देश में जब भी भ्रष्टाचार और घोटालों को लेकर कोई चर्चा की जाती है, तो कांग्रेस राज के दौरान हुए रक्षा सौदों का ज़िक्र सबसे पहले किया जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि आजाद भारत के इतिहास में कांग्रेस ने शायद ही ऐसा कोई रक्षा सौदा किया होगा जहां उसने अपने लिए कोई घोटाले का अवसर नहीं ढूंढा हो। शायद यही कारण है कि राफेल डील में हुए कथित घोटाले को लेकर राहुल गांधी इतने आश्वस्त और आक्रामक दिखाई देते हैं। आजादी के बाद से ही कांग्रेस का ऐसी नीतियों को बनाने में विश्वास रहा है जिनसे बड़े-बड़े उद्योगपतियों की जेब भरना आसान हो सके। यही कारण है कि देश इतने सालों तक गरीबी और पिछड़ेपन की जंजीरों में बंधे रहने पर मजबूर हुआ।
कांग्रेस राज के दौरान देश के उच्च-स्तरीय राजनेताओं पर देश के बड़े उद्योगपतियों का खासा प्रभाव हुआ करता था जिसका असर रक्षा सौदों में साफ देखा जा सकता था। यहीं से रक्षा सौदों में बिचौलिये का विचार अस्तित्व में आया। गांधी परिवार के करीबियों को ही अक्सर ऐसे बिचौलियों के तौर पर नियुक्त किया जाता रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के दौर में किया गया बोफोर्स तोपों का सौदा हो, या फिर यूपीए सरकार के समय किया गया ऑगस्टा वेस्टलेंड का सौदा हो, इसका उदाहरण हमें हर जगह देखने को मिल जाता है। बोफोर्स तोपों के सौदे में कांग्रेस की राजीव सरकार द्वारा एक इटैलियन उद्योगपति ओतावियो क्वात्रोची को बिचौलिये के तौर पर नियुक्त किया गया था जो कि कांग्रेस परिवार का बेहद करीबी माना जाता था। इसके अलावा ऑगस्टा वेस्टलैंड सौदे में एक ब्रिटिश नागरिक क्रिश्चियन मिशेल को बिचौलिया बनाया गया जो सोनिया गांधी और राहुल गांधी का करीबी था।
इसके अलावा वर्ष 2012 में कांग्रेस द्वारा की गई पाइलेटस एयरक्राफ्ट डील में भी एक घोटाला सामने आया था। सीबीआई द्वारा इस डील की प्राथमिक जांच की गई थी जिसमें यह सामने आया था कि स्विट्ज़रलैंड की पाईलेटस कंपनी ने भारत के आर्म्स डीलर संजय भंडारी को एक ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट के तहत साढ़े 7 लाख स्विस फ्रैंक का भुगतान किया गया था। तब एक अधिकारी ने कहा था कि हम इस बात की जांच कर रहे हैं कि भंडारी की कंपनी ने पाईलेट्स को किस प्रकार की सुविधाएं प्रदान की थी।
रक्षा घोटालों में नेहरू-गांधी परिवार खुद भी हिस्सेदार बनता आया है। आजादी के बाद वर्ष 1948 में नेहरू के एक करीबी वीके कृष्ण मेमन ने 80 लाख रूपये के सौदे में सेना के लिए 200 जीप खरीदने का अनुबंध किया था, हालांकि तब सेना को सिर्फ 155 जीपें सौपी गई और नेहरू द्वारा साल 1955 में इस केस को बिना किसी आपत्ति के बंद भी कर दिया।
यहां हमें समझने की जरूरत है कि कांग्रेस की सरकारों द्वारा ये जितने भी घोटाले किए गए, इनमें भारतीय करदाताओं के करोड़ों रुपये का दुरुपयोग किया गया। ऑगस्टा वेस्टलैंड डील 3600 करोड़ रुपये की थी, तो वहीं बोफोर्स डील लगभग 1500 करोड़ रुपये में की गई थी। रक्षा सौदों में इतना ज्यादा पैसा लगे होने की वजह से ऐसे सौदों में घोटाले करने के अवसर भी बढ़ जाते हैं, जिसको बिचौलिये के जरिये अंजाम दिया जाता है। अब तक ऐसा ही होता आया था, लेकिन वर्ष 2014 के बाद यह व्यवस्था पूरी तरह बदल गई। जिस राफेल डील को यूपीए सरकार फ़ाइनल करके गई थी, उस डील को मोदी सरकार आने के बाद पूरी तरह बदल दिया गया और फ्रांस और भारत सरकार के बीच सीधे तौर पर इस डील को साइन किया गया, यानि सौदे से बिचौलिये के कॉन्सेप्ट को ही पूरी तरह खत्म कर दिया गया और यही कारण था कि नई राफेल डील से कांग्रेस को सबसे ज़्यादा आपत्ति हुई।
मोदी सरकार द्वारा फाइनल की गई नई राफेल डील को लेकर राहुल एंड कंपनी पिछले कई महीनों से पीएम मोदी पर बिना किसी तथ्य के आरोप लगाते आ रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ सुप्रीम कोर्ट और सीएजी जैसी संस्थाए इस डील में किसी तरह की अनियमित्ता होने की आशंका को पहले ही खारिज कर चुकी है। लोकसभा चुनावों से ठीक पहले ऐसे बेवजह मुद्दों को जमकर हवा दी गई जिसके पीछे राहुल गांधी और कांग्रेस की बौखलाहट साफ नज़र आती है। कांग्रेस को चाहिए कि मोदी सरकार द्वारा शुरू की गई इस बिचौलिया-रहित नई परंपरा का वह स्वागत करे और पारिवारिक भ्रष्टाचार की परंपरा को हमेशा के लिए भुला दे।