भारत में पत्रकारिता को ‘माफिया’ संस्कृति में ढालने वाले, वामपंथी विचारधारा के उद्देश्यों को खबरों के आवरण से ढक कर परोसने वाले, वामपंथियों की संस्थानों से निकले, राष्ट्रीयता की विछिप्त व्याख्या करते निर्लज्ज मस्तिष्कों को बुद्धिजीवी पत्रकार बनाने वाले और चर्च की आस्था की आंधी में गांधी परिवार के स्वंयम्भू बने गुलाम, एनडीटीवी के सह प्रमोटर प्रनोय रॉय के समर्थन में, प्रेस क्लब में अरुण शौरी का आना और उनपर सीबीआई के छापे को प्रेस की आज़ादी पर खतरा बताना एक महान पत्रकार और राष्ट्रवादी विचारधारा के विचारक की मानसिक अवसाद में हुयी मृत्यु है।
जिस अरुण शौरी को मैं 1976 से जानता था, वह कुंठा से बीमार तो 26 मई 2014 को ही हो गये थे लेकिन 3 वर्ष से ईर्ष्या और अप्रसंगिकता के सत्य को स्वीकार न करने से, मानसिक अवसाद में मृत्यु कल 9 जून 2017 को हुयी है।
अरुण शौरी का 1976 से 2017 तक का सफर वानप्रस्थ में आसक्ति में भटके हुये ऋषि का सफर है।
आज जब मैं अपने आपको 40 वर्ष पूर्व के जीवन मे खड़ा पाता हूँ तब अरुण शौरी की यह भयानक वैचारिक मृत्यु बड़ी दयनीय लगती है। एक वह जमाना था जब पोस्ट इमरजेंसी, 1977 के बाद भारत की पत्रकारिता में एक नयी चेतना, नयी विधा और नये नये सृजन हुये थे। जिनका नये सन्दर्भो में भारत के समाज और राजनीति पर गहरा अमिट प्रभाव भी पड़ा है। 70 के दशक के उत्तरार्ध पत्रकारिता की इस पौधशाला में दो ऐसे नये पौधे थे जिन्होंने आगे चल कर पत्रिकारिता को ही बदल दिया था। उनमें से एक थे, अमेरिका से वर्ल्ड बैंक से लौटे अरुण शौरी, जो इंडियन एक्सप्रेस के सम्पादक बने और दूसरे थे इंग्लैंड में कैम्ब्रिज से पढ़ाई कर लौट एम जे अकबर, जो अमृत बाजार पत्रिका की अंग्रेज़ी साप्ताहिक ‘संडे के सम्पादक बने। पत्रकारिता में जहां भ्र्ष्टाचार को लेकर खोजी पत्रकारिता की शुरुआत का श्रेय अरुण शौरी को है वही राजनैतिक विचारधारा को वार्ता की विधा में नए सोपान देना का श्रेय एम जे अकबर को है। यही वह दो शख्स है जिन्होंने राजनैतिक विचारधारा के विपरीत धुरी पर खड़े हो कर उस जमाने मे मेरे ऐसे वयस्क हो रहे युवाओं को दिशा दी थी।
आज 1970 के दशक से लेकर इन 40 वर्षों में यह दोनों शख्स कहाँ से कहाँ पहुंच गये है!
जिन अरुण शौरी ने इंदिरा गांधी, संजय गांधी और कांग्रेसियों के आपातकाल की घज्जिया उड़ायी थी, जिन्होंने महाराष्ट्र में सीमेंट घोटाले को उजागर कर के कांग्रेस के मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले को इस्तीफा देने को मजबूर किया था, जिन्होंने इंडियन एक्सप्रेस इस लिये छोड़ दिया था क्योंकि मालिक रामनाथ गोयनका से संपादकीय को लेकर मत भेद था, जिन्होंने कांग्रेस में भृष्टाचार व गांधी परिवारवाद के खिलाफ एकाकी मन से लड़ाई लड़ी, जिन्होंने राममंदिर आंदोलन के औचित्य, बाबा साहब अंबेडकर की विचारधारा के खोखलेपन, भारत मे धर्मनिर्पेक्षिता के नाम पर मुस्लिम तुष्टिकरण और वामपंथियों के सांस्कृतिक और शैक्षणिक संघठनो पर कब्जे के विरोध में बेबाकी से लिखा था, वह आज बीजेपी की मोदी जी की सरकार में मंत्री न बनाय जाने खिन्न, कांग्रेसियों, वामपंथियों, समाजवादियों की धर्मनिर्पेक्षिता के प्रचारक और राष्ट्रवादी विचारधारा व हिंदुत्व के विरोधियों के मंच संचालक, प्रनौय रॉय को ईमानदार पत्रिकारिता का चरित्र प्रमाणपत्र दे रहे है।
वही एम जे अकबर ने अपनी यात्रा, कांग्रेस की धर्मनिर्पेक्षिता के तम्बू में शुरू की थी। एक युवा और प्रतिभाशाली पढ़े लिखे मुसलमान के रूप में नेहरू की इस नीति को विचारधारा के स्तर पर भारतीय मुस्लिम समाज मे पहुंचाया था। एम जे अकबर प्रतिभाशाली जरूर थे लेकिन मुस्लिम इंसेक्युरिटी को कांग्रेसी संरक्षण की बाध्यता के हाथों गिरवी थे। इसी का परिणाम था कि जहां वह राजीव गांधी के सलाहकार बने वही शाहबुद्दीन द्वारा, सर्वोच्च न्यायलय द्वारा शाह बानू के हक में दिये फैसले को संसद द्वारा पलट देने की मुहिम को सफल कराने का उन्होंने जघन्य अपराध किया था। एम जे अकबर कभी भी इस अपराध बोध से उभर नही पाये है। इसी का परिणाम है कि उन्होंने आगे के जीवन का एक बड़ा भाग भारत के बंटवारे और मुस्लिम समाज के आज के हालातों के कारणों को समझने और लिखने में निकाला है। इन्होंने नेहरू से लेकर हिन्दू मुस्लिम दंगो, पाकिस्तान व इस्लामिक कट्टरपंथी के प्रभावों पर लिखा है। राष्ट्रवादियों का एक वर्ग अक्सर एम जे अकबर पर यह तंज मारता है कि उन्होंने 2014 में बीजेपी के सदस्य इस लिये बन गये क्योंकि बीजेपी के सितारे चढ़ते हुये और कांग्रेस के सितारे डूबने को जल्दी पढ़ लिया था लेकिन इन लोगो को यह नही मालूम है कि अकबर भले ही राजनैतिक रूप से बीजेपी में 2014 को दिखायी दिये थे लेकिन वह बौद्धिक रूप से राष्ट्रवादी विचारधारा के सम्पर्क में 2000 के दशक के उत्तरार्थ में आगये थे। यह शायद बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि पर्दे के पीछे रहने वाली, आरएसएस और मोदी जी समर्थित सबसे महत्वपूर्ण थिंक टैंक इंडियन फाउंडेशन है, जिसकी स्थापना 2010 में, मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने से 4 वर्ष पूर्व, अजीत डोवाल के पुत्र शौर्य डोवाल ने भारत की राष्ट्रवादी नीतियों की वैश्विक विवेचना और प्रचार के लिये, आरएसएस /बीजेपी के राममाधव के साथ की थी उसमें डायरेक्टर के रूप में, सुरेश प्रभु, जयंत सिन्हा , निर्मल सीतारमण के साथ एम जे अकबर भी इसकी स्थापना से जुड़े हुये है।
आज 2017 में भारत के लिये यह कितना बड़ा विरोधाभास है की गर्व से राष्ट्रवादी हिन्दू कहलाने वाले अरुण शौरी, राष्ट्रवादित्व और हिंदुत्व के मुखर विरोधी प्रन्नौय रॉय के साथ खड़े दिख रहे है वही भारत मे इस्लाम की कट्टरता को लोकतंत्र पर शाह बानू केस में पहली जीत जीत दिलाने वाले एम जे अकबर आरएसएस और मोदी जी की राष्ट्रवादिता के साथ खड़े है।
वैसे मैने कल भारी मन से अरुण शौरी को चंदन की माला चढ़ा दी है।
सूर्य के सम्मान में
कोई मुहावरा…
गढ़ा जाता नही
आप को पढ़ने के बाद
कुछ और पढ़ा जाता नही ।। ? ?