बांग्लादेश को तीस्ता नदी प्रोजेक्ट के लिए चीन 1 अरब डॉलर की आर्थिक मदद देने जा रहा है। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार बांग्लादेश के जल संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले जल संसाधन बोर्ड में अतिरिक्त मुख्य अभियंता ज्योति प्रसाद घोष ने BenarNews को बताया, “तीस्ता नदी के प्रबंधन के लिए चीन द्वारा वित्त पोषित एक बड़ी परियोजना को अपनाया गया है और चीन इस परियोजना हेतु धन देने के लिए सहमत हो गया है। उम्मीद है, हम दिसंबर तक परियोजना शुरू कर सकते हैं।” बांग्लादेश के इस बदले हुए रुख का प्रमुख कसूरवार यदि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को माना जाए तो शायद गलत नहीं होगा।
ये भारत के लिए एक बड़ा झटका है क्योंकि उसका पुराना साथी बांग्लादेश अचानक चीन की ओर मुड़ गया है। गौरतलब है कि इस परियोजना पर कोई निष्कर्ष निकले इसके लिए भारत और बांग्लादेश साल 1983 से ही प्रयासरत थे, लेकिन भारत और बांग्लादेश किसी भी समझौते पर पहुँच सकें, यह एक मुश्किल काम हो गया था।
हालाँकि, 2011 में भारत सरकार और बांग्लादेश ने समझौते की रूपरेख तैयार कर ली थी लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के विरोध के चलते यह समझौता नहीं हो पाया। वास्तविकता यह है कि शेख हसीना द्वारा बांग्लादेश का प्रधानमंत्री पद संभालने के बाद, इस योजना पर सहमति बनने की संभावना बन गई थी। लेकिन ममता बनर्जी के अंधाधुंध विरोध ने कभी इस समझौते को पूरा नहीं होने दिया।
बंगाल की ममता सरकार का कहना है कि, गर्मी के मौसम में भारत और बांग्लादेश को संयुक्त रूप से जितने जल की आवश्यकता होती है उसका 1/16 भाग ही नदी में उपलब्ध होता है। यदि भारत बांग्लादेश को निर्बाध रूप से जलापूर्ति करेगा तो उत्तरी बंगाल के भारतीय किसानों को बहुत समस्या होगी। ममता बनर्जी के विरोध का आधार ठोस था इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन समस्या का स्थायी समाधान उससे भी अधिक आवश्यक है। भारत अनन्त काल तक बांग्लादेश के हिस्से का पानी नहीं रोक सकता क्योंकि यह अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप नहीं होगा
ऐसा नहीं है कि, इसका समाधान सम्भव नहीं । तीस्ता नदी की ही बात करें तो मानसून के महीने में इसमें इतना पानी होता है कि यदि उसे स्टोर किया जाए तो गर्मी में कम पानी की समस्या का समाधान हो जाएगा। साथ ही इसका एक पक्ष यह है कि तीस्ता नदी पर सिक्किम में एक बांध बना है जिससे असमय पानी छोड़ने और रोकने के कारण भी नदी में जलापूर्ति की समस्या होती है। अतः एक ऐसा मेकेनिज़्म बनाना होगा जिसमें बांध से कब पानी छोड़ा जाए इसको लेकर सिक्किम, प० बंगाल और बांग्लादेश की सरकार में आपसी समझ बन जाए। साथ ही बांध पर अतिरिक्त पानी को स्टोर करने की व्यवस्था करनी होगी। लेकिन ये सभी योजनाएं तभी संभव होंगी जब प० बंगाल की सरकार वास्तव में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की इच्छा रखेगी।
ममता बनर्जी का रवैया देखकर लगता है कि, वह किसी निष्कर्ष पर आना ही नहीं चाहतीं। 2011 में उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ बांग्लादेश का दौरा करना था। तब यह उम्मीद जताई गई थी कि यह समझौता हो जाएगा, लेकिन बिल्कुल अंत समय में ममता ने अपना दौरा रद्द कर दिया। नतीजतन समझौता नहीं हो सका। अब प्रश्न है कि यदि ममता को समझौते के किसी प्रावधान से दिक्कत थी तो उन्हें पहले ही इसपर स्थिति स्पष्ट कर लेनी चाहिए चाहिए थी।
इतना ही नहीं, साल 2017 में जब शेख हसीना ने भारत का दौरा किया था तब केंद्र की मोदी सरकार और बंगलादेशी सरकार के बीच इस समझौते से काफी उम्मीदें थीं। लेकिन ममता बनर्जी के ऐन मौके पर विरोध से कोई निष्कर्ष नहीं निकल सका और शेख हसीना की यात्रा विफल रही।
अब जा कर बांग्लादेश के सब्र का बांध टूट गया और अंततः उसने चीन के साथ जाने का फैसला किया । मगर बांग्लादेश का यह फैसला भारत के लिए काफी चिंताजनक विषय है। भारत कभी नहीं चाहेगा कि बांग्लादेश जैसा उसका हर-मौसम सहयोगी देश चीन के ऋण जाल में फंसे। यही कारण है कि, भारत सरकार ने अपने विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगल को बांग्लादेश भेजा है। श्रृंगला 2016 से 2019 तक बांग्लादेश में भारत के हाई कमिश्नर रहे हैं और उनके शेख हसीना से बहुत अच्छे संबंध रहे हैं।
इस मुद्दे पर ममता का अंध-विरोध और ओछी राजनीति, भारत सरकार के लिए नई-नई मुसीबत लाती रहती है। घरेलू मुद्दों पर ऐसी राजनीति करने के बाद अब ममता वैदेशिक मामलों में भी अपने निजी हितों को भारत के हितों से ऊपर रख रहीं है।