सात विपक्षी दलों द्वारा मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ दिए गए महाभियोग नोटिस को उपराष्ट्रपति ने यह कहते हुए ख़ारिज कर दिया कि मुख्य न्यायधीश के ऊपर लगाए गए आरोप निराधार और कल्पना पर आधारित है। उपराष्ट्रपति की ये तल्ख़ टिप्पणी यह बताने के लिए काफी है कि कांग्रेस ने किस तरह से अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए महाभियोग जैसे अति गंभीर विषय पर जल्दबाजी दिखाई। महाभियोग को अस्वीकार करने की 22 वजहें उपराष्ट्रपति ने बताई हैं। दस पेज के इस फैसले में उपराष्ट्रपति ने कुछ महत्वपूर्ण तर्क भी दिए हैं। पहला, सभी पांचो आरोपों पर गौर करने के बाद ये पाया गया कि ये सुप्रीम कोर्ट का अंदरूनी मामला है ऐसे में महाभियोग के लिए ये आरोप स्वीकार नहीं किये जायेंगे। दूसरा, रोस्टर बंटवारा भी मुख्य न्यायधीश का अधिकार है और वह मास्टर ऑफ रोस्टर होते हैं। इस तरह के आरोपों से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को ठेस पहुंचती है। तीसरा, इस तरह के प्रस्ताव के लिए एक संसदीय परंपरा है। राज्यसभा के सदस्यों की हैंडबुक के पैराग्राफ 2.2 में इसका उल्लेख है, जिसके तहत इस तरह के नोटिस को पब्लिक करने की अनुमति नहीं है, किन्तु सदस्यों ने इसका भी ख्याल नहीं रखा और नोटिस देने के तुरंत बाद प्रेस कांफ्रेंस करते हुए कंटेंट को साझा किया जो संसदीय परंपरा के विरूद्ध था। नोटिस देने वाले सांसद खुद भी अनिश्चित हैं, जो उनके संदेह, अनुमान और मान्यताएं जैसे शब्दों के प्रयोग से मालूम होता है। इस तरह उपराष्ट्रपति ने महाभियोग नोटिस को खारिज़ करने से पहले ऐसी ही 22 तर्कपूर्ण कारण बताए हैं।
अब सवाल ये उठता है कि कांग्रेस ने देश के मुख्य न्यायधीश पर ऐसे गंभीर आरोप लगाने से पहले तथ्यों की जाँच और पर्याप्त प्रमाण क्यों नही जुटाए?
इससे शक की गुंजाइश बढ़ जाती है कि कांग्रेस जानबूझकर न्यायपालिका की साख को धूमिल करना चाहती है। उपराष्ट्रपति के तर्कों को समझने के बाद सहजता से ये अनुमान लगाया जा सकता है कि कांग्रेस महाभियोग के बहाने न्यायपालिका को डराने का विफ़ल प्रयास कर रही है। बहरहाल, ऐसा नहीं है कि उपराष्ट्रपति ने ये फ़ैसला बहुत जल्दबाजी अथवा केवल खुद अपने विवेक पर महाभियोग नोटिस को अस्वीकार किया हो। उपराष्ट्रपति ने कानूनविदों, राज्यसभा और लोकसभा के पूर्व महासचिवों, पूर्व विधि अधिकारियों और विधि आयोग के सदस्यों समेत प्राख्यात न्यायविदों से चर्चा, विमर्श और मुद्दे की गंभीरता को समझने के बाद ही ये निणर्य लिया है। जैसे ही ये फ़ैसला आया, कांग्रेस ने बिना देर किये उपराष्ट्रपति के आदेश को अवैध करार दिया और इस फ़ैसले के खिलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय जाने की बात कही। यह हास्यास्पद है कि जो कांग्रेस न्यायपालिका पर भरोसा नहीं कर रही, उसकी साख पर चोट पहुंचाने के लिए हर स्तर पर प्रयास कर रही है, फ़िर भी उसी न्यायपालिका की शरण में जाने की बात कर रही है।
कांग्रेस का ये गैर-जिम्मेदाराना रवैया और घातकीय प्रवृत्ति देश की लोकतंत्रिक प्रणाली को कैसे छिन्न –भिन्न कर रही है इसका अंदाज़ा शायद कांग्रेस को नहीं है। इसमें कोई दोराय नहीं है कि कांग्रेस इस समय अपने अस्तित्व को बचाने की जंग लड़ रही है। ऐसे में वह अपनी राजनीतिक जमीन को बनाने के लिए किसी भी स्तर पर, किसी भी तरीके को अपनाने से हिचक नहीं रही है। सरकार और नरेंद्र मोदी को बदनाम करने के एकमात्र लक्ष्य को हासिल करने के लिए कांग्रेस ने जो रास्ता अख्तियार किया है वह लोकतांत्रिक प्रणाली में अस्वीकार्य है। इसका खामियाजा आने वाले समय में कांग्रेस को भुगतना पद सकता है। कांग्रेस को सत्ता से गये अभी मात्र चार साल हुए हैं, किन्तु जिस तरह से कांग्रेस तिलमिलाई है उससे यह अंजादा लगाया जा सकता है कि कांग्रेस सब कुछ अपने अनुसार चाहती है, जिसकी वह अभ्यस्त भी रही है लेकिन, अब उसके अधिकार सिमट कर रह गए हैं। जनता हर चुनाव में कांग्रेस को खारिज़ कर रही है। चुनाव में मिल रही राजनीतिक हार अपनी जगह है किन्तु “हिन्दू आतंकवाद’, राम काल्पनिक हैं, माले गावं ब्लास्ट, मक्का मस्जिद ब्लास्ट तीन तलाक, जस्टिस लोया जैसे मामलों में कांग्रेस की जो वैचारिक हार हुई है, वह कांग्रेस की छटपटाहट और बौखलाहट का मुख्य कारण है। कांग्रेस को यह लगने लगा है कि आने वाले समय में उसके राजनीतिक वजूद का संकट गहराता जा रहा है। अप्रसांगिकता के दौर से गुजर रही कांग्रेस ने जब ये देखा कि चुनाव आयोग समेत कई स्वायत्त संस्थाओं पर हमले के बावजूद उसकों पराजय का सामना करना पड़ रहा है, तो उसने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश पर महाभियोग लाकर अपनी वैचारिक हार का बदला लेने का कुत्सित प्रयास किया। कांग्रेस को इस बात की भी जानकारी है कि दीपक मिश्रा चंद महीनों में रिटायर होने वालें है, किन्तु इसी बीच कई अहम फैसलों की सुनवाई उनकी बेंच को करना है। मसलन राम मंदिर मामले की सुनवाई सबसे प्रमुख है।
गौरलतब है कि इस केस की सुनवाई टालने की बेतुकी दलील पर मुख्य न्यायधीश ने कपिल सिब्बल को कड़ी फटकार लगाई थी। दूसरा सबसे अहम मामला राजनीतिक सुधार को लेकर है। इसके साथ–साथ सांसदों –विधायकों के न्यायालय में प्रेक्टिस करने पर रोक लगाने संबंधी याचिका की सुनवाई भी मुख्य न्यायधीश की बेंच को करना है। संयोगवश ये तीनों मामले कांग्रेस के लिए नई मुसीबत खड़ी कर सकते हैं। इससे कांग्रेस घबराई हुई है। परिणामस्वरुप, वह इस तरह के रास्ते को चुनकर न्यायपालिका पर दबाव बनाने की कोशिश के साथ –साथ अपने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति भी कर रही है। जिस तरह से कांग्रेस अपने मनमाफिक परिणाम नहीं आने पर हर संवैधानिक संस्था और पद की विश्वसनीयता को चोट पहुंचा रही है वह लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। कड़ी दर से समझें तो चुनाव आयोग, प्रधानमंत्री कार्यालय, रिजर्व बैंक और अंत में सबसे स्वतंत्र और लोकतंत्र के सबसे मजबूत स्तंभ न्यायपालिका को ही कटघरे में खड़ा करना कांग्रेस की नियति पर गंभीर सवाल खड़े करता है। कांग्रेस द्वारा इस तरह के राजनीतिक प्रयोग से आने वाले भविष्य के लिए एक ऐसी कुप्रथा की शुरुआत कर रही है, जो समय –समय पर देश के लोकतांत्रिक मूल्यों एवं लोकतांत्रिक मर्यादाओं का हनन करता रहेगा। महाभियोग पर कांग्रेस के महाप्रलाप ने उसके काले इतिहास के पन्नों में एक और काला अध्याय जोड़ दिया है।