इस शुक्रवार, जमात उल विदा के अवसर पर राष्ट्रपति द्वारा आयोजित इफ्तार पार्टी में अनुपस्थित रहकर नरेंद्र मोदी लगातार तीसरे साल इस इफ्तार पार्टी में अनुपस्थित रहे हैं। पर इस साल, नज़ारा कुछ और ही था, क्योंकि इस बार प्रधानमंत्री तो छोड़िए, कैबिनेट का एक भी सदस्य इस पार्टी का हिस्सा नहीं था। निस्संदेह इसका उद्देश्य साफ है, भारत के राजनैतिक क्षेत्रों में जो इफ्तार पार्टियों ने एक अनुचित प्रतीक रखा है, उसमें न तो नरेंद्र मोदी और न ही उनकी सरकार की कोई आस्था, और वो प्रतीक है छद्म धर्मनिरपेक्षता का, या जैसे अंग्रेज़ी में कहा जाता है, स्यूडो सेक्युलरिज़्म।
भारत में इफ्तार भोजों का इतिहास :-
प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इन राजनैतिक इफ्तार पार्टियों की आधारशिला स्थापित की थी, जब वो अपने प्रिय मित्रों और रिश्तेदारों को इन इफ्तार भोजों में तब 7 जंतर मन्तर रोड पर स्थित अखिल भारतीय काँग्रेस समिति मुख्यालय पर आमंत्रित करते थे, और ठीक उसी वक़्त, जब उक्त मुस्लिम समुदाय के रोज़े खोलने का वक़्त होता था।
पर असल राजनैतिक इफ्तार की शुरुआत 1970 में हुई, और इसके प्रणेता थे तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, श्री हेमवती नन्दन बहुगुणा, जिनहोने इफ्तार पार्टी में राज्य प्रयोजन को शामिल किया। तब शिया और सुन्नियों के बीच लखनऊ में आगजनी और दंगे व्याप्त थे, और शांति संधि के तहत बहुगुणा जी शिया नेता अशरफ हुसैन को अपने बंगले पर खाने के लिए बुलवाए। हुसैन ने इसलिए आने से मना कर दिया, क्योंकि वे रोज़े पर थे। ऐसे मे बहुगुणा ने हुसैन को अपने साथ रोज़े तोड़ने की अपील की, जिसे हुसैन ने स्वीकारा।
इसी घटना ने भारत के राजनैतिक इफ्तार भोजों की नींव रखी। इस सिद्धान्त में इन्दिरा गांधी और उनके सलाहकारों ने काफी उम्मीद देखि, और इसे केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित कर दिल्ली में आयोजित करने लगी। जल्दी ही ये दिल्ली के सामाजिक कैलंडर का एक अभिन्न हिस्सा बन गया, और इस पर आगे बढ़ते हुये इस खास समुदाय का वोट साधने के लिए भविष्य में राजीव गांधी जैसे प्रधानमंत्री और छुटभैये पार्टियों ने जो कुछ भी किया, कम था। क्यों था, ये बाद के लिए।
जब बीजेपी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबंधन [राजग] 1998 में सत्ता में किसी तरह एक ढीली सी गठबंधन के बल पर आई, तो ऐसा लगा की इस आडंबर का अंत सुनिश्चित है। पर आश्चर्यजनक रूप से अटल बिहारी वाजपयी ने इस प्रथा का सम्मान किया। इससे पहले की इनके स्वास्थ्य ने इन्हे राजनीति से निर्वृत्ति पे मजबूर किया, इनहोने सत्ता से बाहर होने के एक साल बाद भी इफ्तार पार्टी का आयोजन किया।
इतने सालों में इतना पैसा बहाने पर भी किसी ने ये प्रश्न सरकार से पूछने की हिम्मत नहीं की, जिससे जानने का अधिकार इस देश के हर नागरिक को है?
- सरकार सिर्फ एक समुदाय के धार्मिक त्योहार मनाकर क्या संदेश देना चाहती है? भारत एक पंथनिरपेक्ष देश है, और हर धर्म को समान दृष्टि से भारतीय संविधान के अनुसार तवज्जो दी जानी चाहिए। तो सरकार सिर्फ एक धर्म के समुदाय की क्यों खुशामद करती है, बाकियों की क्यों नहीं? आखिर क्या कारण है की राष्ट्रपति सिर्फ इफ्तार के लिए भोज कराते हैं, और दिवाली या होली या गुरूपर्व या क्रिसमस पर क्यों नहीं? क्या उनका समुदाय समुदाय नहीं है?
- इन शाही भोजों से किसे फायदा हो रहा है? इन भोजों में बड़े बड़े राजनेता, सेलेब्रिटी और मीडिया के व्यक्ति उपस्थिती दर्ज़ करते हैं। इनसे आम मुसलमान नागरिकों को किस प्रकार का फायदा पहुंचता है, कोई इस बिरादरी से बताने का कष्ट करेगा?
- व्रत के महीने में भोज क्यूँ?– रमादान के आत्मा के विरुद्ध प्रतीत होती है इफ्तार भोज।
भाई, इफ्तार कोई पार्टी टाइम नहीं है, या राजनैतिक गठबंधनों को बनाने या तोड़ने का समय नहीं है। ये समय है आत्ममंथन करने का, दो प्रार्थनाओं के बीच के समय में ऐसा आत्ममंथन करने का रोज़ेदारों के पास एक सुनहरा मौका। ये वक़्त होता है माफी मांगने का, अपने उन गुनाहों के लिए, जिनका प्रायश्चित नहीं किया गया है।
अब अगर यह सही है, तो फिर साल दर साल इतना पैसा इफ्तार भोजों पे बहाने का क्या तुक बनता है?
इन सवालों का जवाब भले ही अभी तक किसी ने न दिया हो, पर नरेंद्र मोदी की सरकार ने सौभाग्य से इस रूढ़िवादी प्रथा पर लगाम लगाई है। इससे भले ही विपक्ष का अल्पसंख्यक प्रेम न बंद हो, पर शासन से मजहब [धर्म नही] को अलग करने की दिशा में एक सार्थक और निडर कदम उठाया है मोदी सरकार ने।