महाराष्ट्र में राजनीतिक स्थिति ने अब एक रोमांचक मोड़ लिया है। हाल ही में राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हुआ है। सीएम की कुर्सी हथियाने के लिए शिवसेना ने भाजपा से नाता तोड़ने के बाद एनसीपी और काँग्रेस से सरकार बनाने के लिए सहायता मांगी है। एनसीपी ने भले ही शिवसेना के साथ सरकार बनाने में दिलचस्पी दिखाई हो, पर सच्चाई यह है कि कांग्रेस ने अभी तक इस दिशा में कोई निर्णय नहीं लिया है।
परंतु इस राजनीतिक दांवपेंच में कांग्रेस के पास एनसीपी और शिवसेना के गठबंधन को समर्थन देकर सत्ता में आने का एक सुनहरा अवसर है। पर अभी तक पार्टी ने इस गठबंधन को अपना समर्थन नहीं दिया है। पार्टी के नेता अन्य विधायकों के साथ इस गठबंधन को समर्थन देने के लिए लंबी चौड़ी बैठकें करने का दावा कर रहे हैं।
वैसे तो अक्सर ही कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता से बाहर रखने का हरसंभव प्रयास किया है, चाहे उसके पास संख्याबल हो या न हो। 2013 के दिल्ली के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 70 में से 31 सीट जीतकर सिंगल लार्जेस्ट पार्टी के तौर पर उभरकर सामने आई। परंतु भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेस ने आम आदमी पार्टी को बाहरी समर्थन देने का निर्णय लिया। इसी तरह 2018 में सम्पन्न हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए काँग्रेस ने जेडीएस के साथ गठबंधन कर लिया।
अब ऐसे में ये प्रश्न उठना तो लाज़मी है कि जब कांग्रेस के पास भाजपा को किनारे करने का इतना सुनहरा अवसर है, तो वे शिवसेना और एनसीपी को अपना समर्थन देने से क्यों कतरा रही हैं। सच कहें तो इसके पीछे कांग्रेस पार्टी का राजनीतिक इतिहास और उनकी सत्ता के प्रति दृष्टिकोण काफी हद तक जिम्मेदार है। कांग्रेस अधिकतर समय महाराष्ट्र में सत्ता में रही है, सिवाय 1995-1999 और 2014-2019 के, जब शिवसेना के मनोहर जोशी और भाजपा के देवेंद्र फडणवीस सत्ता में काबिज थे।
1990 के दशक के अंत होते-होते जब पार्टी के सबसे लोकप्रिय और शक्तिशाली नेताओं में से एक शरद पवार ने कांग्रेस छोड़ राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी यानि एनसीपी की स्थापना की, तो सबको लगा कि कांग्रेस का समय अब खत्म हो चुका है। परंतु कांग्रेस पार्टी ने एनसीपी के साथ गठबंधन करते हुए 15 वर्षों तक महाराष्ट्र पर शासन किया। एनसीपी की स्थापना के बावजूद महाराष्ट्र में कांग्रेस एक शक्तिशाली पार्टी के रूप में बनी रही।
जिन चुनावों में कांग्रेस ने एनसीपी के साथ गठबंधन किया है, उसमें उसने एनसीपी से ज़्यादा सीटें जीती थीं, और वो गठबंधन में अक्सर सीनियर पार्टनर के तौर पर रही है। परंतु पिछले दो विधानसभा चुनावों से एनसीपी, कांग्रेस से भी कम सीटें ला रही है। 2014 में कांग्रेस ने 42 सीटों पर विजय प्राप्त की थी, जबकि एनसीपी ने 41 सीटें जीती थी। परंतु इस चुनाव में एनसीपी को 54 सीटें प्राप्त हुई थी, वहीं कांग्रेस को 44 सीटें प्राप्त हुई थी। ऐसे में महाराष्ट्र के राजनीतिक इतिहास में ऐसा पहली बार होगा कि कांग्रेस को एनसीपी का छोटा भाई बनना पड़ेगा, यदि उसने एनसीपी शिवसेना के गठबंधन को समर्थन देने का निर्णय किया तब।
चुनाव के परिणाम घोषित होने के बाद केवल दो व्यक्ति विजेता के रूप में उभर कर आए- शरद पवार और देवेंद्र फड़नवीस। महाराष्ट्र की जनता ने 288 में से 161 सीटों के साथ फडणवीस के नेतृत्व वाली सरकार के पक्ष में एक स्पष्ट निर्णय दिया। महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए 145 सीटों की आवश्यकता होती है और राज्य में भाजपा-शिवसेना गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला है। परंतु सत्ता के लालच में शिवसेना ने 2.5 वर्ष के लिए सीएम की कुर्सी की नाजायज मांग की और गठबंधन पर पानी फेर दिया।
भाजपा और शिवसेना ने बतौर मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में देवेंद्र फड़नवीस को फिर से आगे किया और चुनाव लड़ा। परंतु ठाकरे परिवार के राजकुमार आदित्य के लिए सीएम की कुर्सी हथियाने हेतु पार्टी ने गठबंधन से मुंह मोड़ लिया। शिवसेना आधे कार्यकाल (2.5 वर्ष) के लिए सीएम की कुर्सी की मांग कर रही है, जबकि पार्टी ने केवल 56 सीटें जीतीं हैं (यह 124 में से 56 सीटें जीती)। इसके ठीक उलट भाजपा ने 105 सीटें जीतीं है और लगभग 70 प्रतिशत स्ट्राइक रेट (उसने 152 में से 105 जीता) अर्जित किया है, इसलिए वे सीएम की कुर्सी पर हार मानने को तैयार नहीं हैं।
दूसरी ओर शरद पवार ने एनसीपी का नेतृत्व किया। 78 वर्षीय पवार के जुझारूपन को सभी ने सराहा, और भारी बारिश के बीच उनके भाषण ने कई नए पवार प्रशंसकों को पैदा किया। पार्टी द्वारा जीती गई सीटों की संख्या 41 से बढ़कर 54 हो गई और यह शिवसेना (56) से मात्र 2 सीट ज्यादा है। अगर महागठबंधन सत्ता में आती है, तो राज्य में वयोवृद्ध शरद पवार 29 साल के आदित्य ठाकरे पर भारी पड़ेंगे।
शिवसेना के पास न तो उचित राजनीतिक समर्थन है, न ही चतुरता, और न ही शिल्प कौशल, जनशक्ति अथवा धन शक्ति, जो एनसीपी के सशक्त राजनीतिक बुनियाद के साथ प्रतिस्पर्धा कर सके। वहीं कांग्रेस इन सभी मोर्चों पर एनसीपी का मुकाबला कर सकती है। परंतु कांग्रेस कम से कम सीटों पर योगदान दे, ये सोचना हास्यास्पद लगता है। एक बार जब शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन सरकार बना लेती है, तो पुराने पवार शिवसेना और कांग्रेस दोनों पर हावी हो जाएंगे और अगले चुनाव तक वह विलय और अधिग्रहण की राजनीति के जरिए दोनों दलों को कमजोर कर देंगे। फिर अगले चुनाव के लिए एनसीपी के पास एकमात्र विपक्ष के रूप में बीजेपी ही होगी।