दीक्षांत समारोह के लिए विदेशी चोगा फेंक, भारतीय पारंपरिक परिधान में सजे इन विद्यार्थियों की छवि देखते ही बनती है

‘आईआईटी कानपुर लायी अपने दीक्षांत समारोह के परिधान में क्रांति!’

‘आईआईआईटी हैदराबाद ने दीक्षांत के लिए धारण किए कुर्ता और अंगवस्त्रम’

‘एमपी के विषविद्यालयों में देसी परिधान लेंगे विदेशी गाउन की जगह!’

सबको जोड़ती हुई बिन्दु को ध्यान से देखिये। सभी ग़ुलामी की एक और बेड़ी ध्वस्त करने को आतुर है, जो कभी हमारे शैक्षिक क्षेत्रों में व्याप्त थी। जी हाँ, आपने बिलकुल सही समझा, हम विक्टोरियान क्लोक्स और गाउन अलग हटाकर देसी परिधान को दीक्षांत समारोहों के लिए गले लगाने को तैयार खड़े हैं!

एक बड़ा लोकप्रिय चुटकुला है, ‘अंग्रेज़ चले गए पर……..’ कुछ अभिशाप जो अंग्रेज़ यहाँ छोड़ कर गए है, जिनमें मीडिया के अँग्रेज़ीदाँ चापलूस तो है ही, पर दीक्षांत समारोह का यह क्लोक और गाउन की परंपरा भी यह छोड़ गए हैं, जिसे अंग्रेजों को प्रेम सहित वापिस ले जाना चाहिए था। पर नहीं, पहले के कुछ भारतियों की तरह, जो जर्मनों की तरह अपने राष्ट्रीय पहचान से कतराते थे, को किसी भी विदेशी वस्तु से आलिंगन की आदत पड़ गयी थी, चाहे वो कितनी ही खराब या अपमानजनक क्यों न हो।

और रही बात इन चोगों की, तो यह अपनी मुसीबत अपने साथ लेके चलते हैं। ऐसे समारोह अधिकांश वक़्त पे मार्च – जून के बीच में चलते रहते हैं, जब लगभग पूरा भारत गर्मी में उबल रहा होता है। ऐसे माहौल में गर्मी नहीं लगेगी इस चोगे में? एक आरामदायक देसी परिधान क्या इसकी जगह नहीं ले सकती?

सच बोलूँ तो जिन संस्थाओं के विद्यार्थियों की बात मैंने की है, ये पहले नहीं जिनहोने इस चोगे के बोझे को अपने सिर से हटाया हो। बनारस हिन्दू विषविद्यालय के पवित्र संस्थान के स्नातक तो दशकों से चोगे की जगह पगड़ी और अंगवस्त्रम पहनते आए हैं। यहाँ तक की मेरा विषविद्यालय, छत्रपति शाहू जी महाराज विषविद्यालय, कानपुर, जहां मैं पढ़ता हूँ, वहाँ पर विक्टोरियन चोगा अवश्यंभावी नहीं है। हालांकि विश्वविद्यालय के प्रतिबिंब सहित अंगवस्त्रम ज़रूरी हैं।

इसके अलावा कुछ राजनेताओं ने भी इस मुहिम में अपना योगदान देने का प्रयास किया था, हालांकि परिणाम निरर्थक निकला। आश्चर्यजनक रूप से पहले पैरवी महान काँग्रेसी चापलूस जयराम रमेश जी ने की थी, जिनहोने लगभग सात साल पहले एक ऐसे ही समारोह में अंग्रेज़ी गाउन उतार कर फेंक दिया था और इसके भारतीय विकल्प के लिए भी आवाज़ उठाई थी।

7 साल के बाद, ऐसा लगता है की भारत के युवा विद्यार्थियों ने ही देसी परिधान की शान और सौन्दर्य को वापस लाने का बीड़ा उठाया है। चाहे वो सिर्फ एक औपचारिक दीक्षांत समारोह के लिए क्यों न हो, पर ये देख कर दिल को बड़ी तसल्ली मिलती है की आईआईटी कानपुर जैसे संस्थान, दीक्षांत समारोह में अंग्रेज़ी चोगे फेंक देसी परिधान को गले लगा रहे हैं। जैसा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है, हर अंग्रेज़ी चीज़ को श्रेष्ठ समझ हर देसी या हिन्दू सभ्यता से संबन्धित वस्तु को हीं समझने की भावना न सिर्फ दिमाग से निकलनी पड़ेगी, बल्कि उसे पनपने का कोई अवसर नहीं मिलेगा। साथ ही साथ अपने देश की संस्कृति और रीतियों को जानने का गौरव पूरे सम्मान के साथ वापस लाना पड़ेगा। भाई जब अमेरिकी अपने अजीबोगरीब परिधानों से लगाव रखते हैं, और जापानी अपने किमोनो/गाउन के लिए दीवाने होते हैं, तो हम लोग अपने देसी कुर्ता और पायजामा/धोती को क्यों वापस नहीं ला सकते, वो भी ऐसे वक़्त पे, जब हम शिक्षा की आदर्शवादी दुनिया से निकलकर असली दुनिया में प्रवेश करते हैं?

पर जैसे होते हैं न कबाब में हड्डी, वैसे कुछ नमूने हैं, जिन्हे ये कदम भी फूटी आँख नहीं सुहाता। अपने आप को माननीय बुद्धिजीवी समझने वाले ये धरती के बोझ हर चीज़ के देसी विकल्पों को ‘भगवाकरन’ और ‘देश के नैतिक और धर्मनिरपेक्ष कपड़ों को चीर फाड़ने’ के चश्मे से देखते आए हैं। यकीन नहीं होता, तो ये 2 साल पुराना स्क्रोल.इन का पोस्ट देखिये, जो इस बदलाव की संभावना पर आधारित है:-

https://scroll.in/article/758707/is-replacing-colonial-convocation-robes-with-indian-attire-yet-another-case-of-saffronisation

[कुछ लोग कभी नहीं सुधरेंगे, है न?]

सौ की सीधी एक बात, दीक्षांत समारोह के लिए परिधान में आए इस क्रांतिकारी बदलाव का न सिर्फ स्वागत करना चाहिए, बल्कि यह भारतीय शिक्षण में एक नए सूर्योदय का संकेत दिखाता है। इतना ही नहीं, ये एक छोटा, पर सधा कदम है एक पुनर्निर्मित, रचनात्मक और क्रांतिकारी भारत का, जो अपने संस्कृति को सही मायनों में गले लगाने से कतई नहीं हिचकता।

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