तुर्की की वर्तमान अवस्था बहुत बुरी है। एक ओर ईसाई जगत में उसकी आलोचना हो रही है, तो दूसरी ओर पूर्वी मेडीटेरेनियन सागर में ग्रीस के समुद्री क्षेत्र में घुसपैठ करने के कारण उसे फ्रांस और इज़रायल के प्रकोप का सामना करना पड़ रहा है। इसके साथ-साथ उसे अफ्रीका में लीबियाई मोर्चे पर भी फ्रांस और यूएई के हाथों मुंह की खानी पड़ी है। लेकिन ऐसा लगता है कि अभी तुर्की की समस्याएँ और बढ़ने वाली है, क्योंकि उसकी हठधर्मिता के कारण जल्द ही हमें इज़रायल, यूएई और भारत के बीच एक रणनीतिक साझेदारी उभरती हुई दिख सकती है।
परंतु तुर्की की समस्या तो इज़रायल के साथ पूर्वी मेडिटेरेनियन में है, ऐसे में यूएई और भारत का क्या काम? दरअसल, पूर्वी मेडिटेरेनियन तो केवल एक मोर्चा है, असल में जिस प्रकार से चीन दक्षिण पूर्वी एशिया, दक्षिण एशिया और अमेरिका के लिए खतरा बना हुआ है, उसी प्रकार से तुर्की पूर्वी मेडिटेरेनियन क्षेत्र के देश, मध्य एशिया और दक्षिण एशिया, विशेषकर भारत जैसे देश के लिए एक तगड़े खतरे के रूप में उभरकर सामने आ रहा है। ऐसे में इज़रायल, यूएई और भारत के बीच जल्द ही कूटनीतिक और रणनीतिक साझेदारी देखने को मिल सकती है।
सर्वप्रथम बात करते हैं इज़रायल की। इज़रायल को पारंपरिक तौर पर तुर्की से कोई विशेष खतरा नहीं रहा था, लेकिन तानाशाह एर्दोगन के नेतृत्व में अब तुर्की ईरान से भी बड़े खतरे के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। तुर्की ने हाल ही में अल-अक्सा मस्जिद को हागिया सोफिया परिसर की तरह पुनः ‘स्वतंत्र’ कराने की वकालत की। ये इसलिए आपत्तिजनक नहीं था कि एर्दोगन दूसरे खलीफा बनने के ख्वाब बुन रहे हैं, बल्कि इसलिए था कि अल-अक्सा मस्जिद यहूदियों के पवित्र स्थल माउंट टैम्पल को ध्वस्त कर बनाया गया था, और इस मस्जिद का गुणगान यहूदियों की दृष्टि में उतना ही अशोभनीय है, जितना अयोध्या में श्रीरामजन्मभूमि परिसर को ध्वस्त कर बनाई गई बाबरी मस्जिद का महिमामंडन करना।
इसके अलावा तुर्की ने हाल ही में अमेरिका द्वारा सम्पन्न कराई गई यूएई इज़रायल शांति वार्ता का भी विरोध किया। ऐसे में मोसाद ने तुर्की को ईरान से भी बड़ा खतरा मानते हुए तुर्की के विरुद्ध मोर्चा संभाल लिया है। द टाइम्स के लेख के अनुसार,“मोसाद के अफसर कोहेन का मानना है कि, ईरान अब पहले जैसा खतरनाक नहीं रहा, क्योंकि उसे किसी ना किसी तरीके से नियंत्रित किया जा सकता है। लेकिन तुर्की की कूटनीति अलग है और उसके दांव पेंच ऐसे हैं कि उसे पकड़ना आसान नहीं है। इसी का फ़ायदा उठाकर वह पूर्वी मेडिटेरेनियन में अपना वर्चस्व जमा रहा है।” यही नहीं, इस लेख में NATO की निरर्थकता सिद्ध करते हुए लिखा गया कि NATO अब इस समस्या को नहीं सुलझा सकता, क्योंकि अब उसमें पहले जैसी बात नहीं रही।
अब तुर्की से यूएई को क्या समस्या है? इसके लिए हमें लीबिया की ओर रुख करना होगा। लीबिया के गृह युद्ध में जहां तुर्की GNA गुट का समर्थन कर रहा है, तो वहीं लीबियाई नेशनल आर्मी गुट का समर्थन यूएई और फ्रांस कर रहे हैं। लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं है। यूएई उस गुट का हिस्सा है, जो सऊदी अरब को निर्विरोध रूप से इस्लामिक जगत का नेता मानता है, जबकि तुर्की अपने आप को इस्लामिक जगत का नया नेता बनाना चाहता है।
इसी परिप्रेक्ष्य में जब UAE ने इज़रायल से शांति समझौता किया, तो और कोई भड़का हो या नहीं, परंतु तुर्की को इस समझौते से सबसे अधिक तकलीफ हुई। उसने इस समझौते का विरोध भी किया, और यूएई पर तुर्की में जासूसी के आरोप भी लगाए। इसके अलावा यूएई ने अमेरिका के साथ उनके लड़ाकू विमान F-35 खरीदने पर भी विचार कर रहा है, जिससे तुर्की का बैकफुट पर आना लगभग तय है और इसीलिए वह और अधिक बौखलाया हुआ है।
ऐसे में यूएई भी भली-भांति जानता है कि तुर्की अब पहले जैसा नहीं है, और यदि उसे हल्के में लेने की भूल की, तो यूएई को आने वाले समय में काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसीलिए यूएई और इज़रायल में समझौता होने से ये भी सुनिश्चित हुआ है कि आने वाले समय में किसी भी संकट से निपटने के लिए दोनों देश एक दूसरे की हरसंभव सहायता कर सकते हैं, चाहे वह सैन्य स्तर पर हो या फिर कूटनीतिक स्तर पर, जिसका विस्तार इंटेलिजेंस के क्षेत्र में भी किया जा सकता है।
अब जितना खतरा तुर्की से यूएई और इज़रायल को है, उतना ही खतरा तुर्की से भारत को भी है। हिंदुस्तान टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार भारतीय इंटेलिजेंस एजेंसियों का मानना है कि तुर्की पिछले कुछ समय से भारतीय मुसलमानों को भारत के विरुद्ध भड़काने में लगा हुआ है। हिंदुस्तान टाइम्स से बातचीत करते हुए एक वरिष्ठ सरकारी अफसर ने बताया, “पिछले कुछ समय से हमने पाया है कि तुर्की की सहायता से कट्टरपंथी मुस्लिम आतंकवाद को बढ़ावा देने हेतु भारतीय मुसलमानों को भड़काने में लगे हुए हैं।’’
इसी रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि कैसे तुर्की कश्मीर में अलगाववादियों को बढ़ावा देने के लिए विशेष रूप से आर्थिक सहायता करता था, जिसके सबसे बड़े लाभार्थियों में से एक रहे हैं कश्मीर अलगाववादी सैयद अली शाह गिलानी। इससे एक बार फिर ये बात सिद्ध होती है कि आखिर इतने लोगों को आतंक की आग में झोंकने के बावजूद गिलानी, मिरवाइज़ फ़ारूक और अब्दुल्ला परिवार जैसे अलगाववादी खुद इतने ठाट से कैसे रहते हैं।
इसके अलावा पूर्वोत्तर दिल्ली के दंगों की जांच पड़ताल में ये सामने आया है कि दंगाइयों को वित्तीय सहायता दिलवाने में किस प्रकार से तुर्की ने एक अहम भूमिका निभाई थी। ऐसे में ये कहना गलत नहीं होगा कि चीन और पाकिस्तान के अलावा अब तुर्की भारत के लिए एक नए शत्रु के रूप में उभर कर सामने आ रहा है। चूंकि, यूएई और इज़रायल, दोनों ही भारत के अच्छे मित्र माने जाते हैं, इसलिए यदि तीनों भविष्य में एक दूसरे की सहायता करते हैं, तो किसी को कोई हैरानी नहीं होगी।
जिस प्रकार से तुर्की ने इज़रायल, यूएई और भारत की नाक में दम कर रखा है, वो अपने आप में अपनी शामत को गाजे बाजे सहित न्योता दे रहा है। इज़रायल से भिड़ने से पहले ही लोग दस बार सोचते हैं, और जब वह यूएई और भारत के साथ मिलकर तुर्की को चुनौती देगा, तो तुर्की को मुंह की खाने में ज़्यादा समय नहीं लगेगा।