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पहले अंतर्राष्ट्रीय मैच में ज़ीरो स्कोर करने से लेकर भारत के महानतम खिलाड़ियों में से एक बनने तक का सफर

Animesh Pandey द्वारा Animesh Pandey
7 July 2019
in मत
पहले अंतर्राष्ट्रीय मैच में ज़ीरो स्कोर करने से लेकर भारत के महानतम खिलाड़ियों में से एक बनने तक का सफर

(PC: The Hindu)

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महेंद्र सिंह धोनी के बारे में कौन नहीं जानता? आईसीसी चैंपियन्स ट्रॉफी हो, आईसीसी टी20 विश्व कप हो, या फिर आईसीसी क्रिकेट विश्व कप हो, ऐसा कोई टूर्नामेंट नहीं है जो इनके नेतृत्व में भारत ने नहीं जीता हो। आज उनके 38वें जन्मदिन के शुभ अवसर पर हम प्रादेशिक सेना में लेफ्टिनेंट कर्नल एवं भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के उस समय को आपके समक्ष प्रस्तुत करना चाहते हैं, जब उन्हें भारतीय क्रिकेट टीम में प्रवेश करने के लिए एडी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ा था।

7 जुलाई 1981 को तत्कालीन बिहार के रांची शहर में जन्म लेने वाले महेंद्र सिंह धोनी मूल रूप से उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जिले से हैं और वे लामगढ़ ब्लॉक के ल्वाली ग्राम से ताल्लुक रखते हैं। इनके पिता पान सिंह धोनी MECON कंपनी में कनिष्ठ प्रबंधन विभाग में तैनात थे। यूं तो धोनी प्रसिद्ध औस्ट्रेलियाई विकेटकीपर एडम गिलक्रिस्ट के कौशल के कायल रहे हैं, परंतु बचपन में उनके आराध्यों में क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर, बॉलीवुड अभिनेता अमिताभ बच्चन एवं प्रसिद्ध गायिका लता मंगेशकर शामिल थे।

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महेंद्र सिंह धोनी रांची में डीएवी जवाहर विद्या मंदिर, श्यामली के विद्यार्थी थे। यहीं पर उनका खेलों से परिचय हुआ, और शुरुआती दिनों में वे फुटबाल टीम के गोलकीपर हुआ करते थे, और उन्होंने क्लब एवं जिला स्तर पर अपने विद्यालय का प्रतिनिधित्व भी किया था। हालांकि इनके स्कूली कोच ने जब इन्हे एक स्थानीय क्रिकेट क्लब के लिए खेलने को भेजा, तब इनका विकेटकीपिंग का कौशल निखर कर सामने आया।

समय के साथ धोनी के कद और खेल के कौशल में विकास होने लगा और उनकी प्रतिभा को पहचानते हुये सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड [सीसीएल] में वरिष्ठ अफसर एवं बिहार क्रिकेट असोशिएशन के पूर्व उपाध्यक्ष देवल सहाय ने अपनी कंपनी के क्रिकेट टीम में जगह दी। यही वो समय था जब धोनी उन्हीं संतोष लाल के संपर्क में आए, जिन्होंने धोनी को उनका आइकोनिक ‘हेलीकाप्टर शॉट’ सिखाया। कहा जाता है कि शॉट सिखाने के एवज में संतोष ने धोनी से केवल समोसे और चाय का शुल्क लिया था।

वर्ष 1998 से महेंद्र सिंह धोनी के करियर का उत्थान प्रारम्भ हुआ। देवल सहाय के समर्थन से धोनी एक ही वर्ष में क्षेत्रीय क्रिकेट से राष्ट्रीय क्रिकेट पर छा गए। अंडर 19 स्तर की रणजी ट्रॉफी माने जाने वाली ‘कूच बिहार ट्रॉफी’ में महेंद्र सिंह धोनी ने बिहार को फाइनल में जगह दिलाई, जहां उन्होंने बिहार के 357 रन के कुल स्कोर में 84 रनों का योगदान भी दिया था। हालांकि उसी मैच में इनकी प्रतिद्वंदी टीम पंजाब टीम के कप्तान और बाद में धोनी के विश्वसनीय मित्र बनने वाले युवराज सिंह ने उस मैच में अकेले 358 का स्कोर बनाकर पंजाब का स्कोर 839 तक पहुंचा दिया। फलस्वरूप युवराज को 2000 के अंडर 19 विश्व कप के लिए चुना गया, और धोनी को टीम इंडिया में शामिल होने के लिए कुछ और वर्ष प्रतिक्षा करनी पड़ी।

धोनी निराश अवश्य हुये, पर हताश नहीं। इन्हे उसी समय 2000 के रणजी ट्रॉफी में बिहार टीम में जगह भी मिली, जहां उन्होंने अपने पदार्पण मैच में ही अर्धशतक ठोंकते हुये असम के विरुद्ध दूसरी पारी में नाबाद 68 रन बनाए। 2000-01 के रणजी सत्र में धोनी ने बंगाल की रणजी टीम के विरुद्ध अपना पहला प्रथम श्रेणी शतक ठोका, बावजूद इसके कि बिहार को उस मैच में अंत में पराजय ही प्राप्त हुई।

इसके बाद महेंद्र सिंह धोनी को रेलवे में जगह मिली, जहां उन्होने वर्ष 2001-2003 तक खड़गपुर स्टेशन से बतौर टिकट परीक्षक रेल्वे को अपनी सेवाएँ। इसके साथ ही साथ उन्होंने क्रिकेट में भी अपनी गतिविधियां जारी रखी। यूं तो महेंद्र सिंह धोनी अपने साथियों के बीच अपनी बेबाकी और ईमानदारी के लिए जाने जाते थे, परंतु ये उतने ही शरारती भी थे। एक समय उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर अपने ऊपर सफ़ेद चादरें ओढ़ ली और रात में बेधड़क रेलवे क्वार्टर में घूमने लगे। रात में ड्यूटी करने वाले चौकीदार उन्हे भूत समझ बैठे और पूरे कॉम्प्लेक्स में अगले दिन बवाल मच गया था।

परंतु धोनी लाख कोशिशों के बावजूद टीम इंडिया में जगह नहीं बना पा रहे थे। एक समय तो ऐसा लगा कि उनके सभी प्रयास बेकार जा रहे थे। हालांकि जल्द ही समय बदला, और वर्षों के अथक परिश्रम का परिणाम उन्हे वर्ष 2003 के अंत में मिला, जब उन्हे अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेटर दीप दासगुप्ता के स्थान पर दिलीप ट्रॉफी के फाइनल्स में पूर्वी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला।

यही वो समय था जब बीसीसीआई को एक कुशल विकेटकीपर बल्लेबाज़ की आवश्यकता थी, और राहुल द्रविड़ को छोड़ उनके बाकी प्रयोग असफल सिद्ध हुये थे। उस समय बीसीसीआई पर गुटबाजी और वंशवाद को बढ़ावा देने के भी आरोप लग रहे थे। ऐसे में तत्कालीन अध्यक्ष जगमोहन डालमिया की अध्यक्षता में बीसीसीआई ने टैलंट रिसोर्स डेव्लपमेंट विंग यानि TRDW का सृजन किया, जिसके प्रशासन का भार पूर्व क्रिकेटर दिलीप वेंगसरकर एवं बृजेश पटेल को सौंपा गया। इसी इकाई के कारण आज हमें धोनी, तेज़ गेंदबाज इरफान पठान एवं रुद्र प्रताप सिंह और सुरेश रैना जैसे क्रिकेटरों का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।

इस इकाई का काम था छोटे शहरों में छुपी प्रतिभाओं को खोजने का अभियान चलाना। इन्हीं में एक अभियानों में पूर्व क्रिकेटर एवं TRDW के अफसर प्रकाश पोद्दार की दृष्टि एमएस धोनी पर पड़ी, जिन्होंने दिलीप ट्रॉफी में पूर्वी क्षेत्र के हारने के बावजूद एक जुझारू पारी खेली थी। फिर क्या था, TRDW को धोनी मिल गया, और धोनी को टीम इंडिया।

2003-04 के इंडिया ए के ज़िम्बाब्वे एवं केन्या टूर के लिए महेंद्र सिंह धोनी को चुना गया, जहां उन्होने फ़ाइनल में पाकिस्तान के विरुद्ध मैच जिताऊ पारी खेली थी। इनके परिश्रम को पहचानते हुये तत्कालीन कप्तान सौरव गांगुली ने इनका नाम सुझाया और जल्द ही 2004 में भारत बांग्लादेश की द्विपक्षीय वन डे सीरीज़ से महेंद्र सिंह धोनी का अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण हुआ। किसे पता था की अपने पहले अंतर्राष्ट्रीय मैच में शून्य का स्कोर अर्जित करने वाला धोनी जल्द ही इस खेल के सभी प्रारूपों में महारत करने वाले चुनिन्दा क्रिकेटरों में शुमार हो जाएंगे।

Tags: क्रिकेटमहेंद्र सिंह धोनीविश्व कप
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