प्रिय विधु विनोद चोपड़ा,
मैं आपको अपना अभिवादन भेजता हूँ और आशा करता हूँ कि आप स्वस्थ होंगे और सब कुछ कुशल मंगल होगा। मुझे ये जान कर अच्छा लगा कि आपने कश्मीरी पंडित समुदाय के दर्द और उनकी पीड़ा को ध्यान में रखते हुए ‘शिकारा’ को बनाने की सोची। चूंकि मैं ये फिल्म कल देखकर आया हूँ, इसलिए मैंने सोचा कि क्यों न इस पत्र के माध्यम से आपसे एक सच्ची, निष्पक्ष वार्तालाप करूँ।
सर्वप्रथम, विधु विनोद चोपड़ा आपके विचार जैसे भी हो, मैं आपका अभिवादन करता हूँ कि आपने उस विषय को उठाया, जिस पर चलचित्र तो छोड़िए, एक डॉक्यूमेंट्री बनाने से भी कई लोग कतराते हैं। 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक में जिस तरह से कश्मीरी हिन्दू समुदाय के लोगों को अपना घर बार छोड़ने पर विवश होना पड़ा था, उससे अनायास ही उस समय का स्मरण हो आता है, जब कई हिंदुओं और सिखों को उनके अपने घर, अपनी मातृभूमि से स्वतन्त्रता के वक्त धक्के मार कर निकाल दिया गया था। आपने इस भावना को ध्यान में रखते हुए पोस्टरों के जरिये इस बात का प्रचार भी कराया, कि ‘शिकारा: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ कश्मीरी पंडित’।
पर इस चलचित्र को देखने के बाद मेरे जैसे एक जिज्ञासु भारतीय के मन में कुछ प्रश्न उठे हैं। जिस तरह से संवेदनशील मुद्दों पर आपने बड़ी ही ‘परिपक्वता’ से अपनी बात रखी है, मुझे पूरा विश्वास है कि आप मेरे इन छोटे प्रश्नों का उत्तर बड़ी ही सरलता से देंगे।
विधु विनोद चोपड़ा आपने एक साक्षात्कार में कहा था कि यह फिल्म कश्मीरी पंडितों के लिए एक मरहम की तरह है, और जो बीत चुका है, उससे छोड़ आगे की सुध लें। परंतु मैंने जितना भी इस मूवी को देखा, उसमें ऐसा तो कुछ भी नहीं था, जो कश्मीरी पंडितों की पीड़ा के लिए मरहम का काम करे। आप तो उल्टा इस फिल्म से उनके ज़ख़्मों पर नमक रगड़ते हुए दिखाई दिये।
कश्मीरी पंडितों पर क्या बीती, उनके परिवार के सदस्यों को किस प्रकार से गोलियों से भूना गया, किस तरह उनकी माताओं और बहनों के साथ दुष्कर्म हुआ, उसका मार्मिक चित्रण तो बहुत दूर की बात, आपने तो उल्टे उनपर अत्याचार करने वाले आतंकियों और कट्टरपंथियों की बड़ाई करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यदि आपको नाज़ी जर्मनी पर फिल्म बनानी हो, तो क्या यहूदियों के दुख दर्द का भी आप इस तरह से मज़ाक उड़ाएंगे?
अब मैंने बात छेड़ ही दी है तो इस पर थोड़ा और प्रकाश डालता हूँ। आप दिखाते हो कि कश्मीर का एक क्रिकेटर, जो फिल्म के नायक का दोस्त है, सिर्फ इसलिए बंदूक उठा लेता है क्योंकि सरकार द्वारा किए गए लाठीचार्ज में उसका पिता मारा जाता है। पहले भी कहीं इसके बारे में सुना है, नहीं? अरे हाँ, आपकी मिशन कश्मीर को मिलाकर ये तो लगभग कश्मीर के मुद्दे पर बने हर बॉलीवुड फिल्म के कोर प्लॉट का हिस्सा है न? पब्लिक को आप बेवकूफ समझते हो क्या?
आपने कैसे सोचा कि कश्मीरी पंडितों के दर्द को दिखाने के नाम पर आप घाटी के कट्टरपंथियों और उनके कुकृत्यों को उचित ठहरा सकते हैं? भला आप इस नरसंहार को सरकार के विरुद्ध विद्रोह की संज्ञा देकर कैसे उचित ठहरा सकते हो? और आप को भला हिन्दू समुदाय के पुनरुत्थान के लिए उठाए किसी भी कदम से इतनी घृणा क्यों होती है? ‘मंदिर वहीं बनाएँगे’ किस प्रकार से लोगों में अलगाव की भावना पैदा करती है? वो यह तो नहीं कहते न कि यहाँ क्या चलेगा? निज़ाम ए मुस्तफा! सच दिखाने से ऐसा क्या डरना, विधु विनोद चोपड़ा?
कल्पना कीजिये कि नाज़ी जर्मनी पर एक मूवी बन रही है और उसमें न Kristallnacht वाली त्रासदी का कोई उल्लेख है, न ही यहूदियों को नौकरियों से वंचित रखने पर कोई बात हो, न ही उन्हे ज़बरदस्ती concentration camps भेजने का कोई दृश्य दिखाया जाए, और तो और नाज़ी अफसरों की दरिंदगी और उसकी बर्बरता का गुणगान हो। आपको क्या लगता है विधु, यहूदी इस फिल्म को हाथों हाथ लेंगे, नहीं न? तो आपने कैसे सोच लिया कि आप कश्मीरी पंडितों की पीड़ा का अपने मूवी के जरिये उपहास उड़ाएंगे, और कोई चूँ तक नहीं करेगा?
यदि आपको कश्मीर की हिंसा को backdrop बनाकर एक प्रेम कथा ही दिखानी थी, तो भी एक बार को मान लेता। पर कम से कम ढंग से तो दिखाते। कश्मीर में जिस तरह कश्मीरी पंडितों के घर जलाए गए थे, वो आपके लिए महज साजो सामान नहीं हो सकता। विडम्बना की बात तो यह है कि आपकी माँ ने स्वयं इस त्रासदी को झेला है, फिर भी आपने ‘शिकारा’ में इस तरह से इस त्रासदी का उपहास उड़ाया।
आपने जिस तरह से अपनी कहानी दिखाई, मुझे एक बार तो लगा मानो अलग background के साथ एक बार फिर कलंक जैसी वाहियात फिल्म दिखाई जा रही हो। बस, उसी समय मेरा धैर्य जवाब दे गया और मैं सिनेमा हॉल से बाहर निकल आया। मैं कश्मीरी पंडित नहीं हूँ, पर फिर भी आपको किसी समुदाय के दर्द, उनकी पीड़ा का इस तरह से उपहास उड़ाने का अधिकार किसी ने नहीं दिया है।
https://twitter.com/PatharBaaz/status/1225746286386638850?s=20
विधु विनोद चोपड़ा आपकी हिपोक्रिसी तो उसी समय उजागर हो गयी जब एक प्राइवेट स्क्रीनिंग के दौरान आपने एक कश्मीरी पंडित की पीड़ा का भद्दा मज़ाक बनाया। जिस तरह से आपने उनसे वार्तालाप किया, उसे देख कोई भी व्यक्ति उबल पड़ेगा। यदि उन्होने आपकी मूवी पर कश्मीरी पंडितों के साथ न्याय न करने का आरोप लगाया, तो क्या गलत कहा? उल्टे आप तो ताली बजाने लगे और कहने लगे कि आपके लिए हम शिकारा 2 बनाएँगे। क्या आपके लिए शर्म नाम की कोई चीज़ नहीं होती? आपके लिए
हम इतने भी बेवकूफ नहीं है, जो आपके द्वारा कश्मीरी पंडितों के नरसंहार पर उड़ाए गए मज़ाक को भूल गये हों। आप ही ने कहा था कि “यह फिल्म हीलिंग के बारे में है, ये फिल्म साथ आने के बारे में है। यह फिल्म इस धारणा के बारे में है कि 30 साल से ज़्यादा हो चुके हैं, चलो माफ करें और आगे बढ़ें। यह कुछ ऐसा है कि जब दो दोस्तों के बीच एक छोटा झगड़ा होता है, और 30 साल बाद वे कहें कि छोड़ो इसे, एक दूसरे से माफी माँगकर गले मिलो”। अब क्या आप तय करेंगे कि भारत को कैसी नैतिकता दिखानी चाहिए?
मैं आपसे क्षमा याचना की आशा नहीं करता हूँ, क्योंकि आप उसके योग्य भी नहीं हैं। पर अपने तुच्छ शब्दों में मैं आपको बताना चाहता हूँ कि आपके प्रोपगैंडा को हाथों हाथ लेना अब हम भारतीयों ने बंद कर दिया, और आप इस तरह से किसी भी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के साथ हुई त्रासदी का उपहास नहीं उड़ा सकते। हम आशा करते हैं कि आपको ईश्वर सद्बुद्धि दे, और आपको अपने किए गए पापों का आभास हो।
आपका शुभ चिंतक