‘ममता बनर्जी ने कांग्रेस छोड़ी और फिर तृणमूल कांग्रेस की स्थापना की। वो न दलबदलू हैं, और न ही किसी अन्य पार्टी से कभी कोई संबंध रखा।’ कुछ ही महीनों पहले जब सुब्रत मुखर्जी ने ये बात बोली थी, तो उद्देश्य स्पष्ट था – चाहे कुछ भी हो जाए, पर तृणमूल कांग्रेस बैसाखियों के साथ चुनाव नहीं लड़ेगी। लेकिन वक्त और नीयत बदलते देर नहीं लगती, और अब वही टीएमसी लेफ्ट और कांग्रेस का साथ मांगती दिखाई दे रही है।
हाल ही में तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एवं सांसद सौगात रॉय ने हाल ही में मीडिया से बात करते हुए बताया, “देखिए, अगर वामपंथ और कांग्रेस वाकई में भाजपा के विरुद्ध है, तो उन्हे बिना किसी संदेह के टीएमसी के पीछे लगना चाहिए, क्योंकि यही एक पार्टी है जो भाजपा जैसे सांप्रदायिक ताकत से जूझ रही है”
If the Left and the Congress are genuine anti-BJP forces, they should lineup behind TMC as it is the only party which is fighting against the divisive politics of the BJP: TMC MP Sougata Roy in Kolkata pic.twitter.com/sTuzYvTMeY
— ANI (@ANI) January 13, 2021
तो ऐसा क्या हुआ कि जो टीएमसी अकेले दम भाजपा को देख लेने की डींगें हांकती थी, उसे अब सहारे की आवश्यकता पड़ रही है? दरअसल, टीएमसी को भली-भांति ज्ञात हो रहा है कि उसके तौर तरीके, विशेषकर उसकी गुंडागर्दी भाजपा को कमज़ोर करने और डराने के बजाए उल्टे उसे और मजबूत बना रही है। जिस तृणमूल कांग्रेस ने वामपंथी शासन को ध्वस्त कर सत्ता प्राप्त की थी, अब उसी के सहारे वह अपनी डूबती नैया पार लगाना चाहती है।
इसका प्रमुख कारण है कि आज भाजपा केवल बंगाल में प्रमुख विपक्षी दल नहीं है, बल्कि इतिहास में पहली बार बंगाल में अपनी सरकार बनाने का माद्दा रखती है। ऐसे में यदि वाकई में टीएमसी, वामपंथ और कांग्रेस मिल जाते हैं, तो क्या होगा? ज़्यादा कुछ नहीं, बस मुकाबला चतुष्कोणीय से त्रिकोणीय हो जाएगा, क्योंकि ओवैसी की AIMIM तब भी इन दलों से अलग चुनाव लड़ेगी, और अल्पसंख्यक वोटों पर टीएमसी, वामपंथ या कांग्रेस का वर्चस्व तो बिल्कुल नहीं होगा।
अब इसका अर्थ क्या है? अर्थ स्पष्ट है, और ये टीएमसी का अन्य पार्टियों को संदेश है – हमसे अकेले कुछ ना हो पाएगा, और हमें आपकी (वामपंथ एवं कांग्रेस) सख्त आवश्यकता पड़ेगी।
हो भी क्यों ना, आखिर पिछले दो तीन महीनों में भाजपा ने इनकी नींद जो उड़ा दी है। एक ओर तो गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा एक मजबूत पार्टी के तौर पर बंगाल राज्य में उभर के आईं है, तो वहीं टीएमसी के बड़े से बड़े नेता उसका दामन छोड़ते हुए दिखाई रहे है। यहां तक कि अधिकारी जैसे वरिष्ठ नेता भी वर्षों की अनदेखी और रूखे व्यवहार से तंग आकर भाजपा में शामिल हो गए।
2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान हिंसा नीति के बल पर टीएमसी ने भाजपा को नियंत्रण में रखने को प्रयास किया था, लेकिन हुआ ठीक उल्टा। भारी हिंसा और गुंडागर्दी के बावजूद भाजपा ने ना केवल 42 में से 18 सीटें जीती, बल्कि प्रमुख विपक्ष का दर्जा भी प्राप्त किया।
यूं तो राजनीति में कुछ भी हो सकता है, शिवसेना जैसी पार्टी कांग्रेस से भी मिल सकती है, पर इतनी ही आसानी से वामपंथ भी टीएमसी से हाथ मिला ले, इसकी आशा कम ही है। इसके अलावा शायद टीएमसी को याद नहीं है कि ऐसे महागठबंधन का प्रयास उत्तर प्रदेश में भी किया गया था, वह भी एक नहीं दो बार – 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा का कांग्रेस के साथ और 2019 के लोकसभा चुनावों में बसपा के साथ। पर नतीजा – निल बट्टे सन्नाटा।
ऐसे में अब तृणमूल कांग्रेस को भी स्पष्ट समझ में आ रहा है, कि उससे अकेले कुछ नहीं हो पाएगा, और इसीलिए अब वह ‘ महागठबंधन’ के जरिए अपनी डूबती नैया पार लगाना चाहती है। लेकिन लेफ्ट और कांग्रेस पार्टी भी तृणमूल से गठबंधन को इतने ही इच्छुक है, ये तो भविष्य ही बेहतर बता सकता है।