लोकतंत्र में चुनाव जीतना राजनीतिक पार्टियों का सबसे प्रमुख लक्ष्य होता है। इसके लिए वो कई प्रयास करती हैं, अब एक नया प्रयास फैशन में आया है और वह है भाड़े का चुनावी रणनीतिकार या यूं कहे इलैक्शन स्ट्रेटजिस्ट को काम देना। भारत में एक ऐसे ही रणनीतिकार बहुत फेमस है और वो हैं प्रशांत किशोर। हालांकि, राजनीतिक पार्टियां उनकी और उनके टीम I-PAC की सेवा लेने को आतुर रहती हैं। ऐसा लगता है कि भारत के राजनीतिक परिदृश्य में उनसे अच्छा रणनीतिकार कोई है ही नहीं।
देश की राजनीति में अगर कोई व्यक्ति थोड़ा भी रुचि रखता है तो उसे बस कुछ घटनाओं को पढ़ना होगा जिससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि प्रशांत किशोर कोई रणनीतिकार नहीं बल्कि एक सामान्य व्यक्ति है जो बस जीते हुए घोड़ों पर दांव लगाता है।
वह एक ओवररेटेड रणनीतिकार हैं जो सिर्फ किसी भी पार्टी के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए ही उनके लिए रण नीति बनाते हैं। उदाहरण के लिए, 2014 के चुनावों के दौरान बीजेपी के अभियान के साथ उनका जुड़ाव था, लेकिन सच कहे तो वह सिर्फ मोदी लहर थी जिससे बीजेपी जीतने में कामयाब रही थी। प्रत्यक्ष तौर पर कोई भी यह कह सकता था कि उस समय मोदी के विजयी होने वाले थे, कारण थे कांग्रेस द्वारा किए गए भ्रष्टाचार। इसी तरह से YSRCP के साथ भी साथ उनका जुड़ाव ऐसा ही था। जिस तरह का राजनीतिक माहौल आंध्रा प्रदेश में थे उसे देखते हुए YSRCP आंध्र प्रदेश में पहली पसंद थे। हालांकि, जब भी वे भाजपा के प्रतिद्वंद्वी के रूप में उतरे हैं, तब प्रशांत किशोर की रणनीति बार-बार विफल रही है। उदाहरण के लिए 2017 के यूपी विधानसभा चुनावों को लें। प्रशांत किशोर सपा-कांग्रेस गठबंधन के राजनीतिक रणनीतिकार थे। हालांकि, परिणामों ने किशोर की अजेयता के मिथक को मजबूती से खत्म कर दिया। सपा-कांग्रेस गठबंधन पूरी तरह से समाप्त हो गया था और भाजपा ने जीत दर्ज की थी।
अगर सही मायनों में देखा जाए तो प्रशांत किशोर एक राजनीतिक ब्रोकर हैं । यह साबित करने के लिए कई उदाहरण मिल जाएंगे। वर्ष 2015 के बिहार चुनावों के दौरान जदयू-राजद का गठबंधन कौन सोच सकता था? वर्षों से प्रतिद्वंदी रहे और एक दूसरे की धूर-विरोधी रही इन दोनों पार्टियों और नीतीश-लालू जैसे नेता को एक साथ लाना और बीजेपी को सत्ता से दूर रखना प्रशांत किशोर के दिमाग की ही उपज थी। दूसरा उदाहरण असम में देखने को मिला। असम में कांग्रेस और बदरुद्दीन अजमल की अगुवाई वाली AIUDF के बीच गठबंधन बनाने की महत्वाकांक्षी योजना भी PK की थी जो कांग्रेस के पीछे हट जाने से सफल नहीं हो पाई। इसके बाद उदाहरण लेते है महाराष्ट्र का। महाराष्ट्र में शिवसेना जैसी हिंदुवादी पार्टी जिसके नेता कभी बालासाहब हुआ करते थे आज कांग्रेस और NCP के साथ गठबंधन कर चुकी है। वैचारिक मतभेद होने के बावजूद शिवसेना और कांग्रेस को एक साथ लाना किसी पावर ब्रोकर का ही काम हो सकता है। इससे पता चलता है कि प्रशांत किशोर केवल एक शानदार पावर ब्रोकर और ओवररेटेड रणनीतिकार हैं।
इनकी जीत केवल संख्या में ही दिखती है और यही इनका महिमामंडन करती है। इसी तरह वह जेडी (यू) के उपाध्यक्ष बन गए है और अब ऐसा लग रहा है कि वह अपने तेवर की वजह से JDU से भी निकाले जाएंगे। बता दें कि CAB पर उन्होंने पार्टी लाइन से हट कर बयान दिया है और वो इसपर कायम हैं। वहीं जेडीयू ने इसके संकेत दे दिए हैं कि पीके को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है।
दरअसल, पार्टी में होने के बावजूद वह लगातार अपनी I-PAC की टीम के जरिये दूसरी पार्टियो के के लिए रणनीति बना रहे हैं। वर्तमान में, वह TMC से जुड़े है जो पश्चिम बंगाल राज्य में भाजपा के खिलाफ मुख्य दलों में से एक है।
इसी तरह वो दिल्ली की आम आदमी पार्टी के लिए अब काम करेंगे जिसके जीतने का परसेंटेज ज्यादा लग रहे परंतु किशोर का साथ इस पार्टी के लिए हार की वजह भी बन सकती है।
हालांकि वो केवल ऐसी पार्टी के लिए काम करते हैं, जिसके जीतने की आशंका अधिक होती है। इसलिए यह कहा जा सकता है उनका पूरा करियर ऐसी पार्टियों के साथ तालमेल बिठाने में गया है, जो राजनीतिक पार्टी पहले से स्थापित है और जीतने के कगार पर है। जद (यू) के साथ साथ भी पावर ब्रोकिंग से ज्यादा कुछ नहीं था। CAB मामले के बाद वास्तव में यह स्पष्ट हो गया कि प्रशांत किशोर एक ओवररेटेड रणनीतिकार है, लेकिन एक शानदार पावर ब्रोकर भी हैं।