मित्रों, ये तो सर्वविदित है की हिन्दू मंदिर और दर्शनीय स्थल भारत के धर्मनिरपेक्ष मनुष्यों के आँखों के नासूर है। मंदिरों से उनकी संपत्ति लूटने, पंडितों की नियुक्ति में हस्तक्षेप करने, उनके बौद्धिक शक्तियों पर लगाम कसने और मंदिरों को गिराने के अलावा उनपर सारे अत्याचार करने वाले धर्मनिरपेक्ष को अब हिंदुओं से उनके मंदिर का स्वामित्व भी छीनने का हक़ चाहिए। अल्पसंख्यकों के सुरसा के मुंह जैसे बढ़ती मांगों को प्रसन्न करने और अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए बलि सिर्फ और सिर्फ हिन्दू धर्म और उसके प्रतिबिंबों की चढ़नी चाहिए, शायद कुछ हद तक बौद्धिक पगोडा और सीख गुरुद्वारों की भी चढ़ जाये।
शायद यही कारण है की ममता बैनर्जी, जो बंगाल में धर्मनिरपेक्षता की मशाल जला कर वोट बैंक राजनीति को देश में अभी तक जीवित रखे हुई हैं, ने प्रसिद्ध तारकेश्वर मंदिर समिति की कमान अपने खासमखास विधायक और कुख्यात इस्लामी कट्टरपंथी फिरहाद हकीम के हाथ में सौंपी है, जिन्हे हिन्दू मंदिरों और तीर्थयात्रा स्थलों के प्रबंधन का न तो कोई ज्ञान है, और न ही इन्हे हिन्दू दर्शन और संस्कृति का कोई ज्ञान। तो फिर इन्हे तारकेश्वर मंदिर समिति के अध्यक्ष के तौर पर कैसे चुना गया?
क्योंकि पश्चिम बंगाल के 10 में से 3 निवासी मुसलमान हैं, जिन्होंने ममता बैनर्जी को सत्ता में बिठाया था और क्योंकि हिन्दू या सनातनी संप्रदाय भिन्न भिन्न प्रकार के जाति और उपजाति में बंटा हुआ है, तो इसलिए एक मुसलमान वोट बैंक आवश्यक है ममता दीदी के सत्ता में बने रहने के लिए
कलकत्ता के पोर्ट विधानसभा क्षेत्र के टीएमसी विधायक अपने इलाके को पाकिस्तानी अखबार ‘डौन’ के पत्रकार को ‘मिनी पाकिस्तान’ के नाम से संबोधित करने के लिए फिरहाद हकीम कुख्यात हैं। इनकी डौन में छपे लेख आप पढ़ लें, तो इनके इस्लामी कट्टरपंथी होने के संदेह के बाकी बादल भी छट जाएंगे। इन्हे देखकर कौन कहेगा की यह तारकेश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार करने वाले महान पंथनिरपेक्ष संत होंगे? फिरहाद ‘बौबी’ हकीम वो बला है जो मुस्लिम औरतों को चहरदीवारी से बाहर देखना ज़रा भी पसंद नहीं करते। ये उर्दूभाषी बिहारी हैं, जिनके पूर्वज बंगाल में आकर बस गए थे। फिरहाद हकीम का क्षेत्र इसलिए भी कुख्यात है क्योंकि वहाँ के नारे और भाषण, बजाए बंगाली के उर्दू में लिखे और बके गए हैं। इतना ही नहीं है, हाकिम साहब नारदा घोटाले में सीबीआई की जांच भी झेल रहे हैं।
शायद इन्ही खूबियों के कारण ममता ने फिरहाद हकीम को तारकेश्वर मंदिर विकास बोर्ड के लिए उचित उम्मीदवार समझा।
जबसे वो सत्ता में आई है, ममता बैनर्जी ने अपने राज्य में सांप्रदायिकता के कढ़ाई को उबालने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। भाई ऐसे तो अपने लाल सलाम वाले वामपंथी भी नहीं थे, पर कम से कम वे हिंदुओं को ताक पर रखकर अल्पसंख्यकों को, खासकर इसलामियों की खुशामद नहीं करते थे। यहाँ तो ममता ने यह सुनिश्चित किया है, की इसलामियों को कोई नुकसान न हो, चाहे उन्हे बहुमत का कोप क्यूँ न झेलना पड़े। डेगंगा से कलियाचक तक, नादिया से धूलागढ़ तक, ममता के नज़रों तले बंगाल को जलाया जा रहा है।
समय समय पर मीडिया में ये खबरें खूब चर्चित रही हैं की पश्चिम बंगाल में धीरे धीरे ही सही, पर इस्लामिकरण का जहर फैलाया जा रहा है। मुल्लों और मौलानाओं ने कुछ इलाकों को ऐसी बपौती बना लिया है, जो शरिया के कानून पर चलते हैं, और हमारे देश का कानून वहाँ नहीं चलता, पर जैसे ममता ने इनकी तरफ नज़र तक नहीं डाली है। बढ़ती असुरक्षा और तनावपूर्ण माहौल से ग्रसित हो यहाँ के मूल बंगाली दूसरे राज्यों में भाग रहे हैं, और सच बताऊँ, तो धर्मनिरपेक्षता की जीती जागती मिसाल बनने [जैसा ममता बैनर्जी दुनिया को दिखाना चाहती हैं] के बजाए बंगाल एक और कश्मीर घाटी बनने की राह पर चल पड़ा है।
तारकेश्वर मंदिर के मुखिया के तौर पर फिरहाद हकीम की नियुक्ति के इस हास्यास्पद निर्णय के पीछे वोट बैंक की खुशामद करने के अलावा कोई और बात नहीं हो सकती। इस मंदिर की भव्यता, इसके भक्तों की ज्योतिर्लिंग के प्रति गहरी आस्था, बंगाली निर्माण शैली के उच्चतम रीतियों के अनुसार बने इस मंदिर को आवश्यकता थी ऐसे मनुष्य की, जो इस मंदिर के गौरव के साथ न्याय कर सके। यह विडम्बना ही है की इसे ममता ने एक छुपे जिहादी के हाथों में सौंप दिया।
ममता के फैसले के विरोधियों को चुप करने के लिए सबसे सड़ा तर्क क्या देते हैं बुद्धिजीवी : एक मुसलमान हिन्दू मंदिर का अध्यक्ष क्यों नहीं हो सकता?
ये कोई संवैधानिक नीति का उल्लंघन तो नहीं करता न? वैसे इस तर्क की काट तो पहले नहीं थी, पर अब है, क्योंकि इस तर्क के अनुसार कलकत्ता के टीपू सुल्तान मस्जिद की कमान प्रवीण तोगड़िया को देनी चाहिए, और फुरफुरा शरीफ की कमान साध्वी प्रज्ञा या विनय कटियार के हाथों में। वैसे भी, पंथनिरपेक्ष होने के लिए राज्य को या तो एकदम नास्तिक होना चाहिए, या फिर सभी धर्म समान रूप से देखे जाएँ। पर ऐसा ममता के राज में मुमकिन है क्या? अब इतना करके भी सुब्रमणियम स्वामी के वैधानिक शास्त्रों से अगर ममता बेदाग बच जाये, तो इसे कुदरत का करिश्मा ही कहा जाएगा।
I have already set up my legal eagle team for Bengal to challenge Mamata's horrible temple appointment. Writ Petition will be filed
— Subramanian Swamy (@Swamy39) June 19, 2017
ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ है, पर इसी तरह कुम्भ मेले की कमान उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री, अखिलेश यादव [जिनका इस्लामिक प्रेम किसी से छुपा नहीं है]ने कट्टरपंथी आज़म खान के हाथ में सौंपी थी, जिससे पूरे राज्य में हँगामा मचा था। वर्तमान यूपी चुनाव में इनका क्या हश्र हुआ, सब जानते हैं। पश्चिम बंगाल भी काफी वर्षों तक इस जहर से बचा हुआ था, पर अब बहुत हो चुका। ममता बैनर्जी को रामधारी सिंह दिनकर के ये कालजयी शब्द कभी नहीं भूलने चाहिए, वरना इनका भी वही हश्र होगा, जो सत्ता के भूखे माँ बेटे की एक जोड़ी का 1977 में हुआ था:-