भी इन चैनलों ने भड़काऊ अफवाहें फैलाना शुरू कर दिया ।
तेलंगाना की बोली का टीवी पे प्रसारित हास्य कार्यक्रमों में भरपूर इस्तेमाल किया गया है, जिसमें निशाना निस्संदेह स्थानीय प्रजाति थी। कई तेलुगू में जिनमे तेलंगाना बोली के संवाद थे, उन्होंने बॉक्स ऑफिस पर धूम मचा रखी थी, क्योंकि इस बोली का का सम्बन्ध सादगी, सच्चाई, और व्यावहारिक व्यक्तित्व से है। आंध्र प्रांत से दो अभिनेता, तनिकेल्ला भरणी और कोटा श्रीनिवास राव इस बोली के संवाद में काफी कुशल है [हालांकि ये दोनों सीमान्ध्र के वासी हैं], इनके संवाद सुनकर श्रोतागण हंसी से खिलखिला पड़ते हैं।
12 जून 2014 को तेलुगू समाचार चैनल टीवी 9 ने एक महत्वपूर्ण वाद विवाद का प्रसारण किया, जिसमें समाचार उद्घोषकों ने तेलंगाना के प्रथम विधानसभा के निर्वाचित विधायकों की तुलना गाँव के छिछोरों से की, जो पहले गाँव में चलचित्र का मज़ा उठाते थे, पर आज आधुनिक मल्टीप्लेक्स थिएटरों [माने विधान सभा] में आसान ग्रहण करते हैं। अगर ये तेलंगाना के लोगों, विशेषकर विधायकों पर कीचड़ उछालना नहीं है तो फिर क्या है? असल में व्यवस्थापकों का ऐसा अपमानजनक मज़ाक विशेषाधिकार का मुद्दा बन सकता है।
अगले ही दिन केसीआर ने विधानसभा में अपने विचार व्यक्त करते हुये न सिर्फ टीवी 9 के विधायकों पर अपमानजनक टिप्पणियों को सुनाया, बल्कि मीडिया को चेतावनी भी दी, की वो प्राइवेट चैनलों पर लगाम लगाने से भी नहीं हिचकेंगे, जैसे तत्कालीन तमिलनाडू की मुख्यमंत्री जे जयललिता ने अपने राज्य में किया था।
16 जून 2014 को, केसीआर ने टीवी संचालकों को टीवी 9 और एबीएन नामक चैनल का प्रसारण बाधित करने के निर्देश दिये। एक दिन या हफ्ता तो छोड़िए, पूरे चार महीने तक इन दोनों चैनल का प्रसारण रुकवाया गया था, बावजूद इसके की केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावाडेकर ने इस विषय पर राज्य सरकार की जमके फटकार लगाई थी, और निम्नलिखित चैनलों पर लगे प्रतिबंध को भी हटाने का निर्देश दिया था।
टीवी 9 और एबीएन चैनल पर 5 महीने तक प्रतिबंध और निषेध चला था, जो बड़े शांतिपूर्वक रूप से गुजरे, बिना किसी राष्ट्रव्यापी विरोध के, चाहे वो मीडिया संप्रदाय से हों, या एडिटर’स गिल्ड हो, या फिर समाचार प्रसंकरता संगति ही क्यूँ न हो। किसी ने चूँ तक न की। आखिरकार नवम्बर 2014 में जाकर तेलंगाना के केबल संचालकों ने दोनों चैनल के साथ मैत्रीपूर्ण सम्झौता किया, और प्रतिबंध को हटाया।
और बदनाम कौन होते हैं? जिनहोने सिर्फ सीबीआई के बंधे हाथ खोल दिये।
हालांकि भटकाऊ चैनलों ने हर प्रकार के अपराध किए थे, मसलन विश्वासघात करना, झूठे आरोप लगाना, क्षेत्रवाद और नसलवाद इत्यादि, पर यहाँ जो मायने रखता है, वो है केसीआर का प्रेस की स्वतन्त्रता पर कड़ी कारवाई और बाकी मीडिया की शर्मनाक चुप्पी। न कोई राष्ट्रव्यापी विरोध हुआ, न कोई हस्ताक्षर अभियान चला केसीआर के विरुद्ध, और न ही कोई बुद्धिमान बिरादरी द्वारा इस मसले पे कड़ी निंदा की गयी। पर केसीआर के प्रतिद्वंदी भी कम नहीं है।
आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री, नारा चंद्रबाबू नायडू ने भी अपने दिनों में तानाशाही का प्रचुर इस्तेमाल किया, नमक मिर्च लगा के। जगन मोहन रेड्डी के साक्षी टीवी को अपने पत्रकार सम्मेलन में महज घुसने से प्रतिबंध लगा दिया था।
पर केसीआर के मुक़ाबले, नरेंद्र मोदी ने रणनीतिक ज्ञान को बरकरार भी रखा है, और दुनिया को उन्हे तानाशाह की उपाधि से सम्मानित करने का अवसर भी नहीं दिया। ऐसा इसलिए, क्योंकि नरेंद्र मोदी ने ना तो एनडीटीवी का मुंह बंद करने के कोई निर्देश दिये, और ना ही उन्हे काबू में रखने के लिए छल प्रपंच का सहारा लिया। अगर एनडीटीवी पे सीबीआई रेड पड़ी थी, तो यह सिर्फ एनडीटीवी के प्रमुख प्रणय रॉय के वित्तीय कुप्रबंधन का पर्दाफाश करने के लिए थी। आज़ाद लेखन को बंद करने या स्वतंत्र समाचार का प्रसारण रुकवाने की कोई मंशा नहीं थी सरकार की। न कम, ना ज़्यादा।
अरुण शौरी अब महज हंसी का पात्र बन कर रह गए हैं।
कभी देश के दुश्मनों को अपनी बुद्धि के कौशल से चित्त करने वाले श्री शौरी आज उन्ही दुश्मनों की पैरवी करते दिखे, तो दुख के बजाए अरविंद केजरीवाल की वर्तमान स्थिति की तरह हास्यास्पद ज़्यादा लगता है। शायद इसीलिए ग़ालिब ने फरमाया था:-
“उम्र भर ग़ालिब यही भूल करता रहा,
धूल चेहरे पे थी, और आईना साफ करता रहा!’