कांग्रेस, एनसीपी, आईएनएलडी और राष्ट्रीय लोक दल में समानता क्या है? वंशवादी होने के अलावा यह पार्टियां कृषि प्रधान पार्टी हैं, जो कथित तौर पर किसानों के हक के लिए लड़ती हैं। लेकिन एक और समानता इनमें ये भी है कि इन्होंने सहकारी बैंक यानि Cooperative Banks को अपने शासन में कई बार नोट छापने की मशीन में परिवर्तित किया है, जिससे पार्टी चलाने के लिए आवश्यक धन की आपूर्ति बनी रहती थी। परंतु अब और नहीं, क्योंकि केंद्र सरकार ने एक झटके में इन पार्टियों का यह सुख भी उनसे छीन लिया है।
हाल ही में केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश पारित किया है जिसके अंतर्गत न केवलB anking Regulation Act, 1949 (बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949) का संशोधन, अपितु संशोधन के अंतर्गत सभी शहरी सहकारी [Cooperative] बैंक्स अब स्पष्ट रूप से आरबीआई के दायरे में आएंगे। इस सरकारी निर्देश का असर करीब 1500 से अधिक सहकारी बैंकों पर अवश्य पड़ेगा। मनी लाइफ की रिपोर्ट के अनुसार, “इस अध्यादेश के अंतर्गत प्राइमरी सहकारी सोसाइटी, राज्य स्तर के सहकारी बैंकों और जिला स्तरीय सहकारी बैंकों के मूल सदस्यों को कवर नहीं किया जाएगा, क्योंकि इनकी देखभाल नाबार्ड [NABARD] बहुत अच्छे से कर रहा है”।
अब चूंकि शहरी सहकारी बैंक आरबीआई के दिशा निर्देश अनुसार काम करेंगी, तो ये निर्णय एनसीपी, वाईएसआर कांग्रेस, काँग्रेस, टीडीपी, आईएनएलडी जैसी पार्टियों के लिए किसी दुस्वप्न से कम नहीं होगा। यह शहरी सहकारी बैंक इन पार्टियों के काले धन के गोरखधंधे के लिए मानो लाइफ लाइन थी। इन बैंकों का वार्षिक राजस्व हजारों करोड़ रुपयों का होता था। चूंकि इनका प्रबंध अक्सर स्थानीय नेताओं के हाथ में होता था, इसलिए ये बैंक कई घोटालों का केंद्र भी होता था। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र के एनसीपी को ही देख लीजिये। जब एनसीपी शासन में थी, तभी से इन बैंकों द्वारा दिये जाने वाले लोन पर राज्य की गारंटी लागू होती थी। इसका अर्थ था कि क्षेत्रीय एनसीपी नेता जब मन चाहे तब करोड़ों रुपये का कर्जा ले सकता था, और वे बकाया लौटाते भी नहीं थे।
इस स्थिति में यदि बैंक डूब जाते, तो राज्य सरकार राज्य के कोषागार से धन निकालकर न केवल जमा करने वाले ग्राहकों के पैसों को सुरक्षित रखती, बल्कि बैंक को भी जैसेम-तैसे बचा लेती। जो राजनेता जानबूझकर पैसा नहीं चुकाते, उन्हें आंच भी नहीं आती। पर अब ऐसा और नहीं चलेगा। यूं तो Devendra Fadnavis (देवेन्द्र फडणवीस) ने अपने शासन में बैंकों के भ्रष्टाचार पर काफी हद तक लगाम लगाने की कोशिश की। इतना ही नहीं, उन्होंने 2016 में ये अध्यादेश भी पारित किया कि सहकारी बैंकों के जो भी निदेशक, विशेष रूप से राजनैतिक निदेशक भ्रष्टाचार के गतिविधियों में लिप्त पाये जाएँगे, उन्हें तत्काल प्रभाव से दो सत्रों के लिए चुनाव में हिस्सा लेने से प्रतिबंधित किया जाएगा। परंतु उनके सत्ता से बाहर होते ही सारे किए कराये पर पानी फेर दिया गया ।
सहकारी बैंकों के जरिये काले धन का धनोपार्जन की जड़ें कितनी गहरी थी, इसका अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हो कि पिछले वर्ष प्रवर्तन निदेशालय यानि ED ने एनसीपी प्रमुख शरद पवार पर 25000 करोड़ रुपये का घोटाला करने का आरोप लगाया था। ईडी ने शरद, उनके भतीजे अजित पवार और 70 अन्य अफसरों के विरुद्ध पीएमएलए के अंतर्गत महाराष्ट्र राज्य सहकारी बैंक द्वारा क्षेत्रीय चीनी मिलों को लोन देने के नाम पर 25000 करोड़ रुपये का घपला करने का मुक़दमा दर्ज किया था।
शरद पवार से बढ़िया और कोई उदाहरण नहीं हो सकता ये सिद्ध करने के लिए कि कैसे राजनेता सरकारी दफ्तरों और राजस्व का उपयोग केवल अपना उल्लू सीधा करने के लिए करते हैं। सहकारी बैंकों से कमाए काले धन से ही शरद पवार ने महाराष्ट्र में अपनी पैठ जमाई, और आज सत्ता का सुख भी प्राप्त कर रहे हैं। लेकिन बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट में संशोधन से मोदी सरकार ने शरद पवार के साम्राज्य की नींव पर ही वार किया है। इससे न केवल सहकारी बैंकों में भ्रष्टाचार में भारी मात्र में कमी आएगी, बल्कि इन बैंकों के जरिये काला धन उत्पन्न करने में जुटी पार्टियों को भी अब करारा झटका लगेगा।