आजकल भारतीय राजनीति में मानो भूचाल सा आ गया है। भूचाल इसलिए की जिस तरह के विधवा विलाप और मार के भागो राजनीति का इस्तेमाल 2011 से हम भारतियों को झेलने की आदत पड़ चुकी है, उस आदत का गायब होना अपाच्य प्रतीत होता है। चाहे राष्ट्रपति चुनाव की चर्चा हो, या जीएसटी का ऐतिहासिक रूप में संसद से मध्यरात्रि को पारित होना, या लिंचिस्तान के ढोंगी कथा का प्रचार हो, या बंगाल के दंगों की सुगबुगाहट हो, हर राजनैतिक मुद्दे में आम आदमी पार्टी का मौन उसकी उछल कूद से ज़्यादा खल रहा है।
अरे, आप वैसे मत सोचिए। हम शिकायत थोड़ी न कर रहे हैं, और न ही कोई और कर रहा है। उनके राजनैतिक निरर्थकता के कारण लोगों ने उनसे उम्मीद करना पहले ही छोड़ दिया था, सो इसलिए कोई भी उनपर विशेष ध्यान नहीं दे रहा है। काफी समय पहले ही लोगों को आभास हो गया था की इनकी पकड़ सिर्फ एक केन्द्रीय क्षेत्र, दिल्ली में है, और राष्ट्रीय मंच पर इनकी धमक सिर्फ मुख्य मीडिया के आँखों के तारे होने के कारण ही थी। पर इसके बावजूद, इस पार्टी और इसके मुखिया की चुप्पी न सिर्फ अस्वाभाविक है, बल्कि इसे अध्ययन की भी आवश्यकता है।
2015 में सबकी उम्मीदों को धता बताते हुये आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में 70 में से 67 सीटों पर कब्जा जमाकर भाजपा के 2014 से चल रहे विजय रथ पर लगाम लगाई। क्योंकि इस वक़्त समस्त विपक्ष 2014 के मिले अपने जख्म सहला रहा था , ऐसे में आप को एक ज़ख्मी और कुचली हुई विपक्ष में उम्मीद की एक किरण बताई जा रही थी। उनका खेमा एक था, और समाज के कई हिस्सों में उनकी लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही थी।
पर दो साल बाद, इनमे और बाकी के विपक्ष में कोई विशेष अंतर नहीं दिख रहा है। इनके नेता, अरविंद केजरीवाल , अपने सत्ता के लालच में किसी आम भारतीय राजनेता से ज़्यादा दुश्मन बना चुके हैं। इनके प्रधानमंत्री पर ओछे हमले किसी से नहीं छुपे है, और वित्त मंत्री अरुण जेटली के विरुद्ध इनके आरोपों ने इन्हे कोर्ट के चक्कर लगाने पर विवश कर दिया। इंडिया अगेन्स्ट करप्शन आंदोलन का आज कोई मुश्किल से ऐसा सदस्य होगा जो आज भी केजरीवाल का साथ देता हो। वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण, चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव और कई और सदस्य, जिनहोने इस पार्टी की नींव रखी थी, उन्हे पहले अलग रखा गया, फिर केजरीवाल द्वारा धक्के मार कर निकाला गया। राजौरी गार्डेन में हुये उपचुनाव में न सिर्फ पार्टी बीजेपी से हारी, बल्कि इसी सीट पर जीतने वाले विधायक को अपनी जमानत भी गंवानी पड़ी। ये अगर कुछ नहीं था, तो स्थानीय निकाय चुनावों में भी भाजपा ने सूपड़ा साफ किया। और राज्यों में भी आम आदमी पार्टी अपनी प्रतिष्ठा तक न बचा पायी, विशेषकर पंजाब में, जहां इन्हे जीत का प्रबल दावेदार माना जा रहा था। दिल्ली में कई विधायकों ने तो बगावत कर दी है, और 21 विधायकों पर मुनाफे का पद संभालने के अपराध में सदन से निष्कासन का खतरा भी मंडरा रहा है।
पर ये किसी भी दर्जे में ‘आप’ की चिंताएँ नहीं लगती। जिसने भ्रष्टाचार के विरुद्ध युद्ध का आवाहन करते हुये राजनीति में कदम रखा, आज उसी के दराज से फूट फूट के इनके पापों के जिन्न बाहर आ रहे हैं। फर्जी डिग्री वाले मंत्री, यौन संबंध के बदले दलाली करने वाले मंत्री, और घपले और मनी लोंड़ेरिंग में लिप्त रहने वाले भ्रष्ट मंत्री तो अब इनके लिए आम बात हो चुकी है। काँग्रेस अगर बड़े बड़े घोटालों के लिए कुख्यात है, तो यह किफ़ायती घोटालों के लिए। करदाताओं का करोड़ों का रुपया चाय और समोसे पर ही उड़ाया जा चुका है, और साथ ही साथ देश भर में पोस्टर छापने और एक व्यक्तिगत मानहानि मुकदमा जो मुख्यमंत्री पर दायर किया हुआ है, उसपर। पिछले दो सालों में इनके हाथ घंटा कुछ लगा है और लगता है की पीएम पर लगातार हमले की इनकी नीति को करारा झटका लगा है।
ऐसे कई संभव कारण है जो केजरीवाल और उनकी उछलती फुदकती पार्टी को मौन होने पर विवश कर चुकी है।
सर्वप्रथम तो पूरी तरह राजनैतिक है। जब घोटाले सामने आने लगे, तो भ्रष्टाचार विरोधी की छवि आम आदमी पार्टी से दूर भागने लगी, और फिर हमने भ्रष्टाचार से मोदी विरोध की तरफ इनका सुनियोजित घुमाव अपनी आँखों से देखा। भाजपा की ताबड़तोड़ कामयाबी और आप की बदस्तूर असफलता इस बात का संकेत है की आप की बोली खोखली है और उसे एक त्वरित सुधार की आवश्यकता है। शायद अपने पतन को उन्होने अपने दांव बदलकर रोका है, और आत्ममंथन के प्रक्रिया में व्यस्त है।
दूसरी वजह है घोटाले। केन्द्रीय सरकार के एजेंसियों के तहत इन घोटालों की जांच की जा रही है और ये शायद अपने ऊपर किसी भी आरोप को लगने नहीं देना चाहते, और ये समझते हैं की धीरे धीरे मामला ठंडा पड़ जाएगा। पर यह शायद काम न करे, क्योंकि केंद्र के पास खोने को कुछ भी नहीं है ऐसे नमूनों से भिड़ने के बाद, विशेषकर अगर इन आरोपों में कोई दम न हो तो। अरुण जेटली का मानहानि मुकदमा एक और कारण है की पार्टी अभी कुछ भी बकने से बच रही है। जेटली के कई राजनीतिज्ञों के साथ पुराने संबंध है, और केजरीवाल ने चूंकि इनकी तौहीन की है, यह काफी कुछ आप के ओछी राजनीति के औंधे मुंह गिरने का प्रत्यक्ष प्रमाण देता है।
पंजाब में निराशाजनक प्रदर्शन और दिल्ली सरकार की लाजवाब प्रतिष्ठा के बाद ऐसा लगता है की पार्टी का खजाना साफ हो चुका है। क्योंकि जब पंजाब में चुनाव थे और पार्टी उम्मीद में फूला न समा रही थी, तब खलिस्तान की चापलूसी से उनके खजाने भरना सुनिश्चित था। पर अब लोग इसे असफल पार्टी मानने लगे हैं, और उनमें निवेश न करने का सही कदम लेने लगे हैं। आर्थिक मजबूरियों के कारण भी इन्हे अपने दांव बदलने पड़े हैं।
अब ये देखना लाज़मी है की कब तक ये पार्टी और इसके विवादास्पद नेता मौन रहते हैं। शायद ये अपना ही फायदा करा रहे हैं, क्योंकि जैसे अब्राहम लिंकन ने कहा था ‘ये बेहतर होगा की चुप रहे और बेवकूफ़ समझे जाएँ, बजाए इसके की बोल के सारा शक खत्म कर दे।‘