ये वो समय है जब कई भारतीय पत्रकारों का झुंड अपने बिल से निकलकर भारत में पत्रकार होने का रोना रोते हैं। एक बार फिर से रविश कुमार इस झुंड का नेतृत्व कर रहे हैं. वही रविश कुमार जो एक ऐसी मीडिया आउटलेट्स के लिए काम करते हैं जिसपर कर चोरी के लिए चार्ज लगाया गया है।
दरअसल, हुआ यूं कि रविश कुमार इयरफोन लगाकर ड्राइविंग कर रहे थे और साथ ही फोन चलाने में व्यस्त थे। इस दौरान एक जिम्मेदार नागरिक ने रविश की फोटो खींच ली और सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दिया। ऐसे में एक बार फिर से रविश कुमार ने दावा किया कि उनके ऊपर निगरानी रखी जा रही है जैसे सरकार के पास और कोई काम नहीं बचा है इसलिए सरकार रविश के उपर नजर रख रही है। रविश कुमार ने अपनी तकनीकी समझ का प्रदर्शन करते हुए दावा किया कि जब वो लाइव थे तब सरकार ने एनडीटीवी के प्रसारण पर रोक लगा दी थी। रविश कुमार के समानांतर ही राणा अयूब ने दावा किया था कि उन्हें जान से मारने की धमकी मिली है। इसलिए, रविश कुमार ने एनडीटीवी इंडिया पर एक प्राइम-टाइम बहस प्रसारित किया था क्योंकि उनके अनुसार इस बहस के द्वारा निश्चित रूप से सभी समस्याओं का हल हो जायेगा। पुलिस के पास जाकर शिकायत करना और सुरक्षा एजेंसियों की मदद लेने का विचार रविश और राणा के लिए बोरिंग था।
एक लोकतांत्रिक देश में किसी भी पत्रकार को मिलने वाली धमकी निंदात्मक है और इसकी निंदा की जानी चाहिए। ये धमकियां वैसे लोगों द्वारा दी जा रही है जिनके पास न ही रचनात्मक बहस में शामिल होने की क्षमता है न ही दूसरे पक्ष के तथ्यों का सामना करने की क्षमता है। परन्तु यहाँ दोष पत्रकारों का कम नहीं, ऐसे पत्रकारों को लगता है कि इनके सहयोगियों पर कोई खतरा नहीं है तो वो अपने भाईचारे के लिए चुपी साध लेते हैं जोकि निंदनीय है। हम सभी इनके एक तरफा आक्रोश से अवगत हैं।
अप्रैल के माह में पश्चिम बंगाल में टीएमसी के दबंगों ने 70 पत्रकारों पर हमले किये गये थे। इस घटना को लेकर इन शीर्ष पत्रकारों की आंखें मई के मध्य में खुली थीं। इसके बाद इन पत्रकारों ने इस घटना की मात्र निंदा करके अपनी जिम्मेदारी भी निभा ली। राजदीप ने इसपर चिंता जताई थी। फाये डी सौज़ा ने इसे बड़ी गड़बड़ी बताया था। जाहिर है चौथे खंभे पर बेखौफ हमला करना लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा है। पल्लवी घोष ने इस हिंसा पर कहा कि ये ‘बिलकुल सही नहीं था’। राणा अयूब और सागरिका ने इस मामले में चुपी साधना ज्यादा उचित समझा और इस मामले को शांत होने के लिए छोड़ दिया।
पिछले साल रोहित सरदाना द्वारा एक ट्वीट में किये गये एक उचित सवाल के बाद उनके खिलाफ प्रदर्शन किया गया था और उनकी गिरफ्तारी की मांग की गयी थी। उस समय धर्मोपदेश देने वालों ने चुपी साध रखी थी। जो पत्रकार लिबरल विचारधारा के नहीं हैं उनपर हुए हमलों की निंदा लिबरल पत्रकारों के लिए गैर-ज़रूरी है!
जब जी न्यूज़ के पत्रकारों पर कांग्रेस के दबंगों ने हमला किया और जब रिपब्लिक टीवी संवाददाताओं पर प्रेस कांफ्रेंस के दौरान बदसलूकी की गयी और जब अदालत परिसर में कहा गया कि हम इनसे ‘निपट’ लेंगे। तब ये विशिष्ट वर्ग के पत्रकारों शायद ये सोंच रहे थे की इस तरह के पत्रकारों के साथ ऐसा ही किया जाना चाहिए।
क्या आपने कभी राजदेव रंजन, जगेंद्र सिंह, संदीप कोठारी, संजय पाठक, हेमंत यादव, करुण मिश्रा, शांतनु भौमिक, सुदीप दत्ता और नवीन निशचल के किसी भी निंदा, विरोध, प्रेस क्लब की बैठकों के बारे में सुना है? बेशक आपने नहीं सुना होगा। एक नाम जिसके प्रति सभी चिंतित हैं वो सिर्फ गौरी लंकेश हैं। उल्लेखित पत्रकारों को उनका काम करने के लिए हत्या कर दी गयी। किसी ने भी इन पत्रकारों की हत्या के मुद्दे को नहीं उठाया क्योंकि इनमें से किसी की भी मौत बीजेपी को प्रभावित नहीं करती है। इसके लिए कोई प्राइम बहस भी नहीं हुई और कोई ओपन लेटर पीएम मोदी को नहीं भेजा गया था। ये भारतीय मीडिया की विडम्बना है।
अक्सर ही कई ऐसे पत्रकार जिनके मूल विचार राईट विंग हैं उन्हें उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। सोशल मीडिया पर भी इन पत्रकारों को परेशान किया जाता है। इसके बावजूद किसी भी मुख्यधारा के लेफ्टवादी पत्रकारों ने इनकी दुर्दशा पर ध्यान नहीं दिया। प्रेस क्लब और एडिटर गिल्ड तभी मिलते हैं जब उन्हें सिर्फ बीजेपी को अपमानित करना होता है और उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर कट्टरपंथी सत्तावादी के रूप में चित्रित करना होता है।
ये समय है अपने वैचारिक मतभेदों को एक तरफ रखने का और सोशल मीडिया को सभी के लिए सुरक्षित जगह बनाने के लिए सर्वसम्मति से काम करने का। हालांकि, ये कैसे संभव होगा जब एक समान विचारधारा न होने पर लोगों को मिलने वाली धमकियों पर दूसरा पक्ष तमाशबीन बना रहना ज्यादा उचित समझते हैं?