अरुण शौरी जो एक बुद्धिजीवी, पत्रकार और शानदार लेखक थे और फिर बाद में उनकी अधूरी महत्वकांक्षाएं, उनकी उम्र और ईर्ष्या सामने आई। जिस अरुण शौरी को आज हम जानते हैं वह एक बुजुर्ग इंसान है, और नरेंद्र मोदी की खोखली निंदा करना ही उनकी ज़िन्दगी का एक ही मकसद है। जिस रोग की शुरुआत 26 मई 2014 को हुई थी वो अब बड़ी बीमारी का रूप ले चुकी है। यह देखना दुःखद है कि जो व्यक्ति कभी बुद्धिजीवी के रूप में जाना जाता था वो अब तर्कहीनता के रास्ते पर चल रहा है।
अरुण शौरी की पूरी जीवन यात्रा एक ऐसे विद्वान की तरह गुजरी है लेकिन जिसे सबकुछ मिला है और फिर अपने जीवन के अंतिम चरण में अधिक पाने की आकांक्षा में सबकुछ दूर कर दिया।
आपातकाल के बाद का दौर पत्रकारिता को परिभाषित करने का समय था। प्रेस की स्वतंत्रता वापस बहाल हुई थी। पत्रकारों को उम्मीद तो थी लेकिन वो डरे हुए थे। और भारतीय पत्रकारिता एक कायापलट के दौर से गुजर रही थी। सरकार के चाटुकार होने और पं. नेहरू के समाजवाद के ब्रांड की दुनिया की जरुरत पर 10 पेज के लंबे बुलबुले लिखने से निकालकर प्रेस ने एक आलोचक की महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। और इस मीडिया क्रांति की अगुआई करने वाले अरुण शौरी ही थे। वह विश्व बैंक के साथ एक छोटे कार्यकाल के बाद भारत वापस लौट आये थे। अरुण शौरी के शब्द आक्रामक और उनका लेखन काफी शक्तिशाली था। इंडियन एक्सप्रेस ने अरुण शौरी के संपादक रहते में आपातकाल के खिलाफ सांकेतिक विरोध में रिक्त अखबार (बिना न्यूज़ का कोरा अख़बार) प्रकाशित किया था। अरुण शौरी ने एक तरह से भारत में ‘खोजी पत्रकारिता’ के आंदोलन का नेतृत्व किया था।
इंदिरा गांधी और संजय गांधी के प्रोपगंडा को बाहर लाने के केंद्र में अरुण शौरी ही थे। उन्होंने महाराष्ट्र में सीमेंट घोटाले का पर्दाफाश किया और महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल रहमान अंतुले को इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया। संभवतः वह एकमात्र पत्रकार थे ( एक दशक बाद स्वप्न दासगुप्ता जुड़ जायेंगे) जिन्होंने खुलकर राष्ट्रवाद का समर्थन किया और उनका वामपंथ के धोखे के बारे में कहना उल्लेखनीय था। वह एकमात्र पत्रकार थे जिन्होंने पवित्र गायों में भी पवित्र अम्बेडकर की आलोचना करने का साहस किया था। उन्होंने राम मंदिर के बारे में भी बात किया, और ‘प्रतिष्ठित इतिहासकार’ जैसा शब्द उन्होंने उन मार्क्सवादी इतिहासकारों की गड़बड़ी को परिभाषित करने के लिए किया जिन्होंने ना सिर्फ भारतीय इतिहास को अपने एजेंडे के हिसाब से लिखा और अनुसंधान के नाम पर तमाम पैसे खर्च किये। अरुण शौरी अपने काम के लिए इतने प्रतिबद्ध थे कि जब रामनाथ गोयनका ने उनके संपादकीय में हस्तक्षेप किया तो उन्होंने उनको भी टोकने में संकोच नहीं किया जबकि रामनाथ गोयनका उस वक़्त सबसे सम्मानित पत्रकार थे और इंडियन एक्सप्रेस के संस्थापक भी थे।
जिस अरुण शौरी को देश के सहीं सोच वाले नागरिक बड़े सम्मान के साथ के साथ याद रखते थे वो अब बदल चुके हैं। जो “भाजपा गाय के साथ कांग्रेस ही है” से शुरू हुआ था वो अब “मोदी का समर्थन करना ही मेरी सबसे बड़ी गलती थी” में आकर ख़त्म हुआ है। और यहाँ सबसे बड़ी समस्या प्रधानमंत्री की आलोचना में नहीं, बल्कि उनके आलोचना के तरीके में है। सबसे पहली बात, जो व्यक्ति तथ्य को तरजीह देता था वो आज तथ्यों का ही कोई मोल नहीं कर रहा। लगभग उनके हर आरोप बेबुनियाद है और उसे साबित करने के लिए कोई भी डाटा नहीं है। दूसरा, शौरी जो कि वामपंथी उदारवादियों के आलोचक थे अब उनके ही मंचों से बोलते हैं। अरुण शौरी एनडीटीवी के प्रमोटर प्रणय रॉय के बचाव में लगातार क्यों कह रहे हैं, जबकि उनका टीवी चैनल हर उस संभावित चीज में शामिल है। आखिर प्रणय रॉय की वित्तीय अनियमितता की जाँच आखिर प्रेस की स्वतंत्रता में पर हमला कैसे हो सकता है ? और शौरी क्यों उन लोगो की सभा में शामिल हो रहे और क्यों अपने कंधे उनको दे रहे जिन्होंने एक समय में महान पेशा रहे पत्रकारिता को मजाक बनाकर रख दिया है।
यह दुःखद है। लेकिन यही सच्चाई है। अरुण शौरी अब यह खो चुके हैं। उन्होंने जो अकादमिक छवि का सम्मान अर्जित किया था अब वह खो दिया है। और सब से ऊपर, उन्होंने अपनी तर्कशक्ति को खो दिया है।अब वह सिर्फ एक और सरकार आलोचक हैं जो उसे गिराना चाहते हैं। चाहे वो कैसे भी हो !
With inputs from our Hindi Article by Puskher Awasthi