वर्तमान समय में एक सवाल आज भी कई लोगों को कचोटता है कि आखिर भारत में अल्पसंख्यक कौन है? ये अल्पसंख्यक का विचार आया कहां से? भारत जैसे विशाल और विविध देश में यह सोचना भी हास्यास्पद होगा कि अल्पसंख्यक की कोई स्थायी परिभाषा भी होगी। भारतीय परिवेश में अल्पसंख्यक शब्द पर कई व्याख्याएँ हैं, पर इनमें से कोई भी अल्पसंख्यक शब्द का असली अर्थ समझाने में असमर्थ रहा है। आज भी कोई नहीं समझ पाया है कि आखिर अल्पसंख्यक कौन कहलाता है और क्यों?
यदि हम धार्मिक मानकों के अनुसार चले, तो उन लोगों को अल्पसंख्यक कहा जाता है जो एक प्रमुख सामाजिक समूह के मुक़ाबले ज़्यादा कष्ट झेलते हैं। ऐसे लोग ‘समाज या देश में प्रतिकूल जीवन जीने के लिए बाध्य होते हैं। इन्हें सामाजिक जीवन के कई बिन्दुओं, जैसे रोजगार, आवास, स्वस्थ्य, शिक्षा इत्यादि में भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
अगर इन्हीं मानकों के हिसाब से चले, तो इस देश में सिख, बौद्ध, यहूदी, ईसाई जैसे धर्म के लोग वास्तव में अल्पसंख्यक कहलाने योग्य हैं। सुप्रीम कोर्ट के टीएमए पाई फाउंडेशन एंड अदर्स बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक केस पर सुनाये गए निर्णय के अनुसार, ‘चाहे धार्मिक या भाषाई आधार पर, एक अल्पसंख्यक की पहचान राज्य के जनसांख्यिकी के आधार पर होती है न कि देश की सम्पूर्ण जनसंख्या के आधार पर।‘ ऐसे ही 1971 के एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा था कि भले ही हिन्दू देश में बहुसंख्यक हों, लेकिन पंजाब राज्य में वे अल्पसंख्यक ही कहलाएंगे।
परंतु यदि इन परिभाषाओं पर हम अमल करते हैं, तो इसका अर्थ है कि भारत में अल्पसंख्यक समझे जाने वाले मुसलमान अल्पसंख्यक कहलाने योग्य नहीं है। भारत के कई राज्य, जैसे जम्मू और कश्मीर, केरल, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में तो मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं, बहुसंख्यक की श्रेणी में आते हैं। तो सवाल आज भी लाज़मी है आखिर भारत में कौन और क्यों अल्पसंख्यक कहलाता है?
1992 में पारित राष्ट्रीय अल्पसंख्यक कमीशन एक्ट के अनुसार देश में मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी इस देश में आधिकारिक रूप से अल्पसंख्यक हैं। 2014 में इस सूची में जैन समुदाय को भी सम्मिलित किया गया। कुल मिलाकर 25 करोड़ लोग, यानि देश के लगभग 20 प्रतिशत की जनसंख्या को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया है। लेकिन जब अल्पसंख्यकों के बारे में लोग बात करते हैं, तो केवल मुसलमानों का नाम सबसे आगे आता है। मतलब ये कि अल्पसंख्यक होने का फायदा एक तरह से एक ही मुसलमानों को ही मिलता है और अन्य इसके समक्ष धूमिल नजर आते हैं.
अजीब बात तो यह भी है कि एक समुदाय, जिसकी जनसंख्या विश्व के कई देशों को ही पीछे छोड़ दे, वो हमारे देश में अल्पसंख्यक क्यों कहलाते हैं? यदि आज देश की जनसंख्या को देखें तो अब समय आ गया है कि अल्पसंख्यकों के सिद्धान्त की समीक्षा की जाए और जितनी जल्द हो सके, मुसलमानों का अल्पसंख्यक दर्जा अविलंब वापिस लिया जाए।
इसके अलावा इन लोगों को अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के औचित्य की भी समीक्षा करनी चाहिए। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक कमीशन 1992 के सुझावों पर 2006 में गठित अल्पसंख्यक मंत्रालय की कमान सबसे पहले महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री ए आर अंतुले ने संभाली थी। तबसे एक भी अल्पसंख्यक मंत्री गैर मुस्लिम नहीं रहा है। क्या यह अल्पसंख्यक तुष्टीकरण को बढ़ावा नहीं देता?
अल्पसंख्यक मंत्रालय ने जिस एक अनचाही प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है, वह है पहचान आधारित राजनीति को बढ़ावा देना। इससे यह धारणा फैलती जा रही है कि भारत में आज भी समुदायों के बीच वैमनस्य व्याप्त है, और भारतीयों में किसी प्रकार की एकता नहीं है। क्या ये अलग मतदाताओं जैसे बेतुके सिद्धांतों को बढ़ावा नहीं देता? जिस देश के संविधान के प्रथम पृष्ठ पर ही ये लिखा हो कि भारत एक ‘संप्रभु धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणराज्य’ है, तो वहां अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का क्या काम? क्या सभी भारतीय एक नहीं है? यदि हम धर्मनिरपेक्ष है, तो अल्पसंख्यक मंत्रालय की आखिर क्या आवश्यकता है?
सच पूछें तो यही सही समय है कि हम लोग अल्पसंख्यकों के दर्जे के मामले में कोई सख्त कदम उठाये। यदि हम वास्तव में एक धर्मनिरपेक्ष भारत में विश्वास रखते हैं तो अल्पसंख्यक मंत्रालय को भंग करने की तरफ सार्थक कदम बढायें। जब तक हम ऐसे कदम नहीं उठाते हैं, तब तक एक धर्मनिरपेक्ष भारत की राह तय नहीं हो सकती।