कर्नाटक विधान सभा की विशेषाधिकार समिति ने एक प्रस्ताव पारित करवा कर दो कन्नड़ पत्रकार/संपादक – ‘हाय बंगलौर’ के रवि बेलागेरे और ‘येलहंका वॉइस’ के अनिल राजू को एक साल कारावास और 10000 रुपये के जुर्माने की सज़ा सुनाई, क्योंकि इन दोनों ने सरकार के खिलाफ ‘आपत्तिजनक’ लेख प्रकाशित किए। ये निर्णय कर्नाटक विधान सभा के सचिव, श्री के. बी. कोलिवाड़ ने लिया।
जब कोलिवाड़ ने बेलागेरे के विरुद्ध शिकायत दर्ज़ कराई, तो कर्नाटक विधान सभा के पूर्व सचिव कागोडू ठिम्मप्पा ने इस मसले को समिति के सामने उठाया।
गौर कीजिये, जब अपने ही विधायकों की रक्षा करने की बात आई, तो बी. एम. नागराजु और एस. आर. विश्वनाथ ने हाथ मिलते इस मुद्दे को कर्नाटक विधान सभा में मिलकर उठाया, और कथित पत्रकारों के विरुद्ध कारवाई की मांग की। नगराजु ने यहाँ तक कहा की बेलागेरे ने जानबूझकर जांच समिति के सामने पेशी से मना कर दिया।
भारत के एडिटर्स गिल्ड ने इस घटना की त्वरित निंदा की। इसके उपलक्ष्य में एक बयान निकालते हुये इस गिल्ड ने कर्नाटक विधान सभा के प्रस्ताव की निंदा करते हुये कहा की यह भारतीय संविधान के तहत मिली अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कायराना हमला है, जिसे गिल्ड ने कर्नाटक विधान सभा से बिना देर किए हटाने की दरख्वास्त भी की है। गिल्ड ने यह भी कहा, ‘एडिटर्स’ गिल्ड ऑफ इंडिया इस बात से पूरी तरह सहमत की पत्रकारों को आलोचनात्मक लेख लिखने की पूरी स्वतन्त्रता होनी चाहिए, चाहे वो देश के किसी भी निर्वाचित प्रतिनिधि पे हो, और उन्हे बिना किसी संकोच और डर के उनके कर्मों के लिए उन्हे जिम्मेदार ठहराया जा सके।”
पीड़ित, अभियोगी और न्यायाधीश:-
ये बड़ा पेचीदा मामला, जब पीड़ित, अभियोगी और न्यायाधीश तीनों एक ही हों, और वो है कर्नाटक विधान सभा के सचिव और काँग्रेस विधायक, रन्नेबेन्नूर से के.बी. कोलिवाड़। ऐसा सालों में पहली बार हुआ है की पीड़ित ने मुकदमा दायर किया, खुद ही केस लड़ा और खुद ही इस केस में निर्णय भी दे दिया। इतना ढोंग तो सिर्फ अंग्रेजों ने किया था, जब बिन सबूत, बिन उचित गवाह, लाहौर षड्यंत्र केस में हमारे क्रांतिकारी भाइयों : भगत सिंह, सुखदेव थापर और शिवराम हरी राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई थी।
मशहूर ब्लॉग चुरमुरी ने काँग्रेस सरकार पर तीखा हमला बोला है। सरकार द्वारा सरेआम प्रेस की आवाज़ दबाने की कवायद को इनहोने ये संज्ञा दी:- ” ‘समाजवादी’ सिद्धरमईय्या के दिशा निर्देश में मीडिया के साथ विधायिका और कार्यकारियों का संबंध रसातल में पहुँच गया है, जिसमें लोकतन्त्र का वो महान स्तम्भ, न्यायपालिका, एक अहम भूमिका निभा रहा है। “
यहाँ तक की न्यू यॉर्क आधारित सीपीजे [पत्रकार सुरक्षा समिति] ने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कायराना हमले की घोर निंदा की है अपने बयान में, जिसमें इनके एशिया प्रोग्राम संयोजक ने इस निर्णय को हास्यास्पद करार देते हुये कहा की –
‘यह हास्यास्पद है की एक राजनेता का मज़ाक उड़ाने के लिए एक पत्रकार को जेल जाना पड़ रहा है।”
अगर इस केस के संबंध में बात की जाये, तो इन सवालों का जवाब उन सब को देना पड़ेगा, जो अभिव्यक्ति की असली स्वतन्त्रता और स्वतंत्र समाचार की पैरवी करते हैं:-
- एक विधान सभा को एक पत्रकार के एक राजनेता का मज़ाक उड़ाने का मसला सदन में क्यूँ उठाना पड़ रहा है? क्या सरकार ने इस कार्य का ठेका ले रखा है? अगर पत्रकार ने वाकई बिना किसी सबूत के उक्त राजनेता की बेइज्जती की, तो क्या वो व्यतिगत रूप से मानहानि का केस नहीं दायर कर सकता? अरुण जेटली को भूल गए क्या?
- क्या हम ये मान ले की विधायक इस बात से अंजान थे की रवि बेलागेरे के विशेषाधिकार समिति के समक्ष अनुपस्थिति के इस कारण से अंजान थे की वे कुछ समय से अस्वस्थ चल रहे थे?
- एक विशेषाधिकार समिति को एक मानहानि के कथित एक्ट, जिसे करने वाला व्यक्ति उस विधान सभा का सदस्य भी न हो, के पीछे फैसला सुनाने का क्या मौलिक या वैधानिक अधिकार है?
- क्या विशेषाधिकार समिति को सदन के बाहर हुये कृत्य पर कारवाई करने का कोई अधिकार भी है?
- मीडिया जांच से ऊपर नहीं है, और अगर वाकई में दोषी है, तो उन पर कानूनी तरीके से कठोर कारवाई करनी चाहिए, पर वो कानूनी कारवाई ही क्या, जहां पीड़ित, अधिवक्ता और न्यायाधीश एक ही आदमी हो?
- हो सकता है की रवि बेलागेरे जैसा आदमी सबको पसंद न आए, जैसे उनके बेबाक बोल, खून खौलने वाली भाषा से जगजाहिर है, पर इस मसले में क्या हम बेलागेरे नाम के मनुष्य और संपादक में अंतर नहीं समझ सकते?
- क्या एक विधानसभा के सचिव को पत्रकारों की गिरफ्तारी देने के आदेश हैं, यदि वे ‘समर्पण’ न कर पाये तो? उनको कैसे ओर किसने ये अधिकार दिया है पुलिस विभाग को ऐसे निर्देश देने का?
- और आखिर में, सिर्फ समिति के सामने न आने के लिए एक वर्ष के कारावास का क्या औचित्य है?
समय आ गया है की लोग उसके लिए खड़े हों, जो सही है, और चंद नेताओं, जिन्होंने अपने आप को कानून समझा हुआ है, उनसे डरना बंद करें। अगर थोड़ी बहुत भी गैरत बाकी है, तो सिद्धरमय्या को अविलंब इस फैसले को वापस लेना चाहिए, वरना बाद में जनता इन्हे क्या सज़ा देगी, ये तो भगवान ही जाने।