जब 30 जून को वर्तमान राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने संसद के केन्द्रीय कक्ष के मुख्य मंच से लाल बटन दबाया, और ऐतिहासिक जीएसटी को भारत में पारित करवाया, तब पूर्व प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह की अनुपस्थिति पूरे सभा को खल रही थी। जिसने कथित रूप से भारत को आर्थिक प्रगति की राह पर अपने क्रांतिकारी कदम यानि की वैश्वीकरण के निर्णय को 1991 में आगे बढ़ाया, उसी इंसान ने पार्टी की ग़ुलामी करते हुये इस सुनहरे अवसर का बहिष्कार किया, जो भारत के स्वतंत्र इतिहास का सबसे बड़ा कर सुधार कहा जा सकता है। इस एक कदम से श्री मनमोहन ने न सिर्फ अपनी करिश्माई अर्थशास्त्री की छवि धूमिल की, अपितु अपने आप को एक गंभीर नेता मनवाने से भी इंकार कर दिया।
भारत के पिछले प्रधानमंत्री नेहरू गांधी खानदान की चाटुकारी करने में देश के हित दांव पर लगाने के दोषी है। निम्नलिखित सूची है इनके ऐसी असफलताओं की जो उन्होने एक पूर्व प्रधानमंत्री होने के बावजूद एक राजनैतिक फिसड्डी साबित करता है।
वर्तमान युग के धृतराष्ट्र
एक आर्थिक विशेषज्ञ के तौर पर इनकी तमाम उपलब्धियों के बाद भी इन्हे एक फिसड्डी प्रशासक के तौर पर जाना जाता है। देश के इतिहास की सबसे भ्रष्ट सरकारों में से एक का नेतृत्व किया है इनहोने। जब इनके मंत्री हजारों, लाखों करोड़ रुपयों का घोटाला कर अपनी तिजोरियाँ भरते, तब ये बड़े चैन से अपनी आँखें मूँदे रहते। इनकी भ्रष्टाचार को रोकने में असफलता अब तक की इनकी सबसे बड़ी अपकारों में से एक है, जो इनहोने अपने पद और अपने देश दोनों के साथ किया है।
अपने किताब ‘द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर’ में इनके पूर्व मीडिया सलाहकार श्री संजय बारू ने इनके प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध इनके दोगले व्यवहार का बखूबी बखान किया है:-
सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध डॉ. सिंह का व्यवहार, जो उन्होने सरकार में अपने पूरे कैरियर में बनाए रखा, उससे मुझे लगा की यह खुद शिष्टाचार के उचत्तम विचारों का पालन करते हैं, पर इसे किसी दूसरे व्यक्ति पर नहीं थोपते। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यह खुद पाक साफ थे, और अपने नजदीकी परिवार के सदस्यों में भी ये गुण डालते थे, पर अपने साथियों और मातहतों के पापों को अनदेखा करते थे। साफ सीधी बात, वो अपने मंत्रियों के पापों पर आँखें मूँदे रहते थे।
देश के स्थापित सुरक्षा प्रोटोकॉल तोड़ना
यह एक स्थापित प्रोटोकॉल या रीति है की देश का प्रधानमंत्री सुरक्षा के मामलों में इंटेलिजेंस ब्यूरो और रॉ के मुखियों से मुखातिब होते रहते हैं। ये सीधी संवाद की रेखा देश से जुड़े आंतरिक और बाह्य समस्याओं पर त्वरित उपचार के लिए अहम होता है। संजय बारू की पुस्तक, द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर के अनुसार, मनमोहन सिंह इन दोनों मुखियों को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को सारी खबरें देने का निर्देश दिया। ऐसा करने वाले वे पहले प्रधानमंत्री थे।
ये तो कोई भी पता लगा सकता है की क्यों पीएम साहिब इतने अहम मुलाकातों में बैठने से कतराते थे, जो निहायती अपमानजनक और ऐसे सुरक्षा रीतियों के प्रति इनकी नफरत को दर्शाती है।
परिवार को तरजीह दे पीएमओ के महत्व को नीचा दिखाना
कई बार श्रीमान सिंह साब ने अपने अकल का इस्तेमाल न करते हुये सोनिया गांधी की इच्छाओं को पूरी करना सर्वोपरि समझा, जिसे उनके पद की गरिमा को गहरा नुकसान पहुंचा।
2009 में मनमोहन सिंह ने स्पष्ट कह दिया था उन्हे अपने कैबिनेट में विवादास्पद मंत्री ए राजा को कतई जगह नहीं देनी। पर द्रमुक का समर्थन खोने के डर से सोनिया ने राजा और अन्य मंत्रियों को सिंह साब की इच्छा के विरुद्ध जगह दिलवाई। बाकी जो हुआ, वो इतिहास है। 2011 में जब मोंटेक सिंह अहलुवालिया या सी रंगराजन में से किसी को वित्त मंत्री बनाना चाहते थे, तो उनकी इच्छाओं का एक बार फिर गला घोंट सोनिया ने अपनी सूची जारी की। इनके सोनिया के प्रिय और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के साथ इनका विवाद तो विश्वप्रसिद्ध है। इसके बाद राहुल गांधी ने सबके सामने अपनी ही सरकार की बेइज्जती करते हुये एक विवादास्पद अध्यादेश पर अमल न करने की हिदायत दी, जिसपर खुद सोनिया गांधी की मुहर लगी हुई थी।
एक अर्थशास्त्री के तौर पर भी फिसड्डी साबित होना
सबसे पहले सिंह सरकार ने 2003 में मिल रही दिन दुगनी, रात चौगुनी तरक्की को आगे बढ़ाने और उसे बनाए रखने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए। इन्हे लगा की बढ़ती अर्थव्यवस्था और आर्थिक प्रगति इनका जन्मसिद्ध अधिकार है, जो इनसे कोई नहीं छीन सकता, और खर्चा करने की गलती मोल ले ली, ये सोचते हुये की कर का राजस्व तो आता ही रहेगा, जोकि हुआ ही नहीं। दूसरी चीज़ जो इनहोने नहीं रोकी, वो यह की संकट के पश्चात राजकोष के प्रोत्साहन पर लगाम लगाई जाये, जिसके कारण भारत पर महंगाइ ने तब हमला किया जब उसकी अर्थव्यवस्था खुद ही गोते लगा रही थी। इस अतिरिक्त मांग का व्यापार खाते पर कुछ ऐसा असर पड़ा की भारत को 1990 के काले दिन देखने की नौबत लगभग दोबारा आ गयी थी। और व्यक्तिगत नीतियाँ जैसे पूर्वप्रभावी कर लगाने की नीति ने तो मानो ईमानदार भारतियों के पैरों तले ज़मीन ही खिसका दी थी।
ऐसा कोई ठोस कारण नहीं समझ में आ रहा था की आखिर मनमोहन सिंह एक आर्थिक विशेषज्ञ के तौर पर कैसे फिसड्डी साबित हुये, जबकि ये तो उनके बाएँ हाथ का खेल था।
ऊपर लिखित सभी घटनाओं का एक ही संकेत है, की जिस आदमी ने जीएसटी के उदघाटन समारोह को ठेंगा दिखाया, ये न सोचते हुये की वे एक पूर्व प्रधानमंत्री थे या एक आर्थिक योद्धा थे जिनहोने देश की अर्थव्यवस्था को दिखाई। बल्कि अपने आप को महज एक जीहुज़ूरी करने वाले राजनैतिक सिपाही के तौर पर पेश किया, जो अपने आकाओं की जी हुज़ूरी करने पर आमादा था। श्रीमान मनमोहन सिंह, आप इससे बेहतर हो सकते थे! ये अफसोस हमेशा रहेगा।