जब टाइम्स नाऊ ने एक नार्को टेस्ट का पर्दाफाश किया, जिसके तहत ‘केसरिया / हिन्दू आतंकवाद’ के दावे की धज्जियां उड़ा दी गयी, हम सब को एक गहरा धक्का लगा की कैसे कोई उदारवादी सोच वाली सरकार अपने शासन का बचाव करने के लिए इतना नीचे गिर सकती है, की करोड़ों भारतियों, विशेषकर हिंदुओं और सिक्खों की जान जोखिम में दाल दे। हम क्रोध से आग बबूला हो उठते हैं की सरकार ऐसे लोगों के विरुद्ध कोई कारवाई क्यों नहीं कर रही है, विशेषकर उस वंश के खिलाफ, जिसने इस देश की नींव रखने वाले समुदाय को बेइज़्ज़त करने में कोई कसर नहीं छोड़िए।
अब लगता है, उनको ये करने की आवश्यकता ही नहीं है। एक रीति थी अपने देश की, की जिसने भी तानाशाही नेहरू गांधी वंश के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी, उसे या तो पी वी नरसिम्हा राव की तरह बेइज्जती करा करा के मार डाला या फिर बिना कोई सबूत छोड़े इनकी सफलतापूर्वक हत्याएँ करवाई गयी, जैसे डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, लाल बहादुर शास्त्री, पंडित दीनदयाल उपाध्याय, इत्यादि। पर यही बात एक आदमी, डॉ. सुब्रमणियम स्वामी पर लागू की जाये, तो वो हँसते हुए कहेंगे, ‘ऐसा भी होता है क्या?’
नेहरू गांधी वंश के लिए एक जीता जागता दुस्वप्न रहे डॉ. स्वामी ने कभी भी गांधी खानदान को चैन से नहीं जीने दिया है। अपने किस्म के अलग बावले थे ये, जिनहोने ‘माँ बेटे’ की जोड़ी की तानाशाही का सीधे संसद के प्रांगण में, वो भी आपातकाल के दौरान खुलेआम विरोध किया। इनहोने सदैव एक परिपक्व नेतृत्व और एक शुद्ध कार्यप्रणाली वाले भारत की वकालत की है। इनके तौर तरीकों से कई लोग सहमत नहीं होंगे, पर इनकी उपलब्धियों का कोई मज़ाक नहीं उड़ा सकता। अगर प्रधानमंत्री चन्द्र शेखर का कार्यकाल इतना छोटा न रहा होता, तो उदारवादी कार्यक्रम का पूरा श्रेय इसके असल जनक स्वामी जी को ही जाता, जिसने भारत को एक सुप्त राक्षस से दुनिया के सबसे तीव्र गति से प्रगति कर रहे अर्थव्यवस्थाओं में शुमार किया, न की एक अहंकारी अर्थशास्त्री, डॉ. मनमोहन सिंह के द्वारा चुरा कर अपने लिए सारी महिमा उड़ाई जाती।
अब एक बंद अखबार नेशनल हेराल्ड के जरिये करोड़ों रुपये छापने वाले गांधी परिवार को कोर्ट तक घसीटने के बाद डॉ. सुब्रमणियम स्वामी ‘भगवा आतंकवाद’ का झूठ फैलाने के लिए सोनिया गांधी, अहमद पटेल और पूर्व गृह और वित्त मंत्री पालनीयप्पन चिदम्बरम पर कोर्ट में मुकदमा दायर करने के लिए कमर कस चुके हैं।
अगर आपको यह समझ में नहीं आ रहा है, की मैं बोल क्या रहा हूँ, आइये आपको उस दिन की तरफ ले चलता हूँ, जब ये सारी कहानी शुरू हुई थी : रविवार, 18 फ़रवरी 2007। ‘अमन की आशा’ अभियान अपने चरम पर था। भारत और पाकिस्तान कभी इतने शांत नहीं थे, जितने की अब थे, पर उन्हे उस सुबह सम्झौता एक्सप्रेस में हुये धमाकों ने उनकी मीठी नींद से झकझोर कर रख दिया। जब ये ट्रेन पानीपत जिले के पास दीवाना क्षेत्र से गुजरी, तो दो डिब्बों में रखे बम फट गए, जिनके कारण 68 जाने गयी, और 50 लोग घायल हुये।
12 दिन के अंदर अंदर, एक अवैध रूप से भारत में रह रहे पाकिस्तानी की गिरफ्तारी हुई। पर इसके बाद जो हुआ, वो तो खूंखार से खूंखार तानाशाहों को भी शर्माने पर विवश कर देगा, जिस तरह से एक सरकार ने पूरे प्रणाली को मरोड़ते हुये अपने सहूलियत के हिसाब से उसे सींचा और पहले से ही बेबस और बेइज़्ज़त एक समुदाय को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर और अपमानित किया गया।
जो हुआ, उसे देख आप बरबस ही ‘जौली एलएल.बी. 2’ की कहानी याद आ जाएगी। इस केस से जुड़े एक अफसर, जो अब सेवानिर्वृत्त हो चुके हैं, ने काफी करीने से इस बात का पर्दाफाश किया है की कैसे संबन्धित अधिकारियों ने न सिर्फ पूरी कहानी ही बदल दी, बल्कि अपने मालिकों को प्रसन्न रखने के लिए मुख्य अभियुक्त को सारे साक्ष्य होने के बावजूद जाने दिया गया। वैसे यह कोई चौंकने वाली बात नहीं है, भूल गए आप कैसे बटला हाउस एंकाउंटर में इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा के बलिदान का इनहोने कॉंग्रेसियों ने मज़ाक उड़ाया था, और मारे गए आतंकियों के लिए टसुएँ बहाये थे?
इस बात का पर्दाफाश करने वाले हरदीप [नाम बदला गया है] ने कोर्ट के सामने स्वीकार किया की एक पाकिस्तानी नागरिक अजमत अली, जिसके पास कोई वैध दस्तावेज़ नहीं थे, को महज घटना होने के एक पखवाड़े के अंदर पकड़ लिया गया, पर उसे अपने देश वापस जाने दिया गया, वो भी बिना किसी दिक्कत के। इस तरह की बेशर्मी तो मुझे भोपाल गैस त्रासदी की याद दिलाती है, जहां हमारे परम पूज्य श्री राजीव गांधी ने मुख्य अभियुक्त, वारेन एंडर्सन को गिरफ्तार होने के एक हफ्ते के अंदर अंदर छुड़वाया और उन्हे इज्ज़त के साथ घर भेजा, जहां से वे कभी वापस नहीं आए।
हरदीप के अनुसार, “मुझे क्रॉस एक्जामिनेशन के लिए 9 जून को बुलाया गया। उसे अफसरों ने डिस्चार्ज कर दिया। कोर्ट ने उसे 14 दिन की पुलिस हिरासत में भेजा था…..पुलिस ने उन सभी शहरों और ठिकानों का दौरा किया, जहां अली ठहरता था। हमने उन जगहों का सत्यापन कराया……उस टीम के हिस्सा थे डीआईजी आर सी मिश्रा, अड़िश्नल डीजीपी हरियाणा, एसपी क्राइम और अन्य।”
हालांकि उसकी अपेक्षाओं के विपरीत, तत्कालीन सरकार, पुलिस और न्यायपालिका ने मिलकर ‘सबूतों के न होने के आधार’ पर मुख्य अभियुक्त को रिहा कर दिया। एक उच्च अफसरों की मुलाक़ात के बाद हिन्दू आतंकवाद का नारा सबसे पहले इसी घटना के बाद उठाया गया, और इसी के लिए स्वामी असीमानंद और सुनील जोशी जैसे लोगों को बिना किसी सबूत, बिना किसी आधार पकड़ा गया, और फिर यही लोग हमसे बाद में पूछते हैं, ‘हमें आप इज्ज़त क्यों नहीं देते है?’
सुब्रमणियम स्वामी के अनुसार “…हरियाणा पुलिस अभियुक्त से पूछताछ करना चाहती थी, पर उसे पाकिस्तान वापस जाने दिया गया, इस बात के बावजूद की उसके पास न पासपोर्ट, न कोई वैध दस्तावेज़……ये सरासर विश्वासघात है, जो बिना सोनिया गांधी के हस्तक्षेप के नहीं हो सकता। इसकी जांच होनी चाहिए।“
इसी बुराई के विरुद्ध सुब्रमणियम स्वामी को एक बार फिर से वकील का चोगा पहनना पड़ा और उन लोगों के खिलाफ केस फ़ाइल करने की इनहोने ठान ली, जिनहोने हिन्दू आतंकवाद के इस झूठ को बढ़ावा दिया। इनमें सबसे खतरनाक पी चिदम्बरम हैं, जिनहोने दुर्दांत आतंकी इशरत जहां से संबन्धित कई अहम दस्तावेज़ मिटा दिये, जिनहे बाद में इनहि के इशारे पर एक शहीद की तरह महिमामंडित किया गया, सिर्फ उस वर्ग विशेष को खुश करने के लिए, जिसका या तो नाम नहीं लिया जाना चाहिए, या फिर इन्हे कभी भी कानून के द्वार तक नहीं लाना चाहिए।
इसके साथ हमें मानना पड़ेगा, की जब तक सुब्रमणियम स्वामी जैसे लोग ज़िंदा है, तब तक भारत को अंदर से खोखला करने वाली किसी ताकत से हमें डरने की ज़रूरत नहीं।