तो आखिरकार एक संक्षिप्त समय के अलगाव के बाद ‘सुशासन बाबू और सुशील मोदी’ की जोड़ी एक बार फिर से साथ आ गयी। बड़े दुख की बात है की लालू एक ‘बेचारा’ बन गए हैं, क्योंकि बिहार का सारा ‘चारा’ निपटाने के बाद इनके पास कोई ‘चारा’ नहीं बचा है। अब इन्हे कौन बताए की बिहारी राजनीति का पुनर्निर्माण तो निश्चिंत था, खासकर तब से जब से नितीश बाबू ने उस विमुद्रीकरण का समर्थन किया, जिसकी बाकी विपक्ष ने तबीयत से धुलाई की थी।
बिहार में वर्तमान परस्थितियों पर टिप्पणी करते हुये राहुल गांधी ने सारा दोष नितीश कुमार पर मढ़ते हुये कहा ‘ये सत्ता के लिए कुछ भी कर देते हैं। हमें इसके बारे में तीन चार महीने से पहले जानकारी थी’। क्या कहा भाई इनहोने? वैसे उसे अलग रखे, तो पहला वाक्य कोई नई बात नहीं है। राहुल बाबा से आप सहमत हो या नहीं, पर ये बयान एक कटु सत्य है, और यही तो लालू और राहुल ने किया नितीश बाबू के साथ, जो इससे पहले 17 साल से भाजपा के विश्वसनीय सहयोगी थे। नितीश बाबू ने भी यही गलती की थी, जब उन्होने अपने कट्टर दुश्मनों – लालू यादव और काँग्रेस से हाथ मिलाया, जो सत्तासीन भ्रष्टाचार के जीती जागती प्रतिमूर्ति थे।
तो इससे क्या साबित होता है? नितीश कुमार एक निहायत अवसरवादी है, जो किसी से भी हाथ मिला सकते हैं, ताकि बिहार में उनकी सत्ता बरकरार रहे। और जब इनहोने एनडीए छोड़ी थी, तो इनहोने सिद्धांतों की बकैती बाँची थी। और जब इनहोने इस महागठबंधन का दामन छोड़ा, तब भी इनहोने इन्ही सिद्धांतों को याद किया। तो आखिर इनके सिद्धान्त हैं क्या? क्या इनके पास ऐसा कुछ भी है?
जम्मू कश्मीर भाजपा पीडीपी के गठबंधन और पश्चिम बंगाल में काँग्रेस सीपीएम गठबंधन की तरह लालू / काँग्रेस और नितीश के बीच इस महागठबंधन का भी कोई औचित्य नहीं था। नितीश और भाजपा के बीच के रिश्ते काफी मजबूत थे, जिनहे ऐसी छोटी बातों पर नहीं तोड़ना चाहिए। जेडीयू के पास 118 और भाजपा के पास 91 विधायक थे पिछले विधान सभा चुनावों के लिए। इस गठबंधन के टूटने के बाद वर्तमान विधान सभा में सबसे बड़ी पार्टी, यानि राष्ट्रीय जनता दल के पास केवल 80 सीटें थी। इससे पता चलता है की भाजपा जेडीयू गठबंधन में बिहारियों को कितना विश्वास था, जिसे नितीश कुमार ने तोड़ दिया था। बाद में इन्हे लालू और उनके बेटों का चापलूस बनना पड़ा।
तो नितीश कुमार ने पहले क्यों गठबंधन छोड़ी थी और अब क्यों अपनी नयी गठबंधन से पीछा छुड़ाया, ये अपने आप में एक रोचक मुद्दा है।
ये तो सर्वविदित है की अटल बिहारी वाजपयी को एनडीए सरकार में रक्षा मंत्री जॉर्ज फेर्णेंडिस पर पूरा विश्वास था। किसी भी राजनेता को पता तक नहीं चला जब जॉर्ज ने पोखरण में दूसरा परमाणु परीक्षण करवाया था। खुद आडवाणी जी को इस बारे में बहुत देर से पता चला था। वाजपयी के सरकार के कार्यकाल में फेर्णेंडिस और आडवाणी के कामों से आडवाणी के छवि की असलियत धीरे धीरे सबके सामने आती चली गयी। जहां रक्षा मंत्रालय फेर्णेंडिस के अंदर कार्गिल की विजय से कोल्ड स्टार्ट विधि के निर्माण की तरफ अग्रसर था, गृह मंत्रालय तो जनता के अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर पायी। राजनैतिक बदला लेने के लिए आडवाणी ने समता पार्टी के तौर पे नितीश कुमार जैसे नेताओं की दूसरी पीढ़ी को दीक्षा देनी शुरू कर दी, जिनहे उन्होने काफी समय तक राजनीति की शिक्षा दीक्षा दी थी। कैसे नितीश ने जॉर्ज फेर्णेंडिस के साथ बर्ताव किया था, वो भी आलोचनाओं से नहीं बच पाया था।
जब आरएसएस ने लगातार दो चुनाव हारने के बाद आडवाणी को समर्थन देना बंद किया, और नए पर विवादास्पद चेहरे नरेंद्र मोदी को समर्थन देने की बात की, तो भाजपा में काफी गहमा गहमी हुई इस मुद्दे पर। काँग्रेस होती तो आडवाणी भाजपा से बाहर आ कर अपना अलग गुट बनाते, पर वे अपने गुरु आरएसएस को धोखा नहीं दे सकते थे, और एक वफादार सिपाही बने रहे। पर इसी गुत्थम गुत्थी में आडवाणी ने नितीश बाबू को नरेंद्र मोदी से भिड़ने के लिए खुला छोड़ दिया। प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनने से पहले मोदी को कई आंतरिक शत्रुओं से भिड़ना पड़ा था। अगर बाल ठाकरे सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री बनते देखना चाहते थे, तो एक पुराने मित्र प्रकाश सिंह बादल आडवाणी को सामने लाना चाहते थे और वैसे ही नितीश कुमार भी चाहते थे।
पर दोनों शिव सेना और शिरोमणि अकाली दल के पास थोड़ी अकल थी और किसी भी उम्मीदवार के प्रति ज़्यादा सहानुभूति नहीं रखते थे। पर आडवाणी की वफादारी से अभिभूत और मोदी को हल्के में लेने की भूल करते हुये नितीश कुमार ने तब तक इस गठबंधन के धागे खींचे जब तक वे टूट नहीं गए। जब मोदी प्रधानमंत्री बने, तब नितीश कुमार को अपनी गलती समझ में आई, पर तब तक बहुत देर चुकी हो चुकी थी। आडवाणी अब हाशिये पर जा रहे थे और नितीश को अपने आत्म सम्मान को दबाकर लालू से हाथ जोड़ना पड़ा। एक राजनैतिक रूप से फायदेमंद विचार को अमल में लाते हुये प्रशांत किशोर ने अब बिखरे महागठबंधन की स्थापना की।
चुनाव के दौरान भाजपा ने सिर्फ एक सवाल उठाया, ‘जंगल राज के राजा लालू के साथ नितीश ने हाथ क्यों मिलाया? पर उनकी आशाओं के विपरीत महागठबंधन ने सत्ता पर अपना कब्जा जमा लिया था। इसी के साथ नितीश कुमार की मुसीबतें भी शुरू हुयी। वो पहले ही सुशील मोदी और अन्य भाजपाई मंत्रियों से मिलते सहयोग की कमी महसूस करने लगे, जिनहोने बिहार को जंगल राज से बाहर लाने में थोड़ी मदद की। निस्संदेह ‘विकास पाठ’ के नाम पर जेडीयू के वोट आरजेडी और काँग्रेस को मिले, पर उनका समर्थन इन्हे वापस नहीं मिला। और फिर ये हुआ की सीएम का चेहरा होने के बावजूद नितीश बाबू की पार्टी आरजेडी से कम सीटें जीत पायीं थी, और लालू के चेहरे पे खुशी सब कुछ बयां करती थी। फिर बिहार का पतन शुरू हुआ, और लालू के अनपढ़ बेटों को कैबिनेट का एक अहम हिस्सा बनाया, जिनमें जो बेहतर था, उसे नितीश कुमार के नीचे उपमुख्यमंत्री का पद दिया गया।
जब से इनहोने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी 2015 में, तबसे इनके सिर पे तलवार सी लटकी हुयी थी। भाजपा की तुलना में लालू का बिहार के बाहर कोई दृष्टि नहीं, कोई सोच नहीं। उनकी सारी जुगत इसी बात में लगी थी की पैसा कैसे बनाए, कैसे अपनी जीत सुनिश्चित करे और अपने बच्चों को बिहार की सत्ता विरासत में दे। सरकार बनने के दो हफ्ते बाद ही नितीश को 2017 में कुर्सी से हटाकर तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बनाने की बातें बाज़ार में गरम चल रही थी। एक ही साल में नितीश बाबू समझ गए की वो किस दलदल में फंसे हुये हैं। उनके हाथों से समय रेत की तरह फिसल रहा था, जिससे उन्हे अब अपने समाधान के बारे में जल्दी से सोचना था।
यही वो समय था जब नितीश बाबू ने निर्णय लिया की बस अब बहुत हुआ, मैं एनडीए वापस जा रहा हूँ। इसीलिए उन्होने 2016 के अंत में हुये विमुद्रीकरण को अपना समर्थन दिया। अमित शाह ने इसे तुरंत भाँप लिया और इसे अंजाम तक ले गए।
जब लालू और फ़ैमिली भ्रष्टाचार के रसातल में खिसकने लगी, नितीश बाबू भी धीरे धीरे नीचे ही जा रहे थे। बीजेपी की उत्तर प्रदेश में प्रचंड बहुमत इस बात का साफ संकेत था की नितीश बाबू के प्रधानमंत्री बनने के सपने अब सिर्फ सपने ही रहेंगे। तो अपनी गलतियाँ सुधारते हुये और ‘सुशासन बाबू’ की छवि बरकरार रखने के लिए इनहोने आरजेडी को लतियाते हुये एक जल्दबाज़ी में लिए गए फैसले में भाजपा का दामन थाम लिया।
अब रोते रहें लालू और उनके बेटे इनकी अवसरवादी प्रवृत्ति पर। पर जिस तरह काँग्रेस और आरजेडी का इतिहास रहा, तो अब लोग इनके सिद्धान्त और उसूलों पर भाषण और विरुदावली तो कतई नहीं सुनेंगे।
न्यायपालिका से अपने पिछले हिसाबों को याद रखते हुये इस बार भाजपा पूरी तरह तैयार थी और सदन के विशेष सत्र में 28 जुलाई को विश्वास मत कराया, जिससे लालू यादव के सूप्रीम कोर्ट जाने के मंसूबों पर पानी फिर गया। लोग चाहे कुछ भी कहें, पर सूप्रीम कोर्ट सदन में एक विश्वास मत को कतई नहीं रोकेगी, क्योंकि यह लोकतन्त्र में अपना बहुमत साबित करने का एक पवित्र अवसर होता है। नितीश कुमार को अपने विधायकों में विश्वास की दरकार थी, और अगर ज़्यादा वक़्त मिलता तो लालू यादव इन्हे अपने वश में करने का एक भी अवसर नहीं जाने देते।
अब चूंकि इनहोने विश्वास मत तो जीत ही लिया है, इसलिए हम आशा करते है की यह दूरगामी सोच को बढ़ावा देते हुये भाजपा के साथ बने रहेंगे, ताकि उनका राज्य दोबारा से जंगल राज न बन जाये।