20 जुलाई 2017 – भारत के 14वें राष्ट्रपति के नाम पर चल रही चर्चा और कशमकश पर विराम तब लग गया, जब विपक्ष की राज दुलारी, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार को तबीयत से धोते हुये, केन्द्रीय सरकार के पूर्व अधिवक्ता और बिहार के पूर्व राज्यपाल, श्री रामनाथ कोविन्द ने राष्ट्रपति भवन का टिकिट 66% वोटों के बहुमत के साथ कटा लिया। 25 जुलाई को डीएवी कॉलेज का यह ओजस्वी अधिवक्ता भारत के 14वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ लेगा, जिससे एक अनोखी तिकड़ी पूरी होगी – जहां एक राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री है, एक राष्ट्रवादी राष्ट्रपति भी है और देश के सबसे महत्वपूर्ण और सबसे बड़े राज्यों में से एक में राष्ट्रवादी मुख्यमन्त्री भी है [जिनहे जल्दी ही एक राष्ट्रवादी उपराष्ट्रपति भी जॉइन करेंगे]
पर जब चुनाव जारी थे, एक फोटो, जिसमें एक आदमी बैलट बॉक्स में अपनी वोटर पर्ची डाल रहा था, वो सोश्ल मीडिया पर आग की तरह फैल गयी और एक साथ आहें और हंसी का पत्र बन गयी। एक समय के इनका चेहरा सहानुभूति का पत्र अवश्य बनता है, और हमें दुख भी होता है, क्योंकि इन्हीं के आशीर्वाद से हमें ये सरकार और इसके सुशासन को देखने का अवसर जो मिला है, और इनका भारतीय लोकतन्त्र में हाल ही में चल रही भारतीय जनता पार्टी के नाम की राष्ट्रवादी लहर की नींव बनाने में बराबर योगदान भी रहा है।
ऐसे समय में, जब भारतीय राष्ट्रवाद का डंका बज रहा हो [चाहे केंद्र सरकार में ही सही], तो एक बार उस आदमी की दशा देखकर बुरा अवश्य लगेगा, जिनकी वजह से यह दिन देखना भी संभव हुआ है। वो इंसान है भारत के पूर्व उप प्रधानमंत्री, और भारतीय जनता पार्टी के संस्थापकों में से एक, लाल कृष्ण आडवाणी, और आगे जो आप पढ़ेंगे, उससे आपको समझ में आएगा की एक सुलझे हुये किंगमेकर से आज की मुफ़लिसी पर कैसे पहुंचे।
मंगलवार, 8 नवम्बर 1927 को सिंध प्रांत के कराची में एक धनाढ्य परिवार के घर पैदा हुए श्री आडवाणी को किसी प्रकार की कमी न थी। महज 15 साल की उम्र में इन्होनें आरएसएस की सदस्यता ग्रहण की। विभाजन के बाद इन्हे अपने परिवार सहित भारत आना पड़ा, जहां इन्होनें बॉम्बे विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध सरकारी विधि महाविद्यालय [जीएलसी] से अपनी वकालत की शिक्षा पूरी की।
हिन्दू राष्ट्रवादियों के साथ इनके संबंध और गहरे होते गए और धीरे धीरे इनका कद इतना बढ़ा की महज 24 वर्षीय आडवाणी भारतीय जन संघ के संस्थापकों में से एक बन गए, जिसे पूर्व कैबिनेट मंत्री और एक तत्पर हिन्दू राष्ट्रवादी, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्थापित किया था, जिनहोने कश्मीर को भारत से जोड़ने में अपने प्राण ही अर्पण कर दिये।
अटल बिहारी वाजपेयी जैसे विश्वसनीय साथी के साथ, धीरे धीरे आडवाणी भारतीय जन संघ की सीढ़ियाँ चढ़ते गए और 1973 में कानपुर में हुये एक विशेष पार्टी सभा में इन्हे अध्यक्ष के रूप में चुना गया, फिर आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार में इन्हे सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का भर सौंपा गया। जब जनता पार्टी से वैचारिक मतभेद पर टूटकर भारतीय जनता पार्टी बनी, तो इन्हे आम सचिव के तौर पर 1980-86 तक नियुक्त किया गया। इनकी रथ यात्रा ने ही स्वतंत्र भारत के इतिहास के सबसे बड़े हिन्दू राष्ट्रवादी आंदोलन का आरंभ देखा, यानि राम मंदिर आंदोलन, जिसका अंत 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में स्थित राम जन्मभूमि मंदिर के परिसर पर बने बाबरी मस्जिद को गिराकर हुआ।
ये तो कुछ भी नहीं है। आडवाणी को भाजपा के नेतृत्व में एनडीए सरकार की पहली सफल पर विवादास्पद सरकार में बतौर गृहमंत्री नियुक्त किया गया। 2002 से 2004 तक ये उपप्रधानमंत्री भी रहे। ऐसे उपलब्धियों के साथ, इस आदमी को कुछ तो मिलना ही चाहिए था, नहीं?
अरे रुकिए, आप गलत भी हो सकते हैं!
राष्ट्रपति चुनाव के लिए एलके आडवाणी की वोट डालते हुये तस्वीर निस्संदेह करुणा से भरी प्रतीत होती हो, पर ये उनके कर्मों का ही फल है, जो अब हिसाब चुकता करने आया है। सच पूछो तो आडवाणी अपने पिछले पापों का हिसाब चुकता कर रहे हैं, जिनके कारण आज वो महज हंसी का पात्र बन चुके हैं। ऐसे में हमें एलके आडवाणी के लिए शर्मिंदा नहीं महसूस करना चाहिए, क्योंकि इनकी सत्ता की भूख ने इनका खुद का नुकसान ही कराया है, फायदा नहीं।
अब ये कैसे? ऐसे……
याद है जब मैंने बताया था की कैसे ये 1973 में जनसंघ के अध्यक्ष बने थे? अब समझ में आता है, बिना नाली में हाथ गंदा किए इन्होनें ये पद नहीं संभाला था। पार्टी अध्यक्ष बनते ही इन्होनें सबसे पहली गलती की उन लोगों को हटाने की, जिन्होंने इस पार्टी को अपने खून पसीने से सींचा था, जैसे इन्होंने बेइज्जती से बलराज मधोक को पार्टी विरोधी कार्यों के इल्ज़ाम में पार्टी से निकाल दिया था।
अब अगर आप ये नहीं जानते की बलराज मधोक कौन है, तो ये भारतीय जन संघ की नींव का एक अहम हिस्सा थे, और आडवाणी से ज़्यादा ऊंचा कद था इनका पार्टी में। गुजरानवाला के एक शरणार्थी, मधोक साब को आडवाणी और वाजपयी की दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी की हत्याओं की तरफ बेरुखी रास नहीं और इसपर सवाल उठाने पर इन्हे पार्टी से ही निकाल दिया। ये तब हुआ जब इन्होनें ही 1967 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जन संघ को उसकी सबसे ज़्यादा सीटें जिताई थी, जिनकी संख्या 35 तक पहुंची थी।
तभी से ये भाजपा के धुर विरोधी बन गए, और आडवाणी और वाजपेयी की कमियाँ निकालने में जुट गए, जिनकी वजह से कंधार कांड जैसी बेइज्जती भी देश को झेलनी पड़ी। मुफ़लिसी और बेइज्जती में ही इनकी मौत हुई थी 2016 में, जब ये 96 वर्ष के थे।
जिस तरह आडवाणी ने मधोक जी के साथ बदसलूकी की थी, जो स्वतन्त्रता के पश्चात देश के हिन्दू राष्ट्रवादियों के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत समान थे, उससे इन्हें कुशल और सुयोग्य कार्यकर्ताओं से भी हाथ धोना पड़ा, जैसे गुजरात भाजपा के पूर्व अध्यक्ष शंकर सिंह वाघेला, जिन्होंने तैश में आकार काँग्रेस पार्टी में सदस्यता ग्रहण की और अपने पार्टी और अपना मखौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
तो ऐसे में आश्चर्य नहीं होना चाहिए जब इन्हे भाजपा के नए प्रहरियों, यानी नरेंद्र मोदी और अमित शाह की प्रगति में बाधा बनने के लिए इनहि कारणों से दरकिनार कर दिया जाए।
दूसरी बात, जिस एक वस्तु ने लाल कृष्ण आडवाणी को उनका उचित सम्मान नहीं दिया था, वो था उनका धर्मनिरपेक्षता के प्रति हानिकारक आसक्ति। ये राष्ट्रवादी गुट के हाईकमान के पहले ऐसे नेता होंगे, जो राष्ट्रवादी होने का दावा भी करे, काम भी करे, पर धर्मनिरपेक्षता के लिए अपना मोह न छोड़ पाये। अपनी कट्टर हिन्दू की छवि को धोने के लिए इन्होनें जिन्ना को सलामी देने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। इस टेलीग्राफ रिपोर्ट को देख लीजिये। कौन राष्ट्रवादी अपने सही सोच में जिन्ना की तारीफ कर उन्हे धर्मनिरपेक्ष बताएगा, और उनके मज़ार पर उन्हे नमन करने जाएगा?
अब मेरा मुंह मत खुलवाना, की कैसे इन्होंने नरेंद्र मोदी के रास्ते का कांटा बनने का प्रयास किया था, जब गुजरात के मुख्यमन्त्री होने के नाते इन्होंने अपने सुशासन की नीति को पूरे भारत में लागू करने की ठान ली। बलराज मधोक की तरह आडवाणी ने इनके भी पर कतरने चाहे, इसके बावजूद की ये खुद इसके योग्य नहीं थे, और 2009 में विरोधी लहर के बावजूद भाजपा को मुंह की खानी पड़ी थी। अपना महत्व जताने के लिए इन्होंने तो भाजपा में सारे पदों से भी इस्तीफा देने का प्रयास किया, ताकि मोदी प्रधानमंत्री उम्मीदवार न बन पाये।
आडवाणी वो बला हैं जो खुद तो देश नहीं चला पाएंगे, पर किसी योग्य उम्मीदवार को चलाने भी नहीं देंगे, इसीलिए मोदी शाह की जोड़ी ने इन्हें हर अहम फैसले से दरकिनार करते हुये इन्हे मार्गदर्शक मण्डल में डाल दिया।
तो आज जब कोई खिसियाए हुये आडवाणी को अपना वोट डालते हुये देखता है, जो उनकी हो सकती थी, तो हम सिर्फ सहानुभूति जता सकते है, क्योंकि अगर इन्होंने अपने अंदर के शैतान को हावी नहीं होने दिया होता, तो निस्संदेह इनके सपने सच होते। पर इन्होंने नहीं किया, और आज इन्हें अपनी ही दवाई का स्वाद चखना पद रहा है, और एक अंजान, पर कर्मठ पार्टी कार्यकर्ता को देश का 14वां राष्ट्रपति बनते देख रहा है। ज़िंदगी भी अजीब है, उसी वक़्त आपको गिराती है जब आपको लगता है की आपको सब कुछ समझ में आ गया।
अनिमेष जी!
आज पश्च दृष्टि में देखें तो निश्चित रूप से उनके कुछ निर्णय गलत लग सकते हैं, परंतु यह भी तथ्य है, कि भारतीय जनता पार्टी के शुरुआती को 90 के दशक में राष्ट्रीय पार्टी के रूप में स्थापित करने में अडवाणी जी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी|यहां तक कि प्रधानमंत्री के प्रबल दावेदार होते हुए भी उन्होने कुर्सी अटल जी के लिए छोड़ दी थी|
2002 के गोवा के पार्टी अधिवेशन में नरेंद्र मोदी की पैरवी पूरी तरह से की और उन्हें गुजरात मुख्य मंत्री पद से हटने नहीं दिया, जो अटल जी हटाना चाहते थे|
अब आज की अगर बात करें, अडवाणी जी ने प्रधानमंत्री बनने की चाह में छद्म धर्म निरपेक्षता को अपनाया, पर आजकल मोदी जी और अमित शाह जो किसको खुश करने के लिए छद्म धर्म निरपेक्षता का चोला ओढ़े हुए हैं जो गौ हत्या के विरोध में कोई बयान नहीं देते लेकिन गौ रक्षकों को गुंडा बटा देते हैं| ये कैसा सत्ता का मोह है, कि JKPDP के साथ गठबंधन में सरकार बनाने के लिए लिखित में उनको आश्वासन दे देते हैं कि संविधान में J&K के विशिष्ट राज्य के स्तर को नहीं छुआ जाएगा (मतलब धारा 370 को हटाया नहीं जाएगा)| ऐसा करना तो अपनी ही पार्टी के संस्थापक पंडित दीन दयाल उपाध्याय के बलिदान का मज़ाक उड़ाने के बराबर है और किसी भी धोखे से कम नहीं है|फिर भी हम आज मोदीजी के बारे में बात करते समय लिहाज की एक मर्यादा को पार नहीं करते, तो अडवाणी जी के लिए इस तरह की भाषा का प्रयोग करना निश्चित रूप से भर्त्सना का पत्र है|