कई क्षेत्रों में काँग्रेस पार्टी को मुग़लों और अंग्रेजों के बाद तीसरे बड़े कब्ज़ेदार के तौर पर देखा जा रहा है। ठीक है, उनका शासन एक लगभग लोकतान्त्रिक प्रणाली में पला बढ़ा जो लगभग 60 सालों तक कभी चला, तो कभी नहीं, पर नेहरू गांधी परिवार की सरकारी मशीनरी पर दशकों तक जकड़, जिसके जरिये वे हर क्षेत्र में एक गलत और राजनैतिक रूप से सुविधाजनक वर्णन हमारे मस्तिष्कों में ठूंस रहे थे, हमारे लोकतन्त्र को एक वाहियाद मज़ाक के तौर पर अवश्य स्थापित कर गया। अपने विषैले एजेंडा का इस तरह सूक्ष्म प्रचार करने की इनकी तकनीक सिर्फ सरकारी पुस्तकों और राजनैतिक रूप से संचालित मास मीडिया तक ही सीमित नहीं थी, ये तो लोकप्रिय संस्कृति में भी सेंध डालकर रचनात्मक क्षेत्र में अपने जीहुजूरों की एक खतरनाक फौज तैयार करा रही थी।
शायद यही कारण है की मधुर भंडारकर की फिल्म इन्दु सरकार के प्रदर्शन में अभी एक महीने से ज़्यादा है, परंतु इसने जो खलबली मचा के रखी है, उससे काँग्रेस हाइकमान के पसीने ज़रूर छूट रहे हैं। एक नई सरकार के आने के तीन साल बाद भारत का फिल्म उद्योग आखिरकार गुलामी की बेड़ियाँ काटने को आतुर है, और उन विषयों को टटोलता है, जो कल तक वर्जित थे। मुख्य सिनेमा में राजनैतिक इतिहास का चित्रण सीमित और काफी हद तक बताए गए विचारधारा को ही नमन करने वाला था।
यकीन न हो तो ‘राँझना’ देखिये, ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ या फिर ‘हज़ार चौरासी की माँ’ जैसी फिल्में देखिये, जहां पर वामपंथ की जमके प्रशंसा की गई है, मानो इनसे पवित्र सोच किसी और विचारधारा की है ही नहीं। हर क्रांति की तरह इस क्रांति का भी व्यापक असर पड़ा है। जो इन विषैली सोच की जकड़नों से मुक्त होना चाहते हैं, वो इस फिल्म का पुरजोर समर्थन करते हैं, पर जो इन्दु सरकार के सटीक संवाद की तरह ही ‘माँ बेटे की गुलामी’ करना चाहते हैं, वो इसके खिलाफ सामने आए हैं।
काँग्रेस के प्रवक्ता एवं ग्वालियर के राजघराने से आने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया ने हाल ही में एक बयान दिया है इन्दु सरकार के विषय में:- काँग्रेस मधुर भंडारकर के फिल्म में गलत चित्रण का पुरजोर खंडन करती है। ये फिल्म पूरी तरह से प्रायोजित है। जो संगठन और जो व्यक्ति इसके पीछे हैं, हम उन्हे जानते हैं। हम इस फिल्म में गलत चित्रण की कड़ी निंदा करते हैं!’
इन्दु सरकार पर गलत ताकतों द्वारा प्रायोजित करने का आरोप सरासर निराधार है। सिर्फ लगभग तीन मिनट के ट्रेलर से ही इन्हे फिल्म के इरादे और गलत चित्रण का अगर ज्ञान हो जाये, तो फिर तो इस पार्टी का भगवान ही मालिक है। पर रुको, यही तो दोगलापन है, जो यह लोग हमारे पाकिस्तानी कलाकारों को निष्कासित करने के मुद्दे पर हमें बाँचते हैं, की किसी किताब को उसके आवरण से नहीं तोलना चाहिए, है न? अच्छा चलो मान लिया की ट्रेलर में आपातकाल का गलत चित्रण किया जा रहा है, तो सही चित्रण क्या होता? ज़रा ये लोग बताने का कष्ट भी कर दें।
इससे एक ज़्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है : क्या काँग्रेस पार्टी को इस बात पर यकीन भी है की आपातकाल स्वतन्त्रता के पश्चात भारतीय इतिहास का सबसे काला अध्याय था, या उनके लिए इस दौर में बागों में बहार थी?
किसी और देश के इतिहास में ऐसे काल का सटीक चित्रण हुआ हो, यह थोड़ा सा कठिन रहा है, क्योंकि मुख्य सिनेमा में ऐसी कोशिश कभी नहीं की गयी थी। कॉंग्रेस पार्टी ने हमेशा ही असहिष्णुता, फासीवाद और तानाशाही के बारे में लंबे चौड़े बयान हाँके हैं, पर उनकी ये कोरी दलीलें तभी सार्थक होंगी, जब आपातकाल को जनमानस के मस्तिष्क से हमेशा के लिए हटा दिये, जो असंभव है। जब तक यह दौर की छाया रहेगी, तब तक इनकी कोई भी दलील की यह मुगलों और अंग्रेजों से बेहतर थे, सफ़ेद झूठ साबित होंगी। इनके उदारवाद और सामाजिक न्याय के ध्वजवाहक होने की मंशाएँ ऐसे ही मिट्टी में मिलती रहेंगी। क्योंकि ढोंग की भी एक सीमा होती है, जिसके बाद तो कोई भी आप पर विश्वास नहीं कर पाएगा।
यह एक कारण है की क्यों एक 21 महीने का दौर, जहां पर प्रधानमंत्री निर्विरोध शासन कर सकती थी और नागरिक स्वतन्त्रता इनके ठेंगे पर रक्खा जाता, जहां प्रेस का मुंह ज़बरदस्ती बंद किया गया था और राजनैतिक विरोधियों को जेलों में ठूँसा जाता, जहां मानवाधिकार उल्लंघन चरम पे था और ज़बरदस्ती नसबंदियाँ कराई जाती, को हमारे इतिहास की किताबों में ज़रा भी जगह नहीं दी गयी है। यही एक कारण है की इस पार्टी और इसके चमचों ने कभी इस विषय पर एक फिल्म नहीं बनने दी, और मरते दम तक इस सच्चाई को चित्रित करने का विरोध करेंगे।
जो यह पार्टी नहीं जानती है, वो यह की उनका विरोध उन्ही को ले डूबेगा, और शोबिज़ का शाश्वत सत्य, की हर तरह का प्रचार अच्छा प्रचार है, उन्ही को काटने को दौड़ रहा है। और तो और, खुद निर्देशक मधुर भंडारकर ने इनकी दलीलों की खिल्ली उड़ाते हुए कहा, की इन्दु सरकार की पटकथा में 70% कहानी काल्पनिक है, जिससे काँग्रेस पार्टी की कोरी दलीलें हंसी का पात्र बन कर रह जाएगी।
आपातकाल आज से 42 साल पहले हुआ था। क्योंकि भारत की आबादी का लगभग 65% 35 साल से भी कम, सो देश की वयोवृद्ध जनता को ही इस दौर की भयावहता पता होगी। क्योंकि युवा पीढ़ियों ने सिर्फ काँग्रेस का गुणगान पढ़ा और समझा है, इसलिए सच की एक झलक भी स्वागत योग्य है। सीखें उन आतताइयों के बारे में, जिनहोने हम पर हुकुम चलाया और बेहिसाब ज़ुल्म ढाये, और कैसे उन्होने इसे छुपाने की काला में महारत हासिल की।