अंग्रेजों से स्वतन्त्रता पाने के एक महीने बाद से हमारी सरकारों ने एकल मानक समय समस्त भारत पर लागू करने का निर्णय लिया। इसके पीछे तर्क यह दिया गया की हाल ही में स्वतंत्र हुये भारत में चारो दिशाओं में एकता की भावना बढ़नी चाहिए। भारत काफी विशाल देश है, जो पूरब से पश्चिम तक लगभग 3000 किलोमीटर के वर्गक्षेत्र में फैला हुआ है।
इसी विविधता में एक विविधता समय की भी होती है। उदाहरण के तौर पर कोलकाता में सूर्योदय मुंबई से दो घंटे पहले ही हो जाता है। परंतु भारतीय मानक समय अप्रत्यक्ष रूप से लोगों को स्वाभाविक तौर पर काम नहीं करने देता है। ग्रीनविच मीन टाइम से हमारा आईएसटी साढ़े 5 घंटे आगे रहता है। बता दें कि ग्रीनविच मीन टाइम को दुनिया का मानक समय माना जाता है। आईएसटी यानि भारतीय मानक समय को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज से मापा जाता है, जो 82.5° पूर्व के लोंगिट्यूड पर पड़ता है।
द वीक मैगज़ीन में सांसद शशि थरूर इसी विषय पर एक रोचक मत रखते हुये लिखते हैं कि, ‘व्यावहारिक मापदंड पर इसका कोई अर्थ नहीं बनाता की अंडमान या असम के लोगों को आगरा के लोगों के अनुसार अपना समय तय करना पड़े। इससे जीवनशैली एवं ऊर्जा संरक्षण जैसे विविध क्षेत्रों में विपरीत असर पड़ता है। हमें तो ये भी सुझाव दिये गए हैं की नॉर्थ ईस्ट में अच्छे क्रिकेटर इसलिए नहीं उभरते क्योंकि पश्चिमी भारत के इनके समकालीनों के मुताबिक एकदिवसीय खेल के अभ्यास के लिए उनको बहुत कम समय के लिए ही दिन का उजाला नसीब हो पता है।
एक अलग टाइम ज़ोन की मांग के पक्ष में पूर्व और पूर्वोत्तर से कई राजनेताओं, बुद्धिजीवियों एवं उद्योग ने अपनी अपनी आवाजें उठाई हैं। कुछ लोग इसे न्यायालय की चौखट तक भी ले गए, और स्वयं कई न्यायाधीशों ने स्वीकारा है की भारत के विशाल भूगोल के लिए एक ही समय काफी हद तक तर्कहीन भी है। हालांकि इसे तब तक जारी रखना चाहिए जब तक इसे बदलने के लिए कोई निर्णायक कदम नहीं उठाया जाता।
पत्रकार, लेखक एवं शिक्षाविद संजय हजारिका ने पूर्वोत्तर को एक ऐसे ‘टाइम जोने में फंसा हुआ’ बताया, जिसमें न ‘व्यावहारिक बुद्धि, न ही सामाजिक बोध है और न ही आर्थिक समझ है।‘ राष्ट्रीय उन्नत अध्ययन संस्थान के प्रोफेसर डीपी सेनगुप्ता और दिलीप आहूजा के द्वारा 2014 में की गयी एक स्टडी के अनुसार आईएसटी को केवल आधा घंटा आगे बढ़ाने से भारत में लगभग 2.7 बिलियन यूनिट बिजली हर वर्ष बचाई जा सकती है। ऐसा इसलिए क्योंकि समय में बदलाव के बाद लोग दिन के उजाले के समय ही अपनी दिनचर्या का अनुसरण करेंगे और उन्हें प्रकाश के लिए बिजली की कम जरूरत पड़ेगी।
भारत में एक से ज़्यादा टाइम ज़ोन होने का लाभ केवल बिजली की बचत तक ही सीमित नहीं रहेगा। इससे लोगों में उत्पादकता भी बढ़ेगी, क्योंकि कई वैज्ञानिक शोधों ने सिद्ध किया है की मानव शरीर दिन के घंटों में काफी बेहतर काम करता है। यूएसए, रूस एवं कई यूरोपियन देश अलग अलग टाइम ज़ोन का उपयोग करते हैं, जिससे लोगों में उत्पादकता बढ़े।
भारत के लिए भी अलग टाइम ज़ोन कोई नई बात नहीं है। स्वतन्त्रता पूर्व देश के कई बड़े शहर, जैसे दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता, मद्रास इत्यादि के अलग अलग मानक समय होते थे। असम का भी अलग मानक समय होता है, जो चाय बगानों के प्राकृतिक काम के घंटों के अनुसार ‘बागान टाइम’ के नाम से प्रसिद्ध था। बदलाव के आलोचकों का कहना है की अलग अलग टाइम ज़ोन का अर्थ है की फ्लाइट और ट्रेन की समयसारिणी में काफी उलझन पैदा हो सकती है। एक और तर्क जो बताया जाता है, वो यह की चीन भारत से बड़ा होने के बावजूद एकमुश्त ‘बीजिंग टाइम पर चलता है।
यह सत्य है की अलग टाइम ज़ोन से फ्लाइट और ट्रेन की समयसारिणी में थोड़ी अव्यवस्था उत्पन्न हो सकती है, पर कुछ समय के बाद लोग इसमें समायोजित हो जाते हैं। अमेरिका में तो 9 टाइम ज़ोन होते हैं, और लोग उसमें भी समायोजित हो चुके हैं, इस बात के बाद भी की यूएसए में भारत से ज़्यादा फ्लाइट संचालित होते हैं। जहां तक चीन की बात आती है, तो एकमुश्त टाइम ज़ोन वहां की कम्यूनिस्ट सत्ता ने लगाया था।
चीन में कम्यूनिस्ट सत्ता ने किसी प्रकार की प्रक्रिया में लचीलेपन को लागू ही नहीं होने दिया था, ठीक वैसे ही जैसे भारत में नेहरूवादी समाजवादी राज में नहीं हुआ था। अब भारत को इन गलतियों को सुधारने में ज़रा भी विलंब नहीं करना चाहिए। भारत सरकार को इस मामले पर विशेषज्ञों की सहायता से देश में एक से ज़्यादा टाइम जोन बनाए जाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाने की आवश्यकता है।