“भ्रष्टाचार अगर अपने हाथ से हो तो वह प्रजा के लिए हितकारी है। दुसरे के हाथ से हो तो वह प्रजा के लिए दुःखदायी है। इसीलिए रैलियां करने वाले, प्रदर्शन करने वाले, आन्दोलन करने वाले, धरना देने वाले ये दल चाहते हैं कि शासकीय भ्रष्टाचार करने का अधिकार उन्हें मिल जाए। इनका भ्रष्टाचार इतना पवित्र होगा कि जनता अपने आप सुखी हो जाएगी।”
“ये सभी छद्म नारीवादी है, छद्म धर्मनिरपेक्ष है। इन्हें सिर्फ प्रदर्शन के नाम पर ढोंग करना है और तरह तरह के एनजीओ बनाकर पैसे कमाना है। पैसे लेकर वैचारिक दलाली करने वाले लोग हैं ये सभी। पत्रकार, प्रोफ़ेसर, छात्रनेता, एक्टिविस्ट के रूप में बैठे ऐसे लोग सिर्फ और सिर्फ पैसे कमाने के लिए प्रोपगंडा चलाते हैं। दिखाने के नाम पर आंदोलन करते हैं और उसी आन्दोलन में महंगे खाने पीने के सामान का इस्तेमाल करते हैं। इन्हें लगता है ये क्रांतिकारी है और सरकार तानाशाह। लेकिन जनता सब समझती है”
अब ऊपर लिखे दोनों पैराग्राफ को पढ़िए और विचार कीजिए कि दोनों में लिखी बातें एक दुसरे से अलग है क्या ? पहला पैराग्राफ देश के वरिष्ठ व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी का है और दूसरा मैंने लिखा है। अब इसे लिखने पर हरिशंकर जी को व्यंग्यकार कहा गया और मुझे शायद ट्रॉल कहा जायेगा। एक बात सोचिए ये ट्रॉल आखिर है क्या ? कौन है ये लोग ? कहाँ से आते हैं ? आप या मैं किसी मुद्दे पर अगर कटाक्ष करते हैं या व्यंग्य करते हैं तो सीधे ट्रॉल की संज्ञा दे दी जाती है। ऐसा क्यों ? किसी का विरोध करने का तरीका सीधा होता है तो किसी का व्यंग्यात्मक। इसमें ट्रॉल शब्द कहाँ से आया ? आखिर समय बदला है, व्यवहार बदले हैं, पत्रकारिता, राजनीति, कूटनीति सब कुछ बदली है तो क्या व्यंग्य का स्वरूप नहीं बदलेगा ? क्या कटाक्ष करने का स्वरूप नहीं बदलेगा ? व्यंग्य और कटाक्ष में जबतक अभद्र भाषा का इस्तेमाल ना हो रहा है वो तो व्यंग्य ही कहलायेगा। लेकिन आज के छद्म नारीवादी और फर्ज़ी ड्रामेबाज लोग विरोध और आलोचना के लिए लिखे गये व्यंग्य को ट्रॉल कहते नहीं थक रहें हैं। इन्हें हर आलोचना और व्यंग्य में ट्रॉल नज़र आ रहा है।
दरअसल भारत में एक जमात ऐसी है जो सोशल मीडिया के आने से पहले अपने हिसाब से जनता के सामने मुद्दें पेश करती थी। ऐसी जमात जो जनता को क्या बताना है और क्या छुपाना है यह फैसला लेती थी। ऐसे लोग जो केंद्र के मंत्रीमण्डल तक दखल रखते थे। ऐसे लोगों में सबसे अधिक मीडियाकर्मी, प्रोफेसर और बुद्धिजीवी वर्ग के लोग शामिल हैं। लेकिन आज ऐसा नहीं हो पा रहा है। सरकार ऐसी है कि उन्हें भाव नहीं दे रही, प्रधानमंत्री उन्हें अपने साथ विदेश यात्राओं पर नहीं ले जा रहे, सरकार से मिलने वाले ऐशो आराम पर विराम लग गया है और तो और इनके द्वारा चलने वाले प्रोपगंडा लगातार सोशल मीडिया के जरिए आम लोगो तक सामने आ रहें हैं। भारतीय मीडिया और शिक्षण संसथान वाम का गढ़ रही है। इन दो संस्थानों में वामपंथी समुदाय ने देश की दिशा और दशा से खिलवाड़ करने में कोई कमी नहीं की है। सोशल मीडिया के आ जाने से इनके करतूत, इनकी देशविरोधी गतिविधियां, इनकी विचारधारा सब कुछ पारदर्शी रूप से सामने आ रही है।
जब इनकी सारी हरकते सामने आती है और देश की जनता से कोई नागरिक इनसे सवाल पूछता है या इनपर व्यंग्य करता है तो ये स्वघोषित बुद्धिजीवी वर्ग उन्हें ‘ट्रॉल’ कहकर नकारने की कोशिश करता है। अभी हाल ही में एक मीडिया समूह ने एक युवा लड़के के गाने को महिलाविरोधी बताते हुए उसकी तुलना एक बलात्कारी से कर दी। छद्म नारीवाद के आड़ में इस समूह के एक महिला पत्रकार ने अभद्र शब्दों का इस्तेमाल कर अपने ‘बुद्धिजीवी’ होने का अच्छे से परिचय दिया। बॉलीवुड के दर्जनों अभद्र गानों से इन्हें दिक्कत नहीं होती लेकिन किसी और की लोकप्रियता को भुना कर खुद का प्रोपगंडा चलाने में ये लोग माहिर हैं। सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में इस मीडिया समूह ने पिछली बार अपनी ओछी पत्रकारिता दिखाते हुए एक सैनिक का स्टिंग ऑपरेशन किया था जिसके बाद उस सैनिक ने आत्महत्या कर ली थी। सैनिक के आत्महत्या के बाद उस महिला पत्रकार पर उँगलियाँ भी उठी थी। इन्ही सब बातों का विरोध करने पर आज एक बड़ा मीडिया समूह विरोध करने वालो को ‘ट्रॉल’ कहकर क्रिमिनल की संज्ञा दे रहा है। आखिर ऐसे मीडिया समूह देशविरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने का ही काम करते हैं और ऐसे कामों के बाद उन्हें अपने आकाओं से प्रशंसा भी मिलती है। इसी मीडिया समूह के एक बड़े महिला पत्रकार की अंतराष्ट्रीय आतंकी हफ़ीज़ सईद ने खुद मुखर होकर तारीफ़ की थी।
भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमेशा से ‘ट्रॉल्स’ को फॉलो करने और बढ़ावा देने का आरोप लगाने वाले लोग आज खुद बदतमीजी की हद तक उतर आये हैं। प्राइम टाइम पर दिखने वाले बड़े पत्रकार और देशद्रोह के आरोपियों के लिए मार्च की अगुआई करने वाले ने एक आम नागरिक को जवाब देते हुए प्रधानमंत्री की पत्नी का नाम लेकर मजाक तक उड़ा दिया। लेकिन इस हरकत के बाद भी स्वघोषित बुद्धिजीवी जमात उन्हें ट्रोल ना कहकर आम जनता को ट्रोल बताने में लगा हुआ है।
दरअसल इनकी समस्या यह है कि लिखने पढ़ने का काम जब इनका है तो आम जनता ये कैसे कर सकती है। इनका सोचना यह है कि जब मेनस्ट्रीम मीडिया में जितनी खबर दी जानी है उतनी दे रहे तो फिर ये सोशल मीडिया में आये ‘राईट लॉग. इन’ जैसे मीडिया समूह पूरी खबर कैसे दे सकते हैं वो भी इनकी पोल खोलते हुए। इस सोशल मीडिया में जहाँ पर जो भी इनकी पोल खोलेगा, जो इनकी सच्चाई बाहर ले आएगा वो ट्रोल बन जाएगा।
जो इनपर कटाक्ष करेगा वो ट्रोल बन जायेगा। इनके हिसाब से व्यंग्यकार सिर्फ मीडिया में हो सकते हैं ‘सोशल मीडिया’ में नहीं।
यदि आप इनके प्रोपेगंडा, इनकी विचारधारा को समर्थन देते हुए प्रधानमंत्री को गाली भी दे देते हैं तो वो ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ है लेकिन इनसे सोशल मीडिया में सवाल भी पूछ लिया जाए तो इन्हें आप में ट्रोल नज़र आने लग जाते हैं।