देश की नई शिक्षा नीति छात्रों को 21वीं सदी के अनुरूप नई चुनौतियों से मुक़ाबला करने और नए अवसरों का लाभ उठाने के लिए तैयार करेगी। शिक्षा नीति में सबसे बड़ा बदलाव शिक्षा की भाषा को लेकर किया गया है। बच्चों को कक्षा 5 तक उनकी मातृभाषा में ही पढ़ाया जाएगा। आगे छात्र उसी भाषा को कक्षा 8 तक भी जारी रख सकते हैं। देश के मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल के मुताबिक “क्योंकि बच्चा सबसे अधिक चीज़ें अपनी मातृभाषा में ही सीखता है, ऐसे में प्राथमिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में ही होनी चाहिए”।
मैं एक ऐसा छात्र हूँ, जो कक्षा 12 तक हिन्दी मीडियम में ही पढ़ा है। नई शिक्षा नीति के बाद मैं यह कह सकता हूँ कि हिन्दी को आखिरकार उसका सम्मान मिल रहा है। भारत में, और खासकर दिल्ली राज के अंतर्गत भारतीय भाषाओं को कभी उनका सम्मान नहीं मिला। मुस्लिम आक्रांताओं ने फारसी का परचम लहराया तो अंग्रेजों ने अपनी अंग्रेज़ी का!
मुस्लिम शासकों के पतन के साथ ही फारसी का पतन तो हो गया, लेकिन अंग्रेजों के जाने के बाद भी अंग्रेज़ी का प्रभाव कम न हो सका। ऐसा इसलिए क्योंकि आज़ाद भारत के शासक मेकाले की शिक्षा नीति के उत्पाद थे, जिनका रंग तो brown था, लेकिन सोच अंग्रेजों वाली थी!
राष्ट्रीय राजनीति और नौकरशाही को काबू में रखने वाली luytens दिल्ली और License-Quota राज के दौरान देश के व्यवस्याओं को काबू में रखने वाले दक्षिण बॉम्बे और civil lines के लोगों ने समाजवाद के दौर में भी अंग्रेज़ी को ही सर पर चढ़ाये रखा। इन तथाकथित “सभ्य” लोगों ने “असभ्य” लोगों पर राज को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ लिया था। “सभ्य” होने के लिए उदारता और धर्मनिरपेक्षता आवश्यक बना दिये गए थे। इसी कड़ी में रवीश कुमार जैसे लोगों का उदय हुआ, जिनमें “सभ्य” होने की चाह जमकर हिलोरे मार रही थी।
ऐसे में, मेरे जैसे लोग, जो बचपन से ही हिन्दी में पढे हैं, हमें इंग्लिश बोलने वालों के सामने कमतर समझा जाने लगा। मेरे अंदर स्वयं एक हीन भावना घर कर गयी। यह धारणा बन गयी कि English बोलने वाले ज़्यादा स्मार्ट होते हैं, ज़्यादा समझदार होते हैं। इसलिए हमने कभी उनके साथ मुक़ाबला करने की सोची भी नहीं। बस इतना सोचा था कि कैसे इन लोगों का अनुसरण करके सफलता प्राप्त कर ली जाये।
शुरू से ही हमारे दिमाग में यह बैठा दिया गया है कि English बोलने वाले हमसे बेहतर होते हैं। English medium स्कूलों में पढ़ने वाले मेरे रिश्तेदार जब भी मेरे घर आते, तो मैं उनपर असंख्य सवाल दागता, जैसे उनके स्कूल में क्या होता है, कौनसी प्रेयर्स गायी जाती हैं? क्या लड़के और लड़कियां इकट्ठा बैठते हैं, उन्हें homework कैसा मिलता है, क्या उन्हें आधुनिक विज्ञान पढ़ाया जा रहा है, इत्यादि!
हालांकि, जैसे-जैसे हम ज़िंदगी में आगे बढ़े और कॉलेज में प्रवेश किया, वैसे-वैसे अंग्रेज़ी भाषा की मिथ्या टूटने लगी। मुझे अहसास हुआ कि अंग्रेज़ी में पढे बच्चों की तुलना में समस्याओं को मैं बेहतर तरीके से सुलझा पा रहा था। मुझे समझ में आया कि अंग्रेज़ी का समझदारी से कोई लेना देना नहीं है। हाँ, वे मुझसे बेहतर वक्ता थे, उनके ज़्यादा दोस्त थे, बड़े-बड़े लोगों के साथ उनकी उठ-बैठ थी। हालांकि, समस्या सुलझाने में वे मुझसे फिसड्डी थे।
यहाँ से समझ में आता है कि हमारे समाज में हमें अपनी मातृभाषा को अंग्रेज़ी से ज़्यादा नहीं तो कम से कम उसके समान महत्व देने की आवश्यकता है। आज UP, MP और कई राज्यों में शैक्षणिक बोर्ड्स भी CBSE की NCERT की किताबों को अपना रहे हैं, ताकि उनका सिलेबस भी “बेहतर” हो सके। बेहतर यानि अंग्रेज़ी मीडियम और ज़्यादा “सभ्य”!
नई शिक्षा नीति में मातृभाषा, और मेरे मामले में हिन्दी पर ज़ोर होगा, जो मुझ जैसे लाखों विद्यार्थियों को हीन भावना और हिन्दी-अंग्रेज़ी के मानवनिर्मित भेद को मिटाने का काम करेगा।