चीन की हालत इस समय बहुत खराब है। अफ्रीका में उसे पटक पटक के धोया जा रहा है, मध्य एशिया से उसे कभी भी धक्के मारकर निकाला जा सकता है, भारत समर्थित QUAD उसे दिन में तारे दिखा रहा है, और तो और अब श्रीलंका भी चीन की खिंचाई करने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं दे रहा है।
आजकल ऐसा प्रतीत होता है कि चीन जितना ज़्यादा प्रयास करता है, वह उतना ही अधिक मुंह की खाता है। चीन ने अपने ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’ नीति के अंतर्गत श्रीलंका में अपने राजनयिक भेजे, जिससे वह पूर्णतया चीन के चंगुल से मुक्त न होने पाये। लेकिन श्रीलंका ने भी स्पष्ट कर दिया है, कि वह अपने हितों के साथ समझौता करके चीन से कोई संबंध नहीं रखेगा।
हम्बनटोटा को अपनी भूल के रूप में स्वीकारने के बाद अभी चीन के वर्तमान गतिविधियों पर श्रीलंका कूटनीतिक तरह से ही, पर लगाम लगाने के लिए उत्सुक है। श्रीलंका के विदेश सचिव जयनाथ कोलंबगे के अनुसार, “राष्ट्रपति जी ने स्पष्ट किया है कि रणनीतिक सुरक्षा के परिप्रेक्ष्य से हमें ‘पहले भारत’ की नीति का अनुसरण करना होगा। हम भारत के लिए रणनीतिक तौर पर खतरा नहीं बन सकते, हमें भारत के साथ मिलकर काम करना चाहिए”। श्रीलंका इस सोच में अकेले नहीं है, अपितु मालदीव जैसे देश भी भारत के साथ दक्षिण एशिया को चीन के चंगुल से मुक्त रखने के लिए कंधे से कंधा मिलाकर चलना चाहता है।
लेकिन बात यहीं पर नहीं रुकती। राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने स्पष्ट किया है कि वे इस धारणा को तोड़ना चाहते हैं कि चीन द्वारा आर्थिक सहायता दिये जाने का अर्थ है कि वह उसके देश की आंतरिक नीतियों के साथ कुछ भी कर सकता है। उनकी चिंता उचित भी है, क्योंकि हम्बनटोटा के कारण श्रीलंका को जिन दिक्कतों का सामना करना पड़ा है, राजपक्षे यह कतई नहीं चाहते कि श्रीलंका को एक बार फिर ऐसी दिक्कतों से दो चार होना पड़े।
इसके अलावा चीन के कर्ज़ का मायाजाल किसी देश को किस हद तक तोड़ सकता है, ये सब नेपाल के उदाहरण से भली भांति समझ सकते हैं। इसीलिए अब गोटाबाया राजपक्षे ने अपने बयान में कहा है, “कई भौगोलिक विशेषज्ञों का कहना है कि चीन जो कुछ भी कर रहा है, वह ‘debt trap’ है, जिसके जरिये वह श्रीलंका की नीतियों पर अपना वर्चस्व जमाना चाहता है। मैं सिद्ध करना चाहता हूँ कि ऐसा कुछ नहीं है, और इस प्रोजेक्ट से हमारी काफी मदद होगी। चीन को इस बात को सिद्ध करने में हमारी सहायता करनी चाहिए”।
यह बयान देकर श्रीलंका के राष्ट्राध्यक्ष ने चीन को ऐसी स्थिति में डाल दिया है कि अब उससे न निगलते बनेगा और न ही उगलते। श्रीलंका ने अब चीन को ठीक वैसे ही उसके जाल में फंसाया है, जैसे अफ्रीकी देश चीन को फंसा रहे हैं। न तो अब चीन यह अस्वीकार कर सकता है कि उसने श्रीलंका को 90 मिलियन डॉलर की सहायता दी, और न ही वह श्रीलंका के साथ अपनी मनमानी कर सकता है।
अब अफ्रीका की भांति श्रीलंका भी चीन के गले की फांस बन गया है। श्रीलंका चीन के बीआरआई परियोजना और स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स नीति के लिए रणनीतिक रूप से बेहद अहम है। यदि श्रीलंका चीन के हाथ से फिसल गया, तो हिन्द महासागर पर वर्चस्व जमाने का चीन का सपना महज सपना ही रह जाएगा।