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जिस चीनी राष्ट्रवाद के कारण चीन-जापान युद्ध होते-होते बचा था, वो राष्ट्रवाद दोबारा उफान पर है

चीन का उग्र राष्ट्रवाद अब उसकी बर्बादी का कारण बनेगा

Abhinav Kumar द्वारा Abhinav Kumar
13 July 2020
in समीक्षा
राष्ट्रवाद

(PC: Foreign Policy)

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कोरोना के बाद चीन और चीन के लोगों में एक अलग स्तर का राष्ट्रवाद देखने को मिल रहा है। इसी अति राष्ट्रवाद के कारण चीन लगभग सभी देशों से दुश्मनी मोल ले रहा है और यह चीन के लिए खतरे की घंटी है। आज सभी देश चीन के खिलाफ हो चुके हैं और एक स्वर में चीन को बर्बाद करने के लिए आगे आ रहे हैं।

दरअसल,जब चीन के अंदर वर्ष 1989 में तियानमेन चौक पर चीनी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन हुआ और छात्र सड़कों पर उतरे तब चीन की सरकार ने उस समय उस आंदोलन को तो कुचल दिया लेकिन उन्हें यह भी पता चल गया कि इस तरह की घटना आगे भी हो सकती है। ऐसे सरकार विरोधी घटनाओं को भविष्य में रोकने के लिए चीनी सरकार ने “Patriotic Education Campaign” चलाया। इस कैम्पेन के तहत चीन की शिक्षा प्रणाली में अमूल-चूल परिवर्तन किया गया परंतु इसी परिवर्तन ने चीन की अगली पीढ़ी में राष्ट्रवाद की ऐसी भावना पैदा की कि वर्ष 2012 में चीन जापान से युद्ध करते-करते रह गया था। कोरोना के बाद फिर से चीन के लोगों के अंदर यही अतिराष्ट्रवाद उफान पर है। इससे न सिर्फ घरेलू स्तर बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी चीन को भयंकर नुकसान होने जा रहा है।

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कोरोना के बाद सामान्य व्यक्ति से लेकर अधिकारी स्तर के चीनी में राष्ट्रवाद की भावना उफान मार रही है और इसका नमूना हमे कई बार देखने को मिल चुका है। चीन के अंदर लोग सड़कों से लेकर सोशल मीडिया पर ताइवान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के खिलाफ खुल कर अपने रोष को प्रकट कर रहे हैं। वहीं अन्य देशों में भी चीनी अपने राष्ट्रवाद का परिचय देने से नहीं चूक रहे हैं। अन्य देशों में स्थित चीनी राजदूत तो अन्य देशों के आंतरिक मामलों में खुलेआम हस्तक्षेप कर रहे हैं। उदाहरण के लिए नेपाल की स्थिति किसी से भी छुपी नहीं है जब चीनी राजदूत ने हस्तक्षेप कर पीएम केपी ओली की सरकार गिरने से बचाई थी।

वहीं फ्रांस में मौजूद चीनी राजदूत ने अपने एक लेख में फ्रांस के स्वास्थ्य कर्मियों और अधिकारियों को नैतिक तौर पर भ्रष्ट बता डाला था। उस राजदूत ने फ्रांस के डॉक्टरों पर अपने स्वार्थ के लिए मरीजों और फ्रांस के नागरिकों को मरने के लिए छोड़ने का आरोप लगाया था। हद तो तब हो गई जब उस राजदूत ने यह लेख चीन के दूतावास की आधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित कर दिया। तब फ्रांस सरकार ने उस लेख पर तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए चीन के राजदूत को समन जारी कर दिया था।

इसी प्रकार ऑस्ट्रेलिया में मौजूद चीनी राजदूत ने धमकी दी थी कि यदि उसने चीन विरोधी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रखा तो फिर चीन उसका आर्थिक बहिष्कार भी कर सकता है। इसके बाद से ही ऑस्ट्रेलिया और चीन के रिश्तों में दरार आ चुकी है। ऑस्ट्रेलिया अब खुल कर चीन को चुनौती दे रहा है। इसके अलावा यूके में मौजूद चीनी राजदूत ने भी यूके को हाँग काँग के मामले पर धमकी दी थी और इससे दूर रहने को कहा था। ब्रिटेन से चीन के रिश्तों में पहले से ही खटास आई हुई है।

पिछले कुछ महीनों में, कनाडा में चीन के राजदूत ने सार्वजनिक रूप से कनाडा में “white supremacy” होने का आरोप लगाया है तो वहीं स्वीडन में उसके राजदूत ने स्वीडिश पुलिस को “अमानवीय” करार दिया और देश की “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता”  की आलोचना की थी। इसके अलवा दक्षिण अफ्रीका में चीनी राजदूत ने कहा था कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियां अमेरिका को “पूरी दुनिया का दुश्मन” बना रही हैं।

यानि देखा जाए तो चीन के राजदूतों ने अपने अति राष्ट्रवाद के कारण विश्व के प्रमुख देशों को अपने खिलाफ कर लिया है। इससे नुकसान बाकी देशों को नहीं बल्कि चीन को ही होगा।

चीन के अंदर लोग ताइवान, भारत और अमेरिका के साथ बढ़ते तनाव की खुशियाँ मना रहे हैं और ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वो अब युद्ध ही करना चाहते हैं। इसमें चीनी मीडिया का भी अहम योगदान है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी मीडिया के माध्यम से ताइवान, भारत अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के मामलों को इस तरह से पेश कर रही है जो चीनी जनता के राष्ट्रवाद को और बढ़ाएँ।

चीन के लोगों का रवैया दिन प्रतिदिन और आक्रामक होता जा रहा है। ठीक इसी प्रकार की राष्ट्रवादी भावना वर्ष 2012 में भी देखने को मिली थी तब जापान ने विवादी Senkaku Islands को खरीदने की घोषणा कर दी थी। उसके बाद चीन में भयंकर स्तर पर प्रदर्शन शुरू हो गया था। यह मामला इतना बढ़ा कि कि हांगकांग से लेकर बीजिंग तक जापान के खिलाफ प्रदर्शन हुए। जापानी दूतावास के सामने लोगों ने जापान का झंडा जला दिया और उसके खिलाफ नारे लगाए।  ताइवान ने तो जापान से अपने राजदूत को वापस बुला लिया था। तब चीन के समर्थन में हांगकांग के कुछ प्रदर्शनकारी इस द्वीप तक पहुंच गए थे और उन्होंने वहां पर चीन का झंडा भी लहरा दिया था। उनमें से कईयों को जापान की कोस्ट गार्ड ने बंधक बना लिया था।

उस दौरान चीनी राष्ट्रवाद के कारण स्थिति चीन और जापान में युद्ध जैसी हो चुकी थी। अगर युद्ध होता तो चीन की हार भी तय थी क्योंकि तब तक चीन उतना ताकतवर नहीं था जैसा आज है।

परंतु आज स्थिति अलग है और चीन के इस आक्रामक रवैये से किसी देश को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। सभी चीन के खिलाफ एक्शन लेने के लिए तैयार दिखाई दे रहे हैं। एक तरफ ताइवान जैसे छोटे से देश ने चीन की नाक में दम कर रखा है तो वही भारत के साथ बॉर्डर विवाद में उसे पीछे हटने को मजबूर होना पड़ा। South China Sea में भी लगभग सभी देश उसके खिलाफ हो चुके हैं। विश्लेषकों का स्पष्ट मानना है कि चीन की राष्ट्रवादी भावना चीन के अंदर लोगों को एकजुट करने में उपयोगी हो सकती है, लेकिन दुनिया के अन्य देशों में यह दुश्मनी और अविश्वास फैलाने का काम करता है। आज सभी देशों में चीन के प्रति यही विरोधी भावना और उसके प्रति अविश्वास देखने को मिल रहा है। अब चीन के राष्ट्रवाद के कारण ही उसका अंत निश्चित है।

Tags: चीनजापानराष्ट्रवाद
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