एनआईटी मेघालय इन दिनों विवादों के केंद्र में है। हाल ही में कैंपस में स्थापित की गयी भगवान गणेश जी की मूर्ति को बीते सोमवार कैम्पस से हटा दिया गया है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि संस्थान में अन्य धर्म के विद्यार्थियों ने विरोध जताया था और उन्होंने कहा कि मूर्ति स्थापना से उनकी धार्मिक भावनाएँ आहत हो रही हैं और इससे कैंपस में तनाव उत्पन्न हो सकता है।
एनआईटी ने इस मूर्ति को लगभग एक सप्ताह पहले डायरेक्टर के सचिवालय के प्रवेश द्वार पर स्थापित किया था। परंतु मूर्ति स्थापना के कुछ ही दिनों बाद जैंतिया स्टूडेंट्स यूनियन (JSU) ने डायरेक्टर को एक पत्र भेजते हुये कैम्पस से मूर्ति को हटाने को कहा। पत्र में लिखा हुआ था, “सरकारी संस्थानों में धार्मिक मूर्तियां स्थापित करना नियमों के खिलाफ है। हम प्रशासनिक स्तर पर अपील करते हैं कि भगवान गणेश की मूर्ति स्थापना पर रोक लगा दी जाये, अन्यथा बाकी धर्मों के विद्यार्थियों की भावनाएँ आहत हो सकती है”। इसके स्थान पर उन्होंने विज्ञान, कला अथवा साहित्य के क्षेत्र से किसी व्यक्ति की मूर्ति लगाने का विकल्प सुझाया।
एनआईटी मेघालय के डायरेक्टर बिभूति भूषण बिसवाल का कहना था, “इसमें कोई धार्मिक एंगल नहीं था। ये केवल कैंपस में सजावट के उद्देश्य से स्थापित किया गया था”। इसके आगे उन्होने कहा, “यहाँ पर कोई धार्मिक मुद्दा हमें नहीं खड़ा करना था। पर छात्र संघ ने इसे दूसरे ही परिप्रेक्ष्य में ले लिया है। अब इस मूर्ति को हटा दिया जाएगा”।
छात्रसंघ का यह रवैया काफी निराशाजनक है और यह एनआईटी मेघालय के लिए काफी चिंताजनक प्रश्न भी खड़ा करता है। 2012 में प्रारम्भ हुई एनआईटी मेघालय देशभर में स्थापित 31 एनआईटी संस्थानों में से एक है। यूं तो इसका कैम्पस चेरापूंजी में स्थित है, परंतु उसका निर्माण अभी पूरा नहीं हुआ है, जिसके कारण वर्तमान कैम्पस शिलोंग में स्थित है।
एनआईटी मेघालय एक राष्ट्रीय इंजीनियरिंग संस्थान है जहां देश भर के विद्यार्थी अध्ययन करने जाते हैं, ऐसे में गणेश जी की मूर्ति हटाना कहां से उचित है। मूर्ति हटाने के पीछे कुछ अल्पसंख्यकों की धार्मिक भावना आहत होने की बात कही गयी है, तो गणेश जी की मूर्ति हटाने से क्या उन लोगों की धार्मिक भावनाएं आहत नहीं हो रही हैं, जो सनातन धर्म के अनुयायी हैं और भगवान गणेश को अपना आराध्य मानते हैं?
अभी कुछ ही महीने पहले एनआईटी मेघालय लगभग इन्ही कारणों से विवादों के केंद्र में आया था, जब स्थानीय और बाहरी विद्यार्थियों में झड़प हुई थी। ये झड़प जल्द ही हिंसक प्रदर्शन में बदल गयी, जहां एक बस में सवार बाहरी एनआईटी के छात्रों पर स्थानीय छात्रों ने हमला कर दिया था। उस समय किसी ने भी ‘अल्पसंख्यक खतरे में है’ का नारा नहीं लगाया। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार मेघालय की 74% आबादी ईसाई है, और मेघालय ईसाईयत के जाल में इस तरह फंस चुका है कि वहाँ से सनातन संस्कृति का लगभग सफाया ही हो चुका है। अभी पिछले वर्ष ही शिलांग में सिक्खों के विरुद्ध स्थानीय इसाइयों ने हिंसक प्रदर्शन किए थे, जो लगभग दंगों में परिवर्तित हो चुका था, जिसे राष्ट्रीय मीडिया ने देश से छुपाने का भरसक प्रयास किया था।
परंतु ये रीति केवल ईसाई बहुल मेघालय तक ही सीमित नहीं है। असम, त्रिपुरा और मणिपुर को छोड़ दें तो बाकी का पूर्वी भारत इसी अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की गिरफ्त में है, जहां अल्पसंख्यकों को प्रसन्न करने के लिए बहुसंख्यकों को न केवल अपमानित किया जाता है, बल्कि उनकी आस्था के साथ खिलवाड़ भी किया जाता है, और बंगाल की जनता से बेहतर इसे कौन जान सकता है? सरस्वती पूजा हो, या फिर दुर्गा पूजा, या फिर रामनवमी का उत्सव ही क्यों न हो, बंगाल की राज्य सरकार और वहाँ के कट्टरपंथियों ने इसे रोकने, उत्सव में खलल डालने और हिंसक प्रदर्शन करने से खुद को रोक नहीं पाए।
इससे पहले भी देशभर के कई शैक्षणिक संस्थानों से देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हटाकर सनातन संस्कृति को अपमानित करने के अनेकों प्रयास किए गए हैं। बेंगलुरु विश्वविद्यालय में जिस जगह सरस्वती जी की मूर्ति लगनी थी, वहाँ पर ज़बरन गौतम बुद्ध की मूर्ति लगवाई गयी, जिसके कारण कैम्पस में काफी तनाव भी उत्पन्न हुआ। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जिस तरह हमारे देश की संस्कृति व धार्मिक आस्था पर समाज का एक खास वर्ग या विचारधारा हमला करता है और हमारी आस्था को निरंतर अपमानित करने का प्रयास करता है, वो हमारे समाज और हमारे देश के भविष्य के लिए निस्संदेह एक शुभ संकेत नहीं है।