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धृतराष्ट्र का पुत्र होने के बाद भी पांडवों की तरफ से युद्ध लड़ा था युयुत्सु

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
18 July 2019
in धार्मिक कथा, संस्कृति
ये कथा है धर्मनिष्ठ युयुत्सु की

PC: NBT

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ये कथा है धर्मनिष्ठ युयुत्सु की

महाभारत के महाकाव्य से भला कौन परिचित नहीं है? पांडवों और कौरवों के बीच की तनातनी पर रचित इस महाकाव्य में हमें अक्सर बताया है की कैसे 5 पांडव धृतराष्ट्र के 100 कौरव पुत्रों पर भारी पड़े थे। इसी महाकाव्य में हमें विष्णु के सातवें अवतार श्रीक़ृष्ण की महिमा और जीवन का मार्गदर्शन मिलता है । लेकिन महाभारत में एक ऐसे भी व्यक्ति थे, जिनहोने सदैव धर्म का साथ दिया, परंतु उनका गुणगान करना तो बहुत दूर की बात, उनके बारे में कोई चर्चा भी नहीं करता। इस व्यक्ति का नाम था युयुत्सु, जो न सिर्फ धृतराष्ट्र के 101वें पुत्र थे, अपितु उनके इकलौते ऐसे पुत्र थे, जो महाभारत के भीषण युद्ध के बाद भी जीवित बच गए थे।

लोग कहते हैं की धृतराष्ट्र और गांधारी के 100 पुत्र हुये थे, जो बाद में कौरव के नाम से प्रचलित हुये थे। हालांकि ये पूर्ण सत्य नहीं है। धृतराष्ट्र को व्यास ऋषि से आशीर्वाद मिलने के दो वर्ष पश्चात भी गांधारी को संतान की प्राप्ति नहीं हो रही थी। उधर राजकुमार पांडु और उनकी धर्मपत्नी कुंती को धर्मराज के आशीर्वाद से युधिष्ठिर की उत्पत्ति हुई, जिसके कारण धृतराष्ट्र और अधीर हो उठे।

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उस समय धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी की सेवा के लिए सुगधा नामक दासी को नियुक्त किया गया था, जो वैश्य वर्ण से संबंध रखती थी। इनसे धृतराष्ट्र को युयुत्सु की उत्पत्ति हुई, और संयोगवश उसी दिन सुयोधन का भी जन्म हुआ, जो बाद में दुर्योधन के नाम से चर्चित हुये। इसलिए युयुत्सु उम्र में दुर्योधन के समान थे और अपने 99 भाइयों एवं बहन दुशाला से बड़े थे।

कुल मिलकर धृतराष्ट्र की 102 सन्तानें थी, जिसमें धृतराष्ट्र को गांधारी से 101 सन्तानें हुई, और दासी सुगधा से युयुत्सु। रोचक बात तो यह है की जिस दिन युयुत्सु और सुयोधन [दुर्योधन] का जन्म हुआ था, उसी दिन पवनदेव के आशीर्वाद से पांडु और कुंती को वीर योद्धा भीम की प्राप्ति भी हुई थी।

और पढ़े : भगवान परशुराम – अधर्म के विरुद्ध लड़ने वाले योद्धा ब्राह्मण की कथा

युयुत्सु संस्कृत के दो शब्दों का मिश्रण है, ‘युद्ध’ और ‘उत्सुक्त’। यानि युयुत्सु का अर्थ है वह व्यक्ति, जो युद्ध के लिए उत्सुक हो। युयुत्सु युद्धकला में बेहद निपुण थे और वे एक समय पर 60000 से भी ज़्यादा योद्धाओं से लड़ने का माद्दा रखते थे, जिसके कारण उन्हे ‘महारथी’ की उपाधि मिली थी। उन्हे धृतराष्ट्र के पुत्र होने के नाते ‘धार्तराष्ट्र’, कुरु के वंशज होने के नाते ‘कौरव्य’ और वैश्य वर्ण की सुगधा के पुत्र होने के नाते ‘वैश्यपुत्र’ के नाम से भी जाना जाता है।

हालांकि इसके साथ साथ युयुत्सु के अंदर एक और गुण भी था, और वो था धर्म के लिए हर स्थिति में एक सच्चे सिपाही की भांति डटे रहना। भले वे ही दुशासन समेत 99 कौरवों और दुशाला के ज्येष्ठ भ्राता थे, परंतु वे धर्मनिष्ठ होने के कारण दुर्योधन और दुशासन के अधार्मिक कृत्यों का कभी भी समर्थन नहीं करते थे।

परंतु दासी पुत्र होने के कारण युयुत्सु को अधिकांश कौरवों ने कभी भी सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा। अपने धार्मिक स्वभाव के कारण युयुत्सु कौरवों की आँखों में बहुत खटकते थे, जिसके कारण युयुत्सु ने पांडवों का साथ देना उचित समझा।

धृतराष्ट्र के पुत्रों में एकमात्र ऐसे पुत्र थे, जिन्होंने धर्म का साथ नहीं छोड़ा

धीरे धीरे युयुत्सु पांडवों के विश्वसनीय गुप्तचर में परिवर्तित हो गए, जिनहोने समय समय पर पांडवों की हर प्रकार के संकटों से रक्षा की। उदाहरण के तौर पर जब द्यूत क्रीडा में हारने के पश्चात जब पांडवों को वनवास पर जाना पड़ा, तो कौरवों वन में विकत परिस्थितियों के बावजूद पांडवों की नीतिपूर्ण गति देखकर काफी क्रोधित हुए, और उन्होने पांडवों के उस जलाशय में विष मिलाने का षड्यंत्र रचा, जिससे पांडव अक्सर जल का सेवन किया करते थे।

तब ये युयुत्सु ही थे, जिसने सही समय पर पांडवों के मित्र और गंधर्वराज चित्रसेन को सूचित कर पांडवों को मरने से बचाया। जब द्रौपदी का चीरहरण हुआ था, तब कौरवों में विकर्ण के अलावा धृतराष्ट्र पुत्रों में केवल युयुत्सु ने इस जघन्य कृत्य का विरोध किया था। फिर समय आया महाभारत के ऐतिहासिक धर्मयुद्ध का। इस धर्मयुद्ध में सभी योद्धाओं को अपना पक्ष चुनने की पूरी स्वतन्त्रता थी। जब युयुत्सु के सामने प्रश्न रखा गया की वो किसका पक्ष लेंगे, तो सदैव धर्म का रास्ता अपनाने वाले युयुत्सु ने धर्म का मार्ग अपनाते हुये पांडवों का पक्ष चुना।

युयुत्सु की भांति कौरवों में विकर्ण भी बहुत धार्मिक थे, परंतु वे धर्म से ज़्यादा परिवार के प्रति कर्तव्यनिष्ठ थे। यही कारण था की धर्मपरायण होने के बाद भी विकर्ण को युद्ध में वीरगति की प्राप्ति हुई, जबकि युयुत्सु धृतराष्ट्र पुत्रों में अकेले थे, जो युद्ध के बाद भी जीवित बच गए थे। धर्म के लिए युयुत्सु ने परिवार के मोह को त्यागने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाये, जिसके कारण वे अन्य धृतराष्ट्र पुत्रों से श्रेष्ठ सिद्ध हुये।

युयुत्सु की धर्मपरायणता को पांडव कभी भी भूले नहीं। इसीलिए जब यदुवंश के अंत निकट आने पर श्रीक़ृष्ण सन्यास लेने के लिए और पांडव स्वर्गारोहण के लिए निकल पड़े, तो युयुत्सु को हस्तिनापुर के संरक्षक का पदभार सौंपा गया, और उनकी देखरेख में युवा परीक्षित को हस्तिनापुर का राजा घोषित किया गया।

युयुत्सु धृतराष्ट्र के पुत्रों में एकमात्र ऐसे पुत्र थे, जिनहोने विकट परिस्थितियों में भी धर्म का साथ नहीं छोड़ा और समाज के लिए एक नया आदर्श स्थापित किया। हम नमन करते हैं ऐसे वीर योद्धा को, जिनहोने सदैव धर्म को प्राथमिकता दी और हमारे जनमानस को धर्म के रास्ते पर चलने को प्रेरित किया।

और पढ़े : केवल भारत में ही नहीं बल्कि चीन, जापान, बाली, म्यांमार और कई देशों में भी होती है देवी सरस्वती की आराधना

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