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 क्यों पंडित नेहरू के पहले मंत्रीमंडल के सदस्य श्यामाप्रसाद मुखर्जी उस समय की भारतीय जनसंघ (आज की BJP) के पहले अध्यक्ष बने

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की पुण्यतिथि पर उन्हें भावभिनी श्रद्धांजलि!

Guest Author
द्वारा Guest Author
23 जून 2020
in इतिहास
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श्यामाप्रसाद मुखर्जी

PC: Patrika

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पिछले दो लोकसभा चुनाव (2014-2019) में राजनीतिक पंडितों के अनुमान, अंदाजे, और गणित को ताक पर रख कर अपने बलबूते पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली और अपने आप को दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल होने का दावा करने वाली भारतीय जनता पार्टी के पोस्टर और बैनरों पर दो चेहरे वर्षों से दिखाई देते आए हैं। एक पंडित दीनदयाल उपाध्याय का और दूसरा डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी का। दोनों में कई समानताएं है, जिसमेंसे एक है दोनों की मौत रहस्मयी तरीके से हुई और आज तक उसका कारण स्पष्ट नहीं हुआ है,दोनों के समर्थक समय-समय पर जांच की मांग भी करते रहते हैंI

पंडित दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में प्रचारक बनते हैं और फिर राजनीति में उनका प्रवेश होता है, वो भारतीय जनसंघ (आज की भाजपा) के संस्थापक सदस्य भी रहे , जिसके पहले अध्यक्ष डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी को बनाया गया था I

डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी की पृष्ठभूमि कुछ अलग है I 6 जुलाई, 1901को बंगाल के कलकत्ता में जन्मे श्यामाप्रसाद मुखर्जी, स्नातकोत्तर की पढ़ाई के उपरांत इंग्लैंड से  वकालत करते हैं और प्रारंभिक समय में एक शिक्षाविद् तथा एक वकील के रूप में अपने आप को कलकत्ता में प्रतिष्ठित करने वाले डॉक्टर मुखर्जी कांग्रेस से अपना राजनीतिक जीवन शुरू करते है, मतभेद उत्पन्न होते हैं तो हिंदू महासभा के सदस्य भी बनते हैं, गांधीजी के कहने पर स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रीमंडल में पंडित जवाहरलाल नेहरू उनको मंत्री भी बनाते हैं, पूर्वी पाकिस्तान के हिन्दुओं के अधिकारियों को अपनी ही सरकार द्वारा नजरअंदाज करने पर मंत्री मंडल से इस्तीफा देते है और भारतीय जनसंघ की स्थापना में अहम भूमिका निभाते हैं। स्वतंत्र भारत में कश्मीर को भारत का  पूर्ण और अभिन्न अंग बनाने के लिए अपने आप को बलिदान कर देते हैI

वे अन्य राजनेताओं से काफी अलग थे वे समस्याओं को अनदेखा नहीं करते थे, समस्या की तह तक जाते थे और संघर्ष करने से पीछे नहीं हट ते थे।

33 साल की उम्र में कलकत्ता विश्ववद्यालय के उपकुलपति बनने वाले डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी अपने सफलता पूर्ण दो कार्य कालों में (1934 से 1938) भारत के स्वदेशी विचार को विभिन्न माध्यमों से युवाओं तक  पहुंचाने का काम करते है। वो बांग्ला भाषा को मैट्रिक तक अनिवार्य कर देते है, अपने उपकुलपति रहते हुए अंग्रेजो के भारी विरोध के बावजूद भी कलकत्ता विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह बांगला भाषा में करवाते हैं, जिसमें रवीन्द्रनाथ ठाकुर मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाए जाते है। कलकत्ता वश्वविद्यालय के प्रतीक चिह्न को भी भारतीय स्वरूप दिया जाता है।

1937  में बंगाल की राजनीतिक परिस्थितियां देखते हुए उन्होंने राजनीति में सक्रिय होने का सोचा, डॉक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी – एक संक्षिप्त जीवनी किताब के अनुसार डॉक्टर मुखर्जी को राजनीति में प्रवेश करवाने वाले लोगो में निर्मल चन्द्र चटर्जी (पूर्व लोक सभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी के पिता) आशुतोष लहीरी, न्यायधीश मन्मथ नाथ मुखर्जी होते है। इसके अतिरिक्त स्वामी प्रणवानंदा (संस्थापक भारतीय सेवा आश्रम संघ), से डॉक्टर मुखर्जी प्रेरणा और समर्थन पाते है।

विनायक दामोदर सावरकर, जो उस समय अखिल भारतीय हिंदू महासभा के नेता थे, 1939 में बंगाल प्रवास पर आते है। डॉक्टर मुखर्जी की उनसे भेंट होती है और कुछ चर्चा विमर्श के बाद वे हिंदू महासभा की सदस्यता ग्रहण कर लेते है। डॉक्टर मुखर्जी के मन मस्तिष्क में  निरंतर एक बात चल रही थी कि मुस्लिम लीग जहां एक तरफ मुसलमानों में अलगाव पैदा कर रही है और दूसरी तरफ हर जगह उसका पक्ष लेने को तत्पर रहती है, वहीं हिन्दुओं की बात उठाने के लिए कोई राजनीतिक दल सामने नहीं आता। उनका विरोध मुसलमानों से नहीं था, बल्कि उस मुस्लिम लीग से था जो भारत में मुसलमानों में बंटवारे का ज़हर घोल रही थी। पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के मंत्रिमंडल में केंद्र शिक्षा मंत्री रहे प्रताप चंद्र चुंदर के अनुसार ‘‘डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के हिंदू महासभा से जुड़ने का मुख्य कारण यह था कि मुस्लिम लीग हर जगह मुसलमानों के अधिकारों की बात करती थी और पक्ष लेती थी, और वहीं  दूसरी तरफ कांग्रेस हिन्दुओं की बात आने पर मौन रहती थी। इसलिए वे हिंदू महासभा से जुड़े ताकि वे हिन्दुओं का पक्ष ले सकें।’’

1942 बंगाल में चक्रवात तूफान और  फिर सूखा पड़ने के करणवश लाखों लोगों की मृत्यु होती है, डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अब अपना अधिकतर समय सेवा कार्य में देते है ।

भारत धीरे धीरे विभाजन की तरफ जा रहा था। डॉक्टर मुखर्जी ये मानते थे कि सांप्रदायिक समस्या का निदान विभाजन से नहीं हो सकता।  जगह जगह सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए और भारत के विभाजन को कोई रोक ना सका । पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपई कहते है कि अगर डॉक्टर मुखर्जी और उनके साथी ना होते तो बंगाल पूरा पाकिस्तान में चला जाता। आज का पश्चिम बंगाल भी आज भारत का हिस्सा ना होता। देश के विभाजन के बाद गांधीजी के कहने पर वे स्वतंत्र भारत के पहले मंत्री मंडल में उद्योग और आपूर्ति विभाग मंत्री बनाए जाते है। 1950 में उस समय के पूर्वी पाकिस्तान(आज का बांग्लादेश) में लाखो हिन्दुओं को मारा जाता है और उनपर अत्याचार होते है। डॉक्टर मुखर्जी पंडित जवाहरलाल नेहरु से पाकिस्तान के खिलाफ सख्त कार्रवाई की विनती करते है I लेकिन जब पंडित नेहरू पाकिस्तान के खिलाफ कोई सख्त कदम नहीं उठाते तो वो अप्रैल, 1950 को पंडित नेहरू मंत्री मंडल से इस्तीफा दे देते है। अब वे अपना ज़्यादातर समय पूर्वी बांग्लादेश से आए हुए शरणार्थियों के पुनर स्थापना और राहत कार्य में लगाते है।

दूसरी तरफ भारत के विभाजन के बाद कश्मीर का मुद्दा दिनों दिन समस्या बनता जा रहा था डॉ॰ मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे।

उन्होंने नारा दिया की  – एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान नहीं चलेंगे।कश्मीर समस्या पर नेहरू जी से  मत भेद  होते है ,पाकिस्तानी  हमलावरों को पूरी तरह खदेड़े बगैर मामला संयुक्त राष्ट्र में लेजाने को डॉ मुखर्जी उचित नहीं मानते है,उन्होंने सवाल उठाया कि अगर संविधान पूरे देश केलिए अच्छा है, तो कश्मीर के लिए अलग से प्रावधान क्यों? क्योंकि यह प्रावधान कश्मीर को भारत से दूर करेगा और  जम्मू और लद्दाख के लोंगो के साथ भी धोखा होगा जो पूरा विलय चाहते हैं। स्वतंत्र भारत में कश्मीर के अंदर प्रवेश पाने  के लिए परमिट लेकर जाना अनिवार्य कर दिया गया था, अपने ही देश के किसी भाग में जाने के लिए परमिट लेने के खिलाफ डॉक्टर मुखर्जी आंदोलन छेड़ देते है I

मई, 1953 को श्यामा प्रसाद मुखर्जी दिल्ली से कश्मीर के लिए रवाना होते हैं, 11 मई को वे कश्मीर पहुंच जाते हैं जहां उनको गिरफ्तार कर लिया जाता है, युवा पत्रकार अटल बिहारी वाजपेयी ( जो बाद में देश के प्रधानमंत्री बनते हैं ) उनके साथ होते हैं। वे अटल बिहारी वाजपेयी को कहते है, ‘वाजपेयी जाओ और देशवासियों को कह दो कि मैं कश्मीर पहुंच गया हूँ और वो भी बिना परमिट के’।

कश्मीर में बिना परमिट के प्रवेश के कारण उनको श्रीनगर में नजरबंद कर दिया जाता है,उनके साथ उनके साथी गुरुदत्त और तेखचंड शर्मा भी होते हैं। डॉक्टर मुखर्जी का स्वास्थ्य दिनो दिन खराब होता जाता है, उनको ह्रदय में तकलीफ होती है और 22 जून  को उनको पास के नर्सिंग होम में भर्ती किया जाता है। 23 जून ,1953 को  सुबह उनकी मृत्यु की खबर आती है। उनकी मृत्यु का सही कारण आज तक सबके लिए रहस्य है।

डॉ मुखर्जी देश की अखंडता के लिए बलिदान देते हैं, वो भारत को टुकड़ो में नहीं देखते थे उनके लिए भारत एक था और अखंड था, वरना बंगाल में जन्में और अपने जीवन का अधिकतर समय वही बिताने के बाद भी डॉ मुखर्जी कश्मीर के लिए अपने प्राणों की आहुति न देते I वो कोई साधारण नेता नहीं थे ,वरना मंत्री पद का त्याग करकेसंघर्ष कौन करता है भला राजनीती में I

                                                                                                                                                               – निखिल यादव

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