कहते हैं, सत्य परेशान हो सकता है, लेकिन पराजित नहीं। इस कथन को बचपन में स्कूल की किताबों से सोशल मीडिया पोस्ट्स तक कई बार सुना है, लेकिन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी हाल ही में देखने को मिला, जब आरटीआई याचिका के जवाब में एनसीईआरटी द्वारा औरंगज़ेब के महिमामंडन का एक भी प्रमाण देखने को नहीं मिला।
हाल ही में मुगल आक्रांता औरंगजेब के ‘महिमामंडन’ को लेकर एक आरटीआई याचिका दायर की गई थी, जिसमें एनसीईआरटी द्वारा प्रकाशित इतिहास के पुस्तकों में औरंगजेब की पंथनिरपेक्षता का प्रमाण मांगा गया। नवभारत टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, “12वीं के हिस्ट्री की बुक में थीम्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री पार्ट-टू में मुगल शासकों की तरफ से युद्ध के दौरान मंदिरों को ढहाए जाने और बाद में उनकी मरम्मत कराए जाने का उल्लेख है। इस संबंध में शिवांक वर्मा ने एनसीईआरटी से आरटीआई के जरिये कुछ जानकारी मांगी थी। इस सवाल का जवाब देने की बजाय दो टूक शब्दों में कह दिया गया कि विभाग के पास मांगी गई जानकारी के संबंध में फाइल में कोई सूचना उपलब्ध नहीं है”। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या एनसीईआरटी की हिस्ट्री की बुक्स में आधारहीन इतिहास पढ़ाया जा रहा है। इस संबंध में एजुकेशन फील्ड से जुड़ी डॉ. इंदु विश्वनाथन ने ट्वीट किया है।
इससे दो बातें सामने आती हैं, या तो हमें दशकों से गलत इतिहास पढ़ाया जाता है, या फिर इनके पास पर्याप्त साक्ष्य नहीं है, और दिलचस्प बात तो यह है कि यहाँ दोनों ही बात सही है। मुगल आक्रांता औरंगजेब भले ही ‘जिंदा पीर’ कहा जाता हो, लेकिन औरंगजेब को ये पदवी धर्मनिरपेक्ष होने के लिए कतई नहीं मिली थी। जितने क्रूर और धर्मांध वो था, उसे देख तो हिटलर, स्टालिन, सेंट फ्रांसिस जैसे तानाशाह भी कुछ नहीं हैं।
औरंगजेब कितना क्रूर था, ये आप संभाजी महाराज, साहिब सिंह, जोरावर सिंह, बंदा सिंह बहादुर की जघन्य हत्याओं से स्पष्ट समझ सकते हैं। जो आदमी अपने ही बड़े भाई की हत्या कर उसका सिर अपने पिता को ‘उपहार’ स्वरूप भेजे, उससे सहिष्णुता की आशा आप कैसे कर सकते हैं? हिन्दू हो, सिख हो या फिर पारसी ही क्यों न हो, औरंगजेब ने किसी भी पंथ को नहीं छोड़ा। उनकी धर्मांधता का सबसे बड़ा और प्रत्यक्ष प्रमाण तो बनारस में ही स्थित हैं, जहां प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त कर उसी की नींव पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण किया गया।
लेकिन इसके बाद भी रोमिला थापर, इरफान हबीब और अब औड्रे ट्रूशके जैसे कथित इतिहासकार औरंगजेब का गुणगान करते नहीं थकते, मानो आदमी नहीं देवता हो। लेकिन जिस प्रकार से एक आरटीआई के जवाब में एनसीईआरटी बगले झाँकती फिर रही है, उससे स्पष्ट पता चलता है कि इन लोगों के पास अपने झूठ को सिद्ध करने के लिए कोई ठोस प्रमाण नहीं होता। ये Joseph Goebbels की उस नीति का पालन करते हैं, जहां उनका मानना था कि किसी भी झूठ को इतना बड़ा बनाओ, और इतना दोहराओ, कि लोग उसे सच मानने पर विवश हो जाए।
लेकिन वो कहते हैं न, झूठ की बुनियाद कभी मजबूत नहीं होती। यही आज एनसीईआरटी के परिप्रेक्ष्य में भी सिद्ध हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि औरंगजेब के उदारवाद के बारे में कोई साक्ष्य न मिलना इस बात का प्रमाण है कि हमें कितने वर्षों से एक सफेद झूठ को सच के रूप में परोसा जाता रहा है।