कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के मुख्य सलाहकार सैम पित्रोदा का पुलवामा हमले में पाकिस्तान को क्लीन चिट देना और भारतीय सेना के पराक्रम पर सवाल उठाना, क्या यह अनजाने में दिया गया व्यक्तिगत बयान है? यदि यह मान भी लें कि सैम पित्रोदा की उम्र हो चली है, इसलिए उनकी जुबान फिसल गयी तो अभी कुछ दिन पूर्व राहुल गांधी ने भी सार्वजनिक रूप से टीवी के कैमरों के सामने दुर्दांत आतंकवादी मसूद अजहर को जी लगाकर सम्मानित किया था। कांग्रेस की ओर से इस पर सफाई नहीं आयी और इस मुद्दे को गोलमोल करने का प्रयास किया गया। दावा किया जाता है कि राहुल गांधी 50 साल की उम्र में भी अभी नवयुवक हैं, इसलिए कांग्रेस यह भी नहीं कह सकती कि उम्र के कारण उनकी याददाश्त कमजोर हो गयी है और उनसे अनजाने में यह भूल हुयी है।
पाकिस्तान के पक्ष में और भारत के विरोध में बैटिंग करने वाले शीर्ष कांग्रेसियों की सूची लंबी भी है और पुरानी भी। दिग्विजय, मणिशंकर अय्यर, नवजोत सिंह सिद्धू, शशि थरूर जैसे तमाम नाम हैं, जो निश्चित समयांतराल पर पाकिस्तानपरस्त बयानबाजी करके भारतीय हितों के विरुद्ध पाकिस्तान के दावे को न केवल मजबूत करते हैं, बल्कि भारत के लोगों, भारत की सेना और भारत की संवैधानिक संस्थाओं का मनोबल गिराने का प्रयास करते हैं।
यह सवाल अक्सर उठता है कि आखिर कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेता इस तरह की ‘गलती’ बारबार और जानबूझकर क्यों करते हैं? इसकी तह में जाने के लिये आपको कांग्रेस के इतिहास को खंगालना होगा और इस इतिहास में नेहरू परिवार के प्रभुत्व के काल को ठीक से देखना होगा।
आजादी के बाद नेहरू कांग्रेस को एक तरह अपने परिवार की प्राइवेट कंपनी में बनाने में कामयाब हो गये और प्रधानमंत्री के रूप में उनके हाथ में देश की तकदीर लिखने का जिम्मा आया तो देखिये जरा किस तरह उन्होंने भारतीय हितों की अनदेखी करके पाकिस्तान के आतंक का पक्ष लिया। आजादी मिलते ही पाकिस्तान ने कबाइलियों के वेश में कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। यह सूचना दिल्ली पहुंची, पर उस हमले को जानबूझकर अनदेखा कर दिया और हमलावरों ने कश्मीर में हजारों की संख्या में हिंदू, सिख और बौद्धों को हमलावरों ने मार डाला। यहां तक कि महिलाओं और बच्चों तक को नहीं बख्शा। कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरि सिंह ने भारत से कश्मीरियों को नरसंहार से बचाने की सहायता भी मांगी, लेकिन नेहरू ने उनकी गुहार भी नहीं सुनीं। नेहरू ने स्वयं 2 नवंबर 1947 को आकाशवाणी पर संबोधन में स्वयं यह स्वीकार किया कि पाकिस्तानी कश्मीर में नरसंहार कर रहे थे, लेकिन उन्होंने कोई दखल नहीं दिया। परिणाम यह हुआ कि पाकिस्तान ने कश्मीर के एक हिस्से पर अनधिकृत कब्जा कर लिया। दखल देने का उनका इरादा भी नहीं था। इसी संबोधन में नेहरू ने यह भी कहा कि वह कश्मीर पर भारत का दावा नहीं करते हैं, स्थिति सामान्य होने पर वे वहां जनमत संग्रह करायेंगे और कश्मीर की जनता यदि पाकिस्तान के साथ जाना चाहे तो रायशुमारी देने के लिये स्वतंत्र है।
तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल नेहरू के एक तरह ही पाकिस्तान परस्ती से दुखी भी थे और गुस्सा भी। सरदार पटेल पाकिस्तान को जवाब देने के लिए सेना भेजना चाहते थे, लेकिन नेहरू ने इनकार कर दिया। इसके बाद नेहरू के विरोध के बाद भी सरदार पटेल ने अद्र्धसैन्य बलों को हमलावरों से निपटने के लिये लगाया और हमलावरों को खदेड़ा। बाद में नेहरू को सरदार पटेल के आगे झुकना पड़ा और सेना लगायी गयी। जब भारत पाकिस्तान को धूल चटाकर कश्मीर को अपने नियंत्रण में लेने सफलता की ओर तेजी से आगे बढ़ रहा था तो सरदार पटेल के विरोध के बावजूद नेहरू इस मामले को स्वयं ही संयुक्त राष्ट्र परिषद में लेकर चले गये और इस मसले को विवादित बनाकर कश्मीर पर पाकिस्तान के दावे को एक तरह से मान्यता दिला दी। इस तरह नेहरू ने पटेल जी की इच्छा के विरुद्ध युद्धविराम कराकर पाकिस्तान की भरपूर मदद की। नेहरू ने कुछ ऐसा ही तब किया जब भारत को 1953 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थायी सदस्यता मिल रही थी, लेकिन उन्होंने इसे ठुकराकर चीन का नाम आगे बढ़ा दिया, जबकि चीन उस समय भी भारत के खिलाफ शत्रुतापूर्ण व्यवहार कर रहा था और भारतीय भूभागों पर अनधिकृत रूप से दावा ठोंक रहा था।
मजे की बात यह है कि इतिहास की इस पर्त पर से पर्दा किसी और ने नहीं, बल्कि आज पाकिस्तानी बोल बोलने वाले कांग्रेसी नेता और संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन महासचिव डॉ. शशि थरूर ने हटाया था। डॉ थरूर ने अपनी पुस्तक ‘नेहरू द इन्वेंशन आफ इंडिया’ में लिखा है कि ‘जिन भारतीय राजनयिकों ने इस संबंध में फाइलें देखी हैं, वे कहते हैं कि नेहरू ने स्थाई सदस्यता का प्रस्ताव ठुकरा दिया था।’ पुस्तक में उल्लेख है कि नेहरू ने कहा कि चीन एक महान राष्ट्र है और चीन की कीमत पर भारत को स्थायी सदस्यता नहीं चाहिए।
भारत को नुकसान पहुंचाकर भी पाकिस्तान की मदद करने का नेहरू का सिलसिला यहीं नहीं रुका। जब पूरा देश विरोध कर रहा था और तत्कालीन जनसंघ सिंधु नदी जल बंटवारा की प्रस्तावित संधि का मुखर विरोध कर रहा था, नेहरू 19 सितम्बर, 1960 को कराची गये और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति अयूब खान के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करके यह अन्यायपूर्ण संधि कर ली। कभी ऐसा सुना है कि किसी चीज का बंटवारा किया जाये और जिसकी आबादी 85 प्रतिशत हो उसको 20 प्रतिशत से भी कम हिस्सा मिले, जबकि जिनकी आबादी 15 प्रतिशत हो उन्हें 80 प्रतिशत हिस्सा मिले? किंतु नेहरू द्वारा भारत के हितों को किनारे रखकर शत्रुता निभा रहे देश पाकिस्तान को अपनी भूमि से गुजरने वाली उन नदियों का लगभग शतप्रतिशत जल दे दिया, जिन नदियों का स्रोत या तो भारत में है अथवा जो भारत के उच्च क्षेत्र अर्थात जिनका प्रवाह भारत से पाकिस्तान की ओर है। जबकि देश के बंटवारे के समय भारत के पास 39 करोड़ जनसंख्या और पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) सहित पाकिस्तान की कुल आबादी लगभग 6 करोड़ थी। बावजूद इसके भारत के खिलाफ नेहरू ने पाकिस्तान के साथ यह विसंगतिपूर्ण संधि की।
इस संधि के अनुसार तीन पश्चिमी नदियों सिंधु, चिनाब और झेलम का नियंत्रण पूरी तरह से पाकिस्तान को दे दिया गया। पूर्वी नदियों व्यास, रावी और सतलुज का नियंत्रण भारत को मिला, लेकिन इसमें भी भारत के पानी के प्रयोग का अधिकार सीमित कर दिया गया। सिंधु जल संधि दुनिया का ऐसा सबसे उदार समझौता माना जाता है, जहां नदियों के जलसंसाधन के स्वामी देश ने उस संसाधन पर अपनी संप्रभुता स्वयं ही एक ऐसे देश को अनावश्यक रूप से और देश की जनता के साथ अन्याय करते हुये सौंप दी, जिसके निर्माण का आधार ही भारत के विरुद्ध विध्वंसात्मक विष था। इतना ही नहीं, नेहरू ने संधि में यह भी व्यवस्था की कि जब तक पाकिस्तान अपने यहां इन नदियों के जल के संग्रहण व वितरण की प्रणाली विकसित नहीं कर लेता भारत 12,780 करोड़ (आज की रुपए की विनियम दर के अनुसार) रुपए पाकिस्तान को मुआवजा देगा। पाकिस्तान पर कांग्रेस की मेहरबानी का आलम यह थ कि आजादी के बाद आयी इनकी सरकारों ने अपने 20 प्रतिशत हिस्से के पानी का एक भी बूंद इस्तेमाल नहीं लिया और इतनी बड़ी मात्रा में भारत की जनता का धन पाकिस्तान को मुआवजे के रूप में दिया।
कांग्रेस पार्टी के पाकिस्तान परस्ती की एक और घटना का उल्लेख करना समीचीन होगा। यह सर्वविदित है कि इंदिरा गांधी के शासन में कांग्रेस ने भिंडरवाले को न केवल प्रश्रय दिया, बल्कि सुविधा और संरक्षण भी दिया। जबकि खुफिया एजेंसियां यह रिपोर्ट दे रही थीं कि भिंडरवाले और उसका खालिस्तान आंदोलन पंजाब को भारत से अलग करने के लिये पाकिस्तान और उनकी आईएसआई द्वारा तैयार किया गया षडयंत्र है। इंदिरा की पाकपरस्ती का यह तथ्य भी हमें भूलना नहीं चाहिए। भारतीय सुरक्षा बलों ने 1971 के युद्ध में पाकिस्तान को धूल चटाते हुये न केवल पाकिस्तान को दो टुकड़ों में बांट दिया, बल्कि पाकिस्तान के जनरल समेत 93000 पाकिस्तानी सैनिकों को आत्मसमर्पण करना पड़ा। भारत के पास सुनहरा मौका था कि पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को मुक्त करा लिया जाता। तत्कालीन विदेशी प्रेक्षकों ने कहा है कि तत्कालीन पाकिस्तान प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो अपने सैनिकों को छुड़ाने के लिये पीओके छोड़ने को तैयार थे। पर इंदिरा ने भारतीय सेना के वरिष्ठ अधिकारियों की राय मानने के बजाय हारे हुये पाकिस्तान को प्लेट में सजाकर ‘उपहार’ दिया और वह था संधि में यह प्रावधान शामिल करवाना कि कश्मीर मसले के हल तक पाकिस्तान वहां अपनी सेना रख सकती है। जबकि इससे पूर्व अंतर्राष्ट्रीय नियमों के तहत पीओके में पाकिस्तान को कश्मीर में सैन्य हस्तक्षेप की अनुमति नहीं थी। यह एक तरह से पाकिस्तान को कश्मीर का एक हिस्सा आधिकारिक रूप से देने जैसा था। यह समाचार आप अक्सर पढ़ते होंगे कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पाकिस्तान की तारीफ में कसीदे पढ़ते हैं और पाकिस्तान का दौरा कर भारत की सरकार को अस्थिर करने की खुलेआम अपील करते हैं। इतने सारे ऐतिहासिक तथ्य और आज की कांग्रेस का व्यवहार और नीति तमाम संदेहों को उत्पन्न करती हैं।
मोदी सरकार ने पहली बार सिंधु जल प्रणाली के जल का उपयोग भारत की जनता व किसानों के लिए करने पर दीर्घकालिक योजना तैयार की है। 2014 में सरकार बनने के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि, सिंचाई और जलसंसाधन को लेकर एकीकृत व लक्षित प्राथमिकताओं के साथ दीर्घकालिक योजनाएं बनायीं। सरकार ने इस ओर ध्यान देते हुये तय किया कि भारत के हिस्से का पानी अब पाकिस्तान नहीं जाएगा। इस पानी को रोककर हरियाणा में पानी की किल्लत दूर की जाएगी तथा पानी को राजस्थान तक ले जाया जाएगा। केंद्र सरकार उत्तराखंड में तीन बांध भी बनाने जा रही है, ताकि भारत की तीन नदियों का पाकिस्तान जाने वाला पानी यमुना में लाकर इस क्षेत्र की कृषि सिंचाई व पेयजल समस्या को दूर किया जा सके।
यह ध्यान देने योग्य है कि जिस दिन से सिंधु के जल को भारत के लोगों तक पहुंचाने की योजना का खुलासा हुआ है कांग्रेस के कई नेताओं ने संधि का हवाला देते हुये ऐसा रूदन किया, मानों वे भारत नहीं, पाकिस्तान के राजनीतिज्ञ हों।
इसलिए कांग्रेस और इसके नेताओं द्वारा भारतीय सेना का अपमान करने अथवा उसके पराक्रम पर सवाल उठाने या फिर भारतीय हितों के विरुद्ध पाकिस्तान और पाकिस्तान पोषित आतंकवाद के पक्ष में बैटिंग करना यह सोचने पर विवश करती हैं कि कांग्रेस ऐसा अनजाने में नहीं, बल्कि सोची—समझी रणनीति के तहत नेहरू की नीति का अनुसरण करते हुए करती है।