हाल ही में, खबर आई थी कि बेंगलुरु की ‘ नम्मा मेट्रो ’ में कथित रूप से हिंदी थोपी जा रही है और कन्नड़ का अपमान हो रहा है, जिस से बेंगलुरु निवासी ख़फा हैं. इसके पीछे की वजह यह है कि मेट्रो में सूचना-चिन्हों में हिंदी का समावेश किया गया है. कुछ महीनों पूर्व, तमिलनाडु में राजमार्ग के मार्ग-चिन्हों में हिंदी के समावेश पर भी कुछ नेताओं ने आप्पति जताई थी. पर क्या इन प्रायः उछाले जाने वाले आक्षेपों में कोई तथ्य भी है (कुछ को तो २००० के नए नोटों की बनावट में भी हिंदी को थोपने का प्रयास दिखा था)? उत्तर है – नहीं.
अगर सोशल मिडिया पे जंगल में आग की तरह फ़ैल रहे उन सूचना-चिन्हों को गौर से देखा जाए, तो आप पाएंगे कि कन्नड़ हर एक चिन्ह में मौजूद है. हर सूचना चिन्ह तीन भाषाओँ में है- हिंदी, अंग्रेजी एवं कन्नड़. तो, यदि कन्नड़ किसी चिन्ह से गायब ही नहीं है तो कहाँ से आई कन्नड के अपमान या हिंदी के थोपे जाने की बात?
यह मैं पहले ही स्पष्ट कर दूं, कि मैं प्रांतीय भाषाओँ का सम्मान किए जाने का पूर्णतः पक्षधर हूँ.
यदि उन चिन्हों से कन्नड़ गायब होती, तो मैं भी विरोध कर रहे लोगों से साहनुभूति रखता और कन्नड़ के समावेश की माँग का समर्थन करता. ऐसा ही कुछ ५-६ वर्षों पूर्व मुंबई में हुआ था जब राज ठाकरे ने दुकानों के नामों से मराठी के गायब होने पर आप्पति जताते हुए यह माँग की थी कि हर दुकान के नाम को मराठी में भी लिखा जाना चाहिए.
पर, जब कन्नड़ पहले से ही समाविष्ट है, तो विरोध करने वाले की बातों में आग कम और धुआं ज्यादा नज़र आता है.
जब आप अंग्रेजी जैसी एक विदेशी भाषा को स्वीकार करने को तैयार हैं, तो एक दूसरी भारतीय भाषा (यानि कि हिंदी) की नम्मा मेट्रो में मौजूदगी आपको क्यों इतनी खल रही है?
इस मसले को कानूनी दृष्टि से भी जाँचते हैं. बेंगलुरु मेट्रो रेल कार्पोरेशन, भारत सरकार और कर्णाटक सरकार का एक संयुक्त साहस है. भारत के संविधान के अनुसार, हिंदी एवं अंग्रेजी संघ की दो अधिकृत भाषाएँ हैं. पहले तो अंग्रेजी को केवल १५ वर्षों तक रहना था, पर १९६५ के गैर हिंदी राज्यों द्वारा हिंसक विरोध के पश्चात, अधिकृत भाषा धारा १९६३ के तहत अंग्रेजी को १५ वर्षों की समाप्ति के पश्चात भी उपयोग में लेने की छूट दे दी गई. तो कानूनन दृष्टि से, जितना अधिकार अंग्रेजी को है, उतना ही हिंदी को भी है उन सूचना-चिन्हों पर होने का.
व्यवहारिक नज़रिए से भी, ऐसे विरोध निरर्थक ही हैं. मुंबई में हर सूचना-चिन्ह तीन भाषाओँ में होता है- मराठी, हिंदी और अंग्रेजी, दिल्ली में तो चार भाषाएँ पाई जाती हैं- हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी और उर्दू. बेंगलुरु भी एक ऐसा बड़ा शहर है जहाँ भारत के हर हिस्से से आए हुए लोग बसे हुए हैं. तो मेट्रो में हिंदी के उपयोग से इतनी आपत्ति क्यों है?
प्रांतीय भाषाओँ का सम्मान तो अत्यंत आवश्यक है ही, क्यों कि भारत अकेला ऐसा राष्ट्र है जिसकी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है, २२ मान्य और सैकड़ों दूसरी बोलियाँ और भाषाएँ यहाँ उपयुक्त हैं. न तो मैं किसी प्रांतीय भाषा के अपमान का हिमायती हूँ, न तो मैं अंग्रेजी के निषेध का पक्षधर हूँ. आज के वैश्वीकरण के युग में अंग्रेज़ी पर अच्छी पकड़ तो वरदानस्वरूप है. मैं तो यह भी चाहता हूँ कि हर भारतीय अपनी मातृभाषा को पढने और लिखने में सक्षम हो जिस के माध्यम से साहित्य के उस भंडार का जतन हो सके जो इन भाषाओँ में है.
इस लेख के माध्यम से मैं केवल इतना कहना चाहता हूँ, कि जहाँ कोई विवाद है ही नहीं, वहाँ कुछ स्थापित हितों द्वारा नया विवाद खड़ा न किया जाए. व्यक्तिगत तौर पर मेरा मंतव्य किसी एक भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने के पक्ष में है, पर फिलहाल हालात इसके प्रतिकूल हैं. आवश्यकता है कि सभी के साथ लम्बी चर्चा-विचारणा कर के, सर्वसम्मति इस तरफ कदम बढाए जाएं.